डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
पहाड़ की आबोहवा अब शुद्ध नहीं रही. बढ़ता पर्यटन जहां एक ओर लोगों को रोजगार दे रहा है तो वहीं प्रकृति को नुकसान भी इससे पहुंच रहा है. और हवा की गुणवत्ता में कमी आ रही है. उन्होंने बताया कि हमारे वातावरण में नाइट्रस ऑक्साइड गैस कार्बन के मुकाबले ज्यादा प्रभावशाली है और 300 गुना ज्यादा गर्मी देती है. वहीं पहाड़ी इलाकों में गाड़ियों की संख्या भी निरंतर बढ़ती जा रही है. जो नाइट्रस ऑक्साइड की प्रति किमी तक 60mg तक प्रभावित कर रही है. हमारे वातावरण में हो रहे ग्लोबल वार्मिंग और ग्रीन हाउस प्रभाव से अब पहाड़ भी सुरक्षित नहीं है. पहाड़ों की शुद्ध आबोहवा भी अब पर्यावरण प्रदूषण के कारण दूषित हो रही है. अक्सर लोग स्वास्थ लाभ के लिए पहाड़ों के शुद्ध वातावरण में सैर करने आया करते थे. क्योंकि पहाड़ों की हवा शुद्ध मानी जाती थी. लेकिन बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण के कारण पहाड़ों की हवा भी अब दूषित हो रही है. साथ ही वातावरण में जहरीली गैसों की मात्रा भी निरंतर बढ़ रही है. 2006 से हिमालयी रीजन में ग्रीन हाउस गैसों और शॉर्ट लिफ्ट गैसों का प्रेक्षण शुरू किया. यह प्रेक्षण हिमालयी इलाकों का पहला प्रेक्षण था. उन्होंने इस प्रेक्षण में पाया कि सभी तरह की गैसों में बढ़ोत्तरी हुई है. कार्बन डाईऑक्साइड गैस साल 2006 में 360 PPM थी. वहीं 2024 में कार्बन डाईऑक्साइड गैस की मात्रा 410 से 420 PPM तक नापी गई है. यानी 2006 से अभी तक 50 से 60 PPM कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा बढ़ी है. वायुमंडल में सबसे खतरनाक ग्रीन हाउस गैस सल्फर हैक्सा फ्लोराइड है. हालांकि इसकी मात्रा वायुमंडल में काफी कम होती है लेकिन इसका ग्लोबल वार्मिंग पोटेंशियल ज्यादा होता है. इसकी मात्रा पहले 5 PPT थी जो अब 7 से 8 PPT हो चुकी है. जिस वजह से क्लाइमेट चेंज जैसे असर देखने को मिल रहे हैं. उन्होंने बताया कि हिमालयी इलाकों में कार्बन डाईऑक्साइड, मेथेन, नाइट्रोजन डाईऑक्साइड, ओजोन, कार्बन मोनोऑक्साइड की मात्रा में भी इज़ाफ़ा हुआ है. जो पहले 40 से 50 PPT होती थी वो अब 100 से 110 PPT तक पहुंच चुकी है. उन्होंने बताया कि जंगलों की आग और पहाड़ों में बढ़ता वाहनों का दबाव इसका मुख्य कारण है. अंग्रेजों ने अपने दौर में मसूरी, नैनीताल जैसे पहाड़ी स्थलों और देहरादून जैसी शिवालिक और मध्य हिमालय से घिरी घाटी में एक स्वप्निल पर्यावरण को देखते हुए बसेरे बनाए थे, वे जगहें अब अलग अलग किस्म के प्रदूषणों की शिकार हो चुकी हैं. अपने मौसम के लिए विख्यात दून घाटी अब धूल और धुएं और शोर की घाटी है. और उधर, को स्मार्ट सिटी मुहिम से जोड़ने के लिए नेतागण जीजान एक किए हुए हैं.आज से दो साल पहले नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, एनजीटी, उत्तराखंड सरकार और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को औद्योगिक इकाइयों से उठने वाले प्रदूषण के खतरनाक स्तरों को लेकर फटकार भी लगा चुका है. विशेषज्ञ और निगरानी समितियां बनाने की बातें भी वो कर चुका है लेकिन निवेश और मुनाफा और जीडीपी का आकर्षण भी अब कुदरत में घुले प्रदूषण के समांतर एक मानव निर्मित प्रदूषण की तरह हो गया है. जंगलों की कटान और पहाड़ी इलाकों में अंधाधुंध निर्माण ने हवा, पानी और मिट्टी के रास्ते उलटपुलट कर रख दिए हैं. इसका परिणाम ये हो रहा है कि अप्रत्याशित रूप से भूस्खलन और अतिवृष्टि की दरें बढ़ी हैं. बाढ़ से तबाही का दायरा फैलता जा रहा है और इनसे जुड़े आर्थिक सामाजिक नुकसान तो जो हैं सो हैं. इस बीच पहाड़ों में जंगल की आग एक नया पर्यावरणीय संकट बन कर उभरा है जो किसी स्मॉग से कम नहीं है.ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने को लेकर भी चिंताएं जताई जा रही हैं. हालांकि इस बारे में विद्वानों और विशेषज्ञों में मतभेद भी हैं. कुछ कहते हैं कि ये कोई असाधारण बात नहीं है और प्रकृति के सैकड़ों हजारों साल के बदलावों में ग्लेशियरों का बनना बिगड़ना स्वाभाविक है. लेकिन इधर पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों की एक बिरादरी पुरजोर तौर पर मानती है कि ग्लेशियरों का पिघलना एक सामान्य घटना नहीं है और ये जलवायु परिवर्तन के सबसे बड़े सूचकों में से एक है. इस बहस से अलग ये एक सच्चाई तो है ही कि पहाड़ों के मौसम अब पहले जैसे तो नहीं हैं. फसल की पैदावार का पैटर्न भी बदला है. गुणात्मक और मात्रात्मक गिरावट दोनों है. पलायन के चलते बड़े पैमाने पर पहाड़ी जमीन बंजर हो रही है. जीवन की इस वीरानी में एक नया माफिया पनप गया है जो निर्माण से लेकर पलायन तक एक बहुत ही संगठित लेकिन अदृश्य रूप से सक्रिय है. पारिस्थितिकीय परिवर्तनों ने भी उत्तराखंड को एक स्तब्ध स्थिति में पहुंचा दिया है. बेशक अभी भी पहाड़ों में लोग स्वच्छ हवा पा लेते हैं लेकिन ऐसे इलाके सिकुड़ रहे हैं. पर्यटन स्थलों पर भी निर्माण, वाहनों, प्लास्टिक और बसाहटों का बोझ बढ़ गया है. गर्मियों के मौसम में जब लोग पहाड़ों की रानी कही जाने वाली मसूरी के लिए निकलते हैं तो देहरादून पहुंचते ही उनके रोमान को झटके लगने लगते हैं. वाहनों की भीड़, चिल्लपौं और वायु प्रदूषण अब एक नयी सामान्यता बन गये हैं. पर्यटनीय अतिवाद का मसूरी अकेला पीड़ित नहीं है जहां कमाई की हड़बड़ी और पर्यटन के आंकड़ों को सुधारने की होड़ में इस बात पर ध्यान नही दिया जा रहा है कि सड़कों पर वाहनों की इतनी आमद और बेशुमार प्लास्टिक इस्तेमाल, पहाड़ की सेहत के लिए अच्छी नहीं है. हिमालय एक नया पहाड़ है, मध्य हिमालय तो यूं भी कच्चा पहाड़ है, लेकिन उसमें से काटकर बांध भी उभर रहे हैं और सड़कें भी. डायनमाइट के विस्फोट से पहाड़ी नोकों को उड़ाकर तैयार की गई सड़कों पर बारिश के दिनों में भूस्खलन की दरें बढ़ गई हैं. मिट्टी जगह छोड़ रही है, क्योंकि जंगल कट रहे हैं और सड़कें बन रही हैं.विकास से जुड़ी ये एक विडंबना भी है लेकिन इसका अर्थ ये नहीं हो सकता कि यातायात और अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए कमोबेश मनमाने तरीके से निर्माण के रास्ते निकाले जाएं. भौगौलिक और भूर्गभीय आकलन और एक कुशल प्रबंधन के साथ साथ विशेष तकनीकी कौशल भी जरूरी है. जिसमें नाजुक पहाड़ियों और चट्टानों का न्यूनतम नुकसान पहुंचे. और अगर नुकसान होता है तो फौरन उसकी भरपाई की जाए. जिसका एक तरीका सुनियोजित और कारगर वृक्षारोपण भी है. इसके नाम पर चीड़ के जंगलों से पहाड़ों को पाट देने की नीति को तो विशेषज्ञ भी गलत और नुकसानदेह ठहरा चुके जल प्रदूषण ने भी उत्तराखंड के पर्यावरण में असंतुलन पैदा किये हैं. गंगा का प्रदूषण मिटाने के लिए केंद्र सरकार की करोड़ों रुपए की परियोजनाएं भी लगता है नाकाम हैं क्योंकि पानी की गंदगी जस की तस है. कुल मिलाकर तस्वीर निराशाजनक दिखती है और लगता है कि उत्तराखंड जैसे पहाड़ी भूगोल भी उस दुष्चक्र का शिकार बन चुके हैं जो विकास का एक बेडौल और विवादग्रस्त मॉडल निर्मित करता है. पर्यावरणीय चेतना के अभाव ने रही-सही कसर पूरी कर दी है. जवाबदेही की अनुपस्थिति, प्रशासनिक और शासकीय अनदेखी और आम लोगों का इसे अपनी नियति मान लेने का यथास्थितिवाद- पहाड़ की पर्यावरणीय दुर्दशा के अंदरूनी कारण हैं. पेट्रोल गाड़ी द्वारा 4.5mg प्रति किमी और डीजल गाड़ी द्वारा 80mg प्रति किमी तक नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है. वहीं वाहनों द्वारा हाइड्रोजन क्लोराइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी गैसों का 170mg प्रति किलोमीटर उत्सर्जन होता है जो वातावरण को प्रदूषण देने का काम कर रहा है. उन्होंने बताया कि भारत में 1 अप्रैल 2020 से वाहनों में VS6 लागू हुआ था. उसके बाद भी प्रति गाड़ी 300mg प्रति किमी तक का प्रदूषण वातावरण में फैला रहा है.एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) की बात की जाए तो 160 तक का AQI लेवल हमारे वातावरण में अच्छा माना जाता है. तो वहीं पहाड़ों में AQI लेवल 300 तक पहुंच चुका है, जो चिंता की बात है. बात सिर्फ पर्यावरण प्रदूषण की नहीं है, बात हमारे जल जंगल की भी है आज प्रदेश में जल स्रोतों के क्या हालात हैं यह किसी से छुपे नहीं है. उन्होंने बताया कि सरकार को इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार कर पहाड़ों में गाड़ियों के दबाव को रोकने के लिए काम करना चाहिए और पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों के लिए आगे आना चाहिए.असल में पर्यावरण के इन खतरों से निपटने के लिए जरूरत है सामूहिकता की लेकिन लगता है कि इसके लिए कोई भगीरथ प्रयत्न ही करना होगा! लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।