डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
देश की उच्च हिमालयी क्षेत्र में सैकड़ों ग्लेशियर मौजूद हैं. अकेले उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में करीब 1200 ग्लेशियर झीलें हैं. लेकिन ये ग्लेशियर झीलें कई बार स्थानीय लोगों के लिए एक बड़ी समस्या भी बन जाती है. क्योंकि, ग्लेशियर से बनने वाले ग्लेशियर झील अक्सर नीचे रह रहे लोगों के लिए काफी खतरनाक साबित होती रही है. जिसको देखते हुए नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट फोर्स (एनडीएमए) ने सर्वे कर उत्तराखंड में मौजूद सैकड़ों ग्लेशियर झीलों में से पांच ग्लेशियर झीलों को अति संवेदनशील करार देते हुए निगरानी के लिए निर्देश दिए गए थे. ऐसे में एक झील का अध्ययन करने के बाद आपदा विभाग ने अन्य चार झीलों का अध्ययन करने का निर्णय लिया है. साथ ही आपदा विभाग ने निर्णय लिया है कि झीलों के समीप सेंसर लगाने के साथ ही कैमरे और आबादी वाले क्षेत्रों में सायरन लगाया जाएगा.बता दें कि भारत सरकार की एनडीएमए ने पिछले साल देश में मौजूद संवेदनशील ग्लेशियर झीलों की सूची जारी की थी. जिसमें उत्तराखंड में मौजूद 13 ग्लेशियर झीलों को संवेदनशील और अति संवेदनशील बताया था. इन झीलों को संवेदनशीलता के आधार पर तीन श्रेणी में बांटा गया है. अति संवेदनशील श्रेणी में 5 ग्लेशियर झीलों को रखा गया है. जिसमें से चार ग्लेशियर झील पिथौरागढ़ और एक ग्लेशियर झील चमोली जिले में मौजूद है. एनडीएमए की ओर से ग्लेशियर झीलों की जानकारी जारी होने के बाद उत्तराखंड आपदा प्रबंधन विभाग ने इसकी निगरानी का निर्णय लिया था. साथ ही साल 2024 में आपदा विभाग ने विशेषज्ञों की टीम गठित कर वसुधारा ग्लेशियर झील का अध्ययन भी करवाया था. लेकिन अभी तक वसुधारा ग्लेशियर झील में सेंसर लगाने की प्रक्रिया शुरू भी नहीं हो पाई है. आपदा प्रबंधन सचिव ने कहा कि प्रदेश के हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियर झीलों की संख्या काफी अधिक है. इन झीलों की संवेदनशीलता को देखते एनडीएमए ने तमाम संस्थानों के जरिए ग्लेशियर झीलों का सर्वे कराया था. जिसके बाद एनडीएमए ने उत्तराखंड की 13 ग्लेशियर झीलों पर निगरानी रखने के निर्देश दिए थे.इन झीलों में से 5 झीलों को अतिसंवेदनशील बताते हुए स्थलीय निरीक्षण करने के लिए कहा गया था. जिसके चलते चमोली जिले में स्थित वसुंधरा ग्लेशियर झील का वैज्ञानिकों की टीम निरीक्षण कर चुकी है. जबकि इसी साल अन्य चार जिलों का निरीक्षण करने का प्लान किया जा रहा है. ग्लेशियर झील का स्थलीय निरीक्षण के दौरान झील की जानकारी एकत्र की जाती है. फिर मैथमेट्री स्टडी की जाती है. इस स्टडी के बाद झील से संबंधित तमाम जानकारियां मिल जाती हैं. जिसके तहत, झील से निकलने वाले पानी निकासी की दूरी, झील टूटने की संभावना क्या है? इसकी जानकारी मिलती है. इसके बाद फिर झील के आसपास सेंसर लगाया जाएगा और जहां भी संभव होगा, वहां पर कैमरा भी लगाया जाएगा. जिससे भविष्य में अगर झील का पानी अचानक कम हो जाता है तो ये पता चल सकेगा कि झील टूट गई है. जिसकी जानकारी कंट्रोल रूम को प्राप्त हो जाएगी. इसके बाद कंट्रोल रूम से जगह-जगह पर लगाए गए सायरन को एक्टिव कर दिया जाएगा. ग्लेशियर लेक टूटने से होने वाले नुकसान को देखते उन जगहों पर सायरन लगाया जाएगा, जहां पर आबादी होगी. ऐसे में जैसे ही सायरन बजेगा, लोग इस जगह को छोड़ देंगे. सायरन बजने के दौरान लोगों को क्या करना है? इसके लिए लोगों को जागरूक भी किया जाएगा. सायरन बजने के दौरान लोगों को कहां जाना? किस मार्ग से जाना है? कहां पर शरण लेना है? इसकी जानकारी दी जाएगी. सचिव ने बताया कि ग्लेशियर झील से संभावित खतरों से लोगों को बचाने के लिए ये तरीका अपनाया जाएगा. केदारनाथ आपदा, रैणी आपदा के दौरान काफी अधिक नुकसान हुआ था. ऐसे में इस तरह का नुकसान न हो. इसके लिए आपदा विभाग कार्रवाई कर रहा है. मुख्यमंत्री ने मध्य क्षेत्रीय परिषद की बैठक में उत्तराखंड में उच्च स्तरीय ग्लेशियर अध्ययन केंद्र खोलने का विषय उठाया है तो इसके पीछे राज्य की बड़ी चिंता समाहित है। कारण यह कि मध्य हिमालयी राज्य उत्तराखंड में ग्लेशियर झीलें खतरे की घंटी बजा रही हैं।एनडीएमए (नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथारिटी) ने राज्य में ऐसी 13 ग्लेशियर झील चिह्नित की हैं, जो कभी भी खतरनाक साबित हो सकती हैं। पांच झील उच्च जोखिम की श्रेणी में हैं। इनमें से पिथौरागढ़ जिले की चार झीलों का अध्ययन कराने के लिए जल्द टीमें गठित की जाएंगी। चमोली की वसुधारा झील का अध्ययन किया जा चुका है और इसकी रिपोर्ट की प्रतीक्षा है।यह किसी से छिपा नहीं है कि समूचा उत्तराखंड आपदा की दृष्टि से संवेदनशील है। हर साल ही अतिवृष्टि, भूस्खलन, बाढ़, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं से राज्य जूझता आ रहा है और अब ग्लेशियर झीलें भी बड़ी चुनौती बनकर उभरी हैं। यहां छोटी-बड़ी ग्लेशियर झीलों की संख्या 1200 से ज्यादा है।ग्लेशियर झीलों की अध्ययन रिपोर्ट के आधार पर इनकी निगरानी को मजबूत तंत्र विकसित किया जाएगा। यद्यपि, अब मुख्यमंत्री धामी ने ग्लेशियर झीलों की संवेदनशीलता को देखते हुए यहां उच्च स्तरीय ग्लेशियर अध्ययन केंद्र खोलने की मांग मध्य क्षेत्रीय परिषद की बैठक में केंद्रीय गृह मंत्री के समक्ष रखी है। यह केंद्र खुलने पर ग्लेशियरों के साथ ही वहां बनी झीलों का भी स्वाभाविक रूप से अध्ययन होगा। इससे आपदा जोखिम न्यूनीकरण में मदद मिलेगी। पिछले सालों में 2010 से 2020 के बीच 2013, 2014, 2016 2019 व 2024 की भीषण आपदा के प्रभाव से हुए बड़े नुकसान को अभी तक झेल रही है। आपदा के कारण तमाम गांव प्रभावित हुए, जिनके पास खेती करने की जमीन एवं निवास स्थल नहीं रहे।मजबूरन प्रभावितों को वहां से हटना पड़ा। क्षेत्र के प्रभावों को अब तक पूरी तरह सुधारा नहीं जा सका है। शोध के अनुसार क्षेत्र में भविष्य की सुरक्षा बेहतर रणनीति, तैयारी तथा मजबूत कदम के साथ विकास कार्य करने की जरूरत है।उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में हिमनद झीलों की संख्या में खतरनाक वृद्धि देखी जा रही है, विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि यह प्रवृत्ति इस पारिस्थितिकी रूप से नाजुक क्षेत्र में भविष्य में बड़ी आपदाओं का संकेत हो सकती है। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*