डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
गिर्दा‘ का जन्म 10 सितम्बर, 1945 को अल्मोड़ा जिले के हवालबाग के ज्योली
तल्ला स्यूनारा में हुआ था. अपने गांव में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद गिर्दा
अपने दीदी-जीजा के साथ पढ़़ने के लिये अल्मोड़ा चले गये। यहां तो उनकी
अराजकता और बढ़़ गई। लल्मोड़ा तो ऐसे लोगों के लिये खाद-पानी का काम
करता था। यहीं उनकी रुचियों ने और विस्तार लिया। गीत-संगीत के अलावा वे
यहां अन्य विधाओं से भी परिचित होने लगे। यहां रहकर किसी तरह हाईस्कूल
पास कर वापस गांव आ गये। यहीं उन्होंने गाय-बकरियां चराते गीते लिख और
गाये।गिर्दा 1961-62 में पूरनपुर (पीलीभीत) चले गये और वहां दैनिकभोगी
कर्मचारी के रूप में पीडब्ल्यूडी में नौकरी करने लगे। यहां दिन में नौकरी और
रात में नौटंकी देखने लगे। यहां से फिर गीत लिखना और गाना-बजाना और बढ़़
गया। यहीं उनकी मुलाकात ओवरसियर दुर्गेश पंत से हुई। यहां उन्होंने विभिन्न
कुमाउनी कवियों की कविताओं का एक संकलन ‘शिखरों के स्वर’ नाम से
प्रकाशित किया। अन्य संग्रह भी छापने की योजना थी, लेकिन जगह-जगह
भटकने के कारण यह संभव नहीं हो पाया। यहां से फिर ‘गिर्दा’ 1964-65 में
लखनऊ चले गये। यहां भी दिहाड़ी की मजदूरी और रिक्शा चलाने लगे।
औपचारिक शिक्षा के बजाए वह लखनऊ के पार्कों में जीवन के यथार्थ को जानने-
समझने लगे। जिन ग्वालो, हुड़़कियों और गिदारों को वह गांव में छोड़ आये थे,
उन्हें वे यहां दलितों के रूप में मिल गये। फैज और साहिर लुधियानवी जैसों की
नज्में उन्हें उद्वेलित कर रही थी। उनमें प्रतिकार की ऊर्जा पैदा कर रही थी। और
यही से उनकी ‘गिर्दा’ बनने की प्रक्रिया भी शुरू हुई। ‘गिर्दा’ पर फैज और साहिर
का कितना प्रभाव था उसे इस बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने इन दोनों
की नज्मों का कुमाउनी में अनुवाद कर डाला। फैज के ‘हम मेहनतकश जग वालों
से जब अपाना हिस्सा मांगेंगे’ का कुमाउनी अनुवाद देखने लायक है- ‘हम ओड़
बारूड़ी-ल्वार-कुली-कबाड़ी/जब य दुनी थैं हिसाब ल्यूलों/एक हांग नि मांगू-फांग
नि मांगू खाता-खतौनी को हिसाब ल्यूंलो।’ साहिर के गीत ‘वो सुबह तो आयेगी’
को ‘जैंता एक दिन तो आलो दिन य दुनि में’ आंदोलनों के शीर्षक गीत बन
गये।उस दौर में आकाशवाणी लखनऊ केन्द्र से ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम में कुमाउनी
और गढ़़वाली रचनाकारों की गीत-कविताएं प्रसारित हो रही थी। ‘उत्तरायण’ के
लिये ‘गिर्दा’ ने कई कविताएं, गीत और रूपक लिखे। अपने गांव से अल्मोड़ा,
पूरनपुर और लखनऊ तक की गिर्दा की यात्रा हमेशा जीवन के यथार्थ को जानने
की रही। बचपन में जगरियों और हुड़़कियों, नैनीताल में हुड़़का बजाते भीख
मांगते सूरदास जगरिये की प्रतिभा को पहचानने के बाद भारत-नेपाल सीमा में
रहने वाले लोक गायक झूसिया दमाई पर शोध करने तक का ‘गिर्दा’ ने विस्तृत
आयाम पाया। ‘गिर्दा’ की रचना-यात्रा का एक नया पड़ाव तब आया जब 1967
में ब्रजेन्द्र लाल साह उन्हें गीत एंव नाटक प्रभाग, नैनीताल ले आये। यह उनके
जीवन का न केवल महत्वपूर्ण मोड़ था, बल्कि उनके पहाड़़ आने की हरसत भी
पूरी हो गयी। और यहीं से फिर एक नये ‘गिर्दा’ का गढ़़़ना भी शुरू हो गया। यह
दौर लगभग देश में और पहाड़़ में भी नई राजनीति-सांस्कृतिक चेतना की पूर्व
पीठिका बना रहा था। सत्तर का पूरा दशक जनांदोलनों का रहा जिसमें ‘गिर्दा’ ने
एक रचनाधर्मी और आंदोलनकारी के रूप में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
नैनीताल में आकर ‘गिर्दा’ के व्यक्तित्व ने अपना फलक और व्यापक किया। यहां
के रंगमंचीय माहौल ने उनकी अभिव्यक्ति के और रास्ते खोले। इस दौर में गिर्दा
ने ‘अंधेर नगरी’, ‘मिस्टर ग्लाड’, ‘धनुष यज्ञ’, ‘नगाड़े़ खामोश हैं’, ‘हमारी कविता
के आंखर’ के अलावा ‘उत्तराखंड काव्य’ और ‘जागर’ की पुस्तिकाओं के माध्यम से
अपने रचनाकर्म को आगे बढ़ाया।उनके द्वारा रचित बहुचर्चित रचनाएँ हैं- ‘जंग
किससे लिये’ (हिंदी कविता संकलन), ‘जैंता एक दिन तो आलो’’ (कुमाउनी
कविता संग्रह), ‘रंग डारि दियो हो अलबेलिन में’ (होली संग्रह), ‘उत्तराखंड
काव्य’, ‘सल्लाम वालेकुम’ इत्यादि. इनके अतिरिक्त दुर्गेश पंत के साथ उनका
‘शिखरों के स्वर’ नाम से कुमाऊनीं काव्य संग्रह, व डा. शेखर पाठक के साथ
‘हमारी कविता के आखर’ आदि पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं हैं. गिर्दा नैनीताल
समाचार, पहाड़, जंगल के दावेदार, जागर, उत्तराखंड नवनीत आदि पत्र-
पत्रिकाओं से भी सक्रिय होकर जुड़े रहे. एक नाट्यकर्मी के रूप में गिर्दा ने नाट्य
संस्था युगमंच के तत्वाधान में ‘नगाड़े खामोश है’ तथा ‘थैक्यू मिस्टर ग्लाड’ का
निदेशन भी किया.‘गिर्दा’ एक प्रतिबद्ध रचनाधर्मी सांस्कृतिक व्यक्तित्व थे. गीत,
कविता, नाटक, लेख, पत्रकारिता, गायन, संगीत, निर्देशन, अभिनय आदि, यानी
संस्कृति का कोई आयाम उनसे से छूटा नहीं था. मंच से लेकर फिल्मों तक में
लोगों ने ‘गिर्दा’ की क्षमता का लोहा माना. उन्होंने ‘धनुष यज्ञ’ और ‘नगाड़े
खामोश हैं’ जैसे कई नाटक लिखे, जिससे उनकी राजनीतिक दृष्टि का भी पता
चलता है. ‘गिर्दा’ ने नाटकों में लोक और आधुनिकता के अद्भुत सामंजस्य के
साथ अभिनव प्रयोग किये और नाटकों का अपना एक पहाड़ी मुहावरा गढ़ने की
कोशिश की. जीवन भर हिमालय के जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए
संघर्षरत गिर्दा के गीतों ने सारे विश्व को दिखा दिया कि मानवता के अधिकारों
की आवाज बुलंद करने वाला कवि किसी जाति, सम्प्रदाय, प्रान्त या देश तक
सीमित नहीं होता. उनकी अन्तिम यात्रा में ‘गिर्दा’ को जिस प्रकार अपार जन-
समूह ने अपनी भावभीनी अन्तिम विदाई दी उससे भी पता चलता है कि यह
जनकवि किसी एक वर्ग विशेष का नही बल्कि वह सबका हित चिंतक होता है.
गिर्दा उत्तराखंड राज्य के एक आंदोलनकारी जनकवि थे,उनकी जीवंत कविताएं
अन्याय के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा देतीं हैं. वह लोक संस्कृति के इतिहास से जुड़े
गुमानी पंत तथा गौर्दा का अनुशरण करते हुए ही राष्ट्रभक्ति पूर्ण काव्यगंगा
से उत्तराखंड की देवभूमि का अभिषेक कर रहे थे. हर वर्ष मेलों के अवसर पर
देशकाल के हालातों पर पैनी नज़र रखते हुए झोड़ा- चांचरी के पारंपरिक
लोककाव्य को उन्होंने जनोपयोगी बनाया. इसलिए वे आम जनता में ‘जनकवि’
के रूप में प्रसिद्ध हुए.आंदोलनों में सक्रिय होकर कविता करने तथा कविता की
पंक्तियों में जन-मन को आन्दोलित करने की ऊर्जा भरने का गिर्दा’ का अंदाज
निराला ही था. उनकी कविताएं बेहद व्यंग्यपूर्ण तथा तीर की तरह घायल करने
वाली होती हैं-“बात हमारे जंगलों की क्या करते हो,बात अपने जंगले की सुनाओ
तो कोई बात करें.”मेहनतकश लोगों की पक्षधर उनकी कविता उन भ्रष्टाचार में
लिप्त नेताओं की दम्भपूर्ण मानसिकता को चुनौती देती है,जो आजादी मिलने के
बाद भी मजदूर-किसानों का शोषण करते आए हैं और अपनी भ्रष्ट नीतियों से यहां
की भोली भाली जनता को पलायन के लिए विवश करते आए हैं-‘हम ओड़
बारुड़ि, ल्वार, कुल्ली कभाड़ी,जै दिन यो दुनी बै हिसाब ल्यूंलो, एक हाङ नि
मांगुल, एक फाङ न मांगुंल, सबै खसरा खतौनी हिसाब ल्यूंलो.”उत्तराखंड राज्य
आन्दोलन से अपना नया राज्य हासिल करने पर उसके बदलाव को व्यंग्यपूर्ण
लहजे में बयाँ करते हुए गिर्दा कुछ इस अंदाज से कहते हैं-“कुछ नहीं बदला कैसे
कहूँ, दो बार नाम बदला-अदला, चार-चार मुख्यमंत्री बदले, पर नहीं बदला तो
हमारा मुकद्दर, और उसे बदलने की कोशिश तो हुई ही नहीं.”गिर्दा राज्य की
राजधानी गैरसैण क्यों चाहते थे? उसके समर्थन में वे कहते थे- “हमने गैरसैण
राजधानी इसलिए माँगी थी ताकि अपनी ‘औकात’ के हिसाब से राजधानी
बनाएं, छोटी सी ‘डिबिया सी’ राजधानी, हाई स्कूल के कमरे जितनी ‘काले
पाथर’ के छत वाली विधानसभा, जिसमें हेड मास्टर की जगह विधानसभा
अध्यक्ष और बच्चों की जगह आगे मंत्री और पीछे विधायक बैठते, इंटर कालेज जैसी
विधान परिषद्, प्रिंसिपल साहब के आवास जैसे राजभवन तथा मुख्यमंत्रियों व
मंत्रियों के आवास.” गिर्दा ने अपनी कविता ‘जहां न बस्ता कंधा तोड़े, ऐसा हो
स्कूल हमारा’ के द्वारा देश की शिक्षा व्यवस्था के बारे में अपना नज़रिया रखा तो
दूसरी ओर उत्तराखंड की सूखती नदियों और लुप्त होते जलधाराओं के बारे में भी
उनकी चिंता ‘मेरि कोसी हरै गे’ के जरिए उनकी कविता नदी व पानी बचाओ
आंदोलन के साथ सीधा संवाद करती है.हिमालय के जल, जंगल और जमीन को
बचाने के लिए जीवन भर संघर्षरत गिर्दा के गीतों ने विश्व पर्यावरण की
चुनौतियों से भी संवाद किया है. आज बड़े बड़े बांधों के माध्यम से उत्तराखंड की
नदियों को बिजली बेचने के लिए कैद किया जा रहा है,जिसकी वजह से नदियां
सूखती जा रही हैं, वहां के नौले धारे आदि जलस्रोत सूखते जा रहे हैं. अनेक नदियों
और जल संसाधनों से सुसम्पन्न उत्तराखंड हिमालय के मूल निवासी पानी की बूँद
बूँद के लिए तरस रहे हैं.आज के सन्दर्भ में जब एक ओर समस्त देश जलसंकट की
विकट समस्या से ग्रस्त है तो दूसरी ओर जल जंगल का व्यापार करने वाले जल
माफिया और वन माफ़िया प्राकृतिक संसाधनों का इस प्रकार निर्ममता से दोहन
कर रहे हैं, जिसका सारा ख़ामियाजा पहाड़ के आम आदमी को भुगतना पड़ रहा
है. उत्तराखंड में अंधविकासवाद के नाम पर जल,जंगल और जमीन का इतना
भारी मात्रा में दोहन हो चुका है कि चारों ओर कंक्रीट के जंगल बिछा दिए गए हैं
और नौले, गधेरे सूखते जा रहे हैं, जिसके कारण पहाड़ के मूल निवासी पलायन के
लिए मजबूर हैं.गिर्दा के गीतों में उत्तराखंड के जीवन स्वरूप प्राकृतिक संसाधनों के
नष्ट होने की पीड़ा विशेष रूप से अभिव्यक्त हुई है.दरअसल, उत्तराखंड जैसे
संवेदनशील पहाड़ी राज्य के विकास की जो परिकल्पना गिर्दा ने की थी वह
मूलतः पर्यावरणवादी थी. उसमें टिहरी जैसे बड़े बड़े बांधों के लिए कोई स्थान
नहीं था. आज यदि गिर्दा जीवित होते तो विकास के नाम पर पहाड़ों के तोड़ फोड़
और जंगलों को नष्ट करने के खिलाफ जन आंदोलन का स्वर कुछ और ही तीखा
और धारदार होता. गिर्दा की सोच पर्यावरण के साथ छेड़-छाड़ नहीं करने की
सोच थी. उनका मानना था कि छोटे छोटे बांधों और पारंपरिक पनघटों, और
प्राकृतिक जलसंचयन प्रणालियों के संवर्धन व विकास से उत्तराखंड राज्य के अधूरे
सपनों को सच किया जा सकता है. गिर्दा’ का यह गीत उत्तराखंड आंदोलन के
दौरान बहुत लोकप्रिय हुआ. इस गीत के बारे में ‘गिर्दा’ कहते हैं-“यह गीत तो
मनुष्य के मनुष्य होने की यात्रा का गीत है. मनुष्य द्वारा जो सुंदरतम् समाज
भविष्य में निर्मित होगा उसकी प्रेरणा का गीत है यह, उसका खाका भर है. इसमें
अभी और कई रंग भरे जाने हैं मनुष्य की विकास यात्रा के. इसलिए वह दिन
इतनी जल्दी कैसे आ जायेगा. इस वक्त तो घोर संकटग्रस्त-संक्रमणकाल से गुजर
रहे है नां हम सब.लेकिन एक दिन यह गीत-कल्पना जरूर साकार होगी इसका
विश्वास है और इसी विश्वास की सटीक अभिव्यक्ति वर्तमान में चाहिए,
बस.”गिर्दा चाहते थे कि सरकारें व राजनीतिक दल अपने राजनैतिक स्वार्थों और
सत्ता भोगने की लालसा से ऊपर उठकर नए राज्य की उन जन-आकांक्षाओं और
अपेक्षाओं को पूरा करें जिसके लिए एक लम्बे संघर्ष के बाद उत्तराखंड राज्य का
निर्माण हुआ था. पर विडंबना यह रही कि उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के लम्बे
संघर्ष के बाद राजनेताओं ने इस राज्य की जो बदहाली की उससे सुराज्य का
सपना देखने वाले इस स्वप्नद्रष्टा कवि का सपना टूट गया. गिर्दा की कविताओं में
इस अधूरे सपनों का दर्द भी छलका है.वे कहा करते थे-जनकवि गिरीश तिवारी
गिर्दा को उत्तराखंड सरकार उत्तराखंड गौरव सम्मान देने की घोषणा की है।
राज्य स्थापना दिवस पर उनके निधन के 11 साल बाद गिर्दा को यह सम्मान
प्रदान किया जाएगा। धामी सरकार के इस निर्णय की साहित्य, कला प्रेमियों के
साथ ही वैचारिक विरोधियों ने सराहना की है।नौ सितंबर 1945 को अल्मोड़ा में
हवालबाग में जन्मे गिर्दा की कर्मभूमि नैनीताल रही है। गीत एवं नाटक प्रभाग के
कलाकार के साथ ही उत्तराखंड राज्य आंदोलन, नशा नहीं रोजगार दो, समेत
माफिया विरोधी आंदोलनों में गिर्दा के गीतों ने नया जोश भर दिया. प्रसिद्ध
साहित्यकार मंगलेश डबराल ने पहाड़ संस्था की ओर से गिर्दा की कुमाऊंनी व
हिंदी कविता संग्रह जैंता एक दिन त आलो में लिखा है कि गिरदा के अनेक गीत
रचनाकार से दूर स्वतंत्र सत्ता बना चुके हैं। उनके गीतों के कालजयी स्वरूप को
देखकर अनायास महान लेखक रवींद्र नाथ ठाकुर की याद आ जाती है।सांस्कृतिक
परिवर्तन के लिए जितने मोर्चे उपलब्ध हैं, गिर्दा सब मे सक्रिय रहे। उनके गीत
महिलाओं के संघर्ष के बहुत काम आए। राजनीतिक चेतना, प्रतिरोध, परिवर्तन
की इच्छा को उन्होंने गीतों के माध्यम से नई गति दी।युगमंच के अध्यक्ष जहूर
आलम बताते हैं कि गिर्दा के योगदान को सरकारों ने कभी नहीं सराहा । पहली
बार किसी सरकार ने उनको सम्मान प्रदान करने की घोषणा की है, जिसका
स्वागत किया जाना चाहिए।वह बताते हैं कि गिर्दा को एक बार राज्य सरकार ने
प्रसिद्ध लोकगायक गढ़ गौरव नरेंद्र सिंह नेगी के साथ उत्तराखंड का सांस्कृतिक
एम्बेसडर बनाने की घोषणा की थी लेकिन उसका कोई औपचारिक पत्र तक
जारी नहीं हुआ था। गौरतलब है कि नैनीताल के डीएमके प्रयासों से गिर्दा के
गीतों को जिले के सरकारी स्कूलों की प्रार्थना में शामिल किया गया है।गिर्दा’ को
ने अपनी रचनाओं के माध्यम से जीवन के कई संदर्भों को छुआ। उन्होंने एक बड़े़
वर्ग को प्रभावित किया। उनकी रचनाओं ने जहां समसामयिक सवाल उठाये वहीं
चेतना का बड़ा आकाश भी बनाया। गिर्दा का 22 अगस्त, 2010 को निधन हो
गया, लेकिन उनके गीत हमेशा हमारे बीच में रहेंगे। अफसोस कि गिर्दा ने जाने में
जल्दी कर दी। ऐसे समय जब उत्तराखंड राज्य के सियासी सरमाएदार पहाड़ की
थाती कूटकर पूंजी उगाहने पर आमादा हों, गिर्दा का न रहना बड़ा झटका है।
पहाड़ ने आर्थिक आंदोलनों की बजाय देशहित से जुड़े सामाजिक, सांस्कृतिक और
पर्यावरणीय आंदोलन छेड़े और फटेहाल होकर भी पहाड़ की छाती पर चलने
वाले कुदालों और धनाक्रमणों की जमकर मुखालफत की। यह सब किसके बूते?
गिर्दा जैसों के ही तो, जिन्होंने अलख जगाई थी- ‘आज हिमालै तुमुकै धत्यूं छौ,
जागो-जागो ओ मेरा लाल…।’गिर्दा की स्मृति को सलाम!हमारा मार्गदर्शन करेंगे।
उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि। बहरहाल, जो हालात प्रदेश में बने हैं अगर गिर्दा
जिंदा होते तो वो अपनी रचनाओं और गीतों से आज भी सत्ता को चुनौती दे रहे
होते, उनके साथी और सहकर्मियों का तो ये ही मानना है. ऐसे में गिर्दा से जाने
से जो शून्य उत्तराखंड में बना है उसकी भरपाई करना मुश्किल है, हालांकि,
गिर्दा का ये गीत 'जैता एक दिन तो आलु, दिन ए दुनि में' हमेशा पहाड़ी
जनमानस को सतत संघर्ष के लिए प्रेरित करता रहेगा. इसी संकल्प के साथ
उत्तराखंड के हित के लिए दूरदर्शी सोच रखने वाले इस जनकवि की पुण्यतिथि
पर ईटीवी भारत इनको नमन करता है. *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के*
*जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*