डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड राज्य का गठन तो केंद्र और राज्य सरकार की एक सियासी चाल थी।
एक राजनैतिक दल की सियासी जमीन बचाने और राजनैतिक संतुलन साधने के
लिए उत्तराखंड बनाया रहा था। ठीक उसी तरह जिस तरह आज गैरसैंण
ग्रीष्मकालीन राजधानी बनायी गयी है। सच तो यह कि बीस बरस पहले न राज्य
जनता के लिए बना और न आज राजधानी। जनता का राज्य होता तो राजधानी
गैरसैंण पर किसी तरह का कोई संशय ही नहीं होता। शासन और प्रशासन राज्य
के प्रति जिम्मेदार, जवाबदेह और संवेदनशील होता।फैसले व्यवहारिक होते,
संसाधनों की लूट नहीं मची होती। पौड़ी वीरान नहीं होता, कमिश्नरी और वहां
स्थित मंडलीय कार्यालय भुतहा नहीं होते। अल्मोड़ा और पौड़ी जैसे सांस्कृतिक
विरासत वाले नगर पलायन की मार नहीं झेल रहे होते। प्रसूताएं सड़क पर दम
नहीं तोड़ रही होती। स्कूल वीरान और गांव खंडहर नहीं हुए होते। डाक्टर और
शिक्षक पहाड़ चढ़ने से परहेज नहीं करते। पलायन रोकने के लिए आयोग नहीं,
व्यवहारिक योजनाएं बनतीं। राजधानी के लिए आयोग नहीं, पहाड़ की
राजधानी पहाड़ पर तय होती। आज कह सकता है कोई कि यह राज्य जनता का
है ? गढ़वाल से कुमाऊं तक उत्तरकाशी, पौड़ी, नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़़
आदि किसी भी पुराने नगर में जाकर पूछिए, हर जगह यही सुनायी देगा कि
उत्तराखंड बनने के बाद हालात बदतर हुए हैं।इसमें अब कोई दोराय नहीं कि यह
राज्य जनता का नहीं, भ्रष्ट नौकरशाहों का है। कार्पोरेट्स का है, राजनेताओं का
है, ठेकेदारों का है । सत्ता के दलालों का है, जमीन के सौदागरों का है। यह राज्य
एक आम व्यापारी और कारोबारी का भी कतई नहीं है, यह राज्य माफिया का
है। शराब माफिया, खड़िया और खनन माफिया, जंगल माफिया, चिकित्सा
माफिया और शिक्षा माफिया के लिए ही ‘स्वर्ग’ है यह राज्य।कुछ फिल्मों का
क्लाइमेक्स आम जनता को पहले ही पता होता है । उत्तराखण्ड विधानसभा के
सत्र का क्या अंजाम होगा। यह भी जनता पहले ही सुना देती है। एक साल में
देहरादून से गैरसैंण के बीच क्या बदला, इस बार की आपदा के जख्म पूरे रास्ते
नजर आ रहे हैं। जनता की जद्दोजहद जारी है।इन सब दुश्वारियों के बीच पहुंची
सरकार से पहाड़ की उम्मीद एक बार फिर जवां हो गई हैं। पहाड़वासी अब इस
उम्मीद में हैं कि टूटी सड़कों से गुजरकर सरकार ने जो दर्द महसूस किया होगा,
जरूर इस विधानसभा में उसकी दवा मिलेगी। पहाड़ के विकास को इस सत्र से
एक बार फिर चार चांद लगने की ख्वाहिश में इजाफा हो गया है।मानसून के
सीजन में जहां बारिश रोजाना पहाड़ की परीक्षा ले रही है तो वहीं सरकार और
उसके अधिकारी भी मुश्किल परीक्षा से निकलकर यहां तक पहुंचे। दिनभर
सरकार की गाड़ियां मलबे और भू-स्खलन के खतरे से जूझती हुई गैरसैंण तक
पहुंचने में कामयाब रहीं। कहा जा रहा है कि अब सरकार का पहाड़ चढ़ने का
जुनून हो तो कोई चुनौती असंभव नहीं।आखिर 25 साल से यही ट्रेलर जो देख
रहे हैं।19 और 20 अगस्त को भराड़ीसैंण के विधानभवन में सिर्फ दो घण्टे
चालीस मिनट तक चले विधानसभा सत्र में विपक्ष अपने मुद्दों पर चिल्लाता
रहा। और सत्ता पक्ष का काम आसान हो गया।22 अगस्त तक चलने वाला
विधानसभा सत्र 20 अगस्त की दोपहर में ही समाप्त हो गया। विपक्ष पहले दिन
से ही आपदा व कानून व्यवस्था पर नियम 310 के तहत चर्चा कराए जाने की
मांग करता रहा।वोट चोरी समेत तानाशाह सरकार के जोर जोर से नारे लगाए।
इस मुद्दे पर हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का सख्त लहजा भी सुर्खियों में रहा।
उम्मीद यह जताई जा रही थी कि नियम 310 के तहत स्पीकर कम से कम
गम्भीर आपदा पर चर्चा की मांग स्वीकार करेंगी। आपदा पर बहस होने पर कई
पीड़ितों से जुड़े अनछुए पहलू सामने आते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।मात्र डेढ़ दिन
के गैरसैंण सत्र को लेकर यह भी सवाल उठ रहे है कि इससे अच्छा तो दून में ही
कर लेते। इतने भारी खर्चे पर पूरी सरकारी मशीनरी को गैरसैंण क्यों ले जाया
गया।बहरहाल, डेढ़ दिनी सत्र के पहले दिन 1 घन्टा 45 मिनट और दूसरे दिन
20 अगस्त को55 मिनट तक सदन की कार्यवाही चली। इन डेढ़ दिन में कई बार
सदन स्थगित हुआ। कुल 2 घण्टे चालीस मिनट सदन चला। कोई प्रश्नकाल नहीं।
कोई सवाल जवाब नहीं। शोरगुल के बीच नये संसदीय कार्यमंत्री की भी परीक्षा
नहीं हो पाई।
इस गतिरोध का लाभ उठाते हुए पूर्व की तरह इस बार भी सत्ता पक्ष ने हो हल्ले
के बीच पांच हजार करोड़ से अधिक का अनुपूरक बजट और नौ विधेयक पास
करवा लिए। नारेबाजी के बीच अन्य बिजनेस भी फ़टाफ़ट निपटा लिए
गए।भराड़ीसैंण के अति लघु विधानसभा सत्र के बाद सोशल मीडिया पर तीखी
प्रतिक्रियाओं का सिलसिला शुरू हो चुका है। सोशल मीडिया में भाजपा-कांग्रेस
के बीच मैच फिक्स की संभावना भी खुल कर जताई जा रही है।सत्र की समाप्ति
के बाद हवाई व सड़क मार्ग से बचते बचाते अपने अपने ठौर पर लौटने का
सिलसिला भी शुरू हो गया है। लेकिन वही पुराने सवाल एक बार फिर पहाड़ी
मोड़ पर अटके हुए हैं।बीते 25 साल में प्रदेश के बजट का आकार 25 गुना बढ़
चुका है। माननीयों के वेतन-भत्ते व सुविधाओं का दायरा भी फैलता जा रहा है।
इन 25 सालों में कुछ अगर सिकुड़ा है तो वो विधानसभा के अंदर बहस व चर्चा
का दायरा… देश की सबसे अधिक 5410 फीट ऊंचाई पर बसी विधानसभा
पहाड़ के सपनों की ग्रीष्मकालीन राजधानी तो बनी। लेकिन 11 साल में यहां 10
बार पहुंचकर सरकारों ने केवल 35 दिन ही सत्र चलाया है। इतिहास में पहली
बार ऐसा हुआ है कि लाखों का खर्च करके भी बिना किसी मुद्दे पर चर्चा किए
सदन की कार्यवाही स्थगित हो गई। राजनीतिक दलों ने सब्जबाग तो खूब
दिखाए लेकिन पहाड़ चढ़ने के बावजूद सदन चलाने को लेकर उदासीनता सबकी
एक जैसी ही रही। अब तो ये माना जाता है कि भराड़ीसैंण में सत्र की पटकथा
पहले ही लिख दी जाती है। सरकार सत्र चलाने पहुंचती है, विधानसभा सत्र के
दूसरे दिन बुधवार को सदन में 5315.39 करोड़ के अनुपूरक बजट समेत नौ
विधेयक पारित किए गए। अब इन विधेयकों को मंजूरी के लिए राजभवन भेजा
जाएगा। राजभवन से मुहर लगने के बाद ये अधिनियम बन जाएंगे। विपक्ष
हंगामा करता है और सदन अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया जाता है।
इस बार भी ऐसा ही नजारा देखने को मिला है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद
विधानसभा के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब बिना किसी भी चर्चा के
सत्र पूरा हो गया। इस सत्र में दोनों ही दिन प्रश्नकाल नहीं हो पाया। नियम-58
के तहत चर्चा नहीं हो पाई। नियम-300, नियम-53 के तहत भी कोई कार्यवाही
नहीं हो सकी। चार दिन के सत्र का दो दिन भी न चलना, सवाल खड़े कर रहा
है। कहा जा रहा है कि सत्र पर खूब हुआ खर्चा लेकिन राज्य से जुड़े किसी भी
आपदा, कानून व्यवस्था या अन्य मुद्दे पर चर्चा नहीं हो पाई। विधानसभा का
मानसून सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया। विपक्ष के कानून व्यवस्था के मुद्दे पर सभी
कार्य रोककर चर्चा की मांग पर अड़े रहने का नतीजा यह हुआ कि चार दिन के
लिए प्रस्तावित सत्र डेढ़ दिन ही सिमट गया। सुबह से धूप व बादलों के बीच
आंखमिचौनी और दोपहर से घने कोहरे के आगोश में सिमटी ग्रीष्मकालीन
राजधानी गैरसैंण के भराड़ीसैंण स्थित विधानसभा भवन में मंगलवार को
मानसून सत्र के पहले दिन सियासी पारा चरम पर रहा। इस दौरान सदन ने
मर्यादा तार-तार होती देखी। विपक्ष ने नैनीताल के पंचायत चुनाव में कानून
व्यवस्था के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए जमकर हंगामा काटा। विधानसभा
का मानसून सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया। विपक्ष के कानून व्यवस्था के मुद्दे पर
सभी कार्य रोककर चर्चा की मांग पर अड़े रहने का नतीजा यह हुआ कि चार दिन
के लिए प्रस्तावित सत्र डेढ़ दिन ही सिमट गया। विधानसभा का मानसून सत्र
हंगामे की भेंट चढ़ गया। विपक्ष के कानून व्यवस्था के मुद्दे पर सभी कार्य रोककर
चर्चा की मांग पर अड़े रहने का नतीजा यह हुआ कि चार दिन के लिए प्रस्तावित
सत्र डेढ़ दिन ही सिमट गया। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून*
*विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*