डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
कोरोना वायरस का असर ख़तरनाक है। पिछले एक वर्ष से कोरोना के रूप में आई महामारी से उपजे हालातों ने ये साबित कर डाला कि तर्क और विवेक से दूर होते, हम बड़ी तेजी से काल्पनिक यथार्थ में जीने वाला समाज बनते गए हैं। अभी कुछ समय पहले सोशल मीडिया में पहाड़ के किसी दूर.दराज़ गाँव में कुछ युवकों से संवाद करती बुजुर्ग महिलाओं का विडियो देख रहा था। अपने स्थानीय देवताओं की ओर इशारा करते हुए वो पूरे आत्म विश्वास से कर रही रही थीं यूरोप में प्लेग के बाद हैजे या कौलरा को 19वीं शताब्दी की सबसे गंभीर महामारी के रूप में देखा गया। हालांकि ब्लैक डेथ के मुक़ाबले यह जनसंख्या की दृष्टि से उतनी विनाशकारी साबित नहीं हुई, लेकिन इसने समाज को नए तरीके से सोचने को मजबूर जरूर किया। अटलांटिक महासागर के दोनों ओर के समाजों पर इस महामारी ने गहरा प्रभाव डाला। 1830, 1840 और 1860 की महामारी ने जहाँ यूरोप में सामाजिक असंतोष, आपसी तनाव और झगड़ों को बढ़ाया, वहीं समाज को म्युनिसिपल सुधारों की ओर कदम बढ़ाने और सामाजिक वर्गीय संरचना को भी तोड़ने को विवश किया।
सरकारें और समाज दोनों ही आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और गम्भीर अनुसंधान की ओर कदम बढ़ाने को विवश हुए। दुर्भाग्यवश भारत जैसे महादेश में जहाँ 19वीं व 20वीं शताब्दी में ऐसी महामारियों से लाखों लोग मारे गए थे, सबक लेने की कोशिश नहीं की गई। अतीत के कुछ एक प्रसंगों से ही शुरू करते हैं। बात बहुत ज्याद पुरानी नहीं है। इस घटना को बीते अभी दो सौ साल होने जा रहे 1823 में केदारघाटी में बड़ी महामारी फैली थी। तत्कालीन भारत सरकार के सेनेटरी कमिश्नर जी. हचिन्सन ने 1936 की अपनी रिपोर्ट में इसका विस्तार से वर्णन किया है। वो लिखता है कि यूरोप में प्लेग जैसी महामारी छटी शताब्दी ईसा पूर्व से ही दिखाई देने लगी थी और धीरे.धीरे इसने दुनियाँ की अधिकाँश मानव बस्तियों को अपनी जकड़ में ले लिया था। हालांकि भारत में यह स्थायी रूप से नहीं फैली थी, फिर भी यदाकदा ब्रिटिश कुमाऊँ और गढ़वाल में यह उभर आती थी। यूँ तो 1813 तक प्लेग मध्य भारत, राजपूताना कच्छ और काठियावाड़ में फैल चुका था, लेकिन 1819 से लेकर 1836 तक मध्य भारत के अधिकाँश हिस्से में इसके ज्यादा प्रसार के संदर्भ नहीं मिलते हैं। खास तौर से यहाँ 1837 इसके बाद प्लेग के फैलने की खबरें आने लगी। ये माना जा रहा था कि इस बार राजपूताना में मेवाड़ के पाली और अजमेर इलाके में यह महामारी लेवोंट से भावनगर, सूरत के तटीय इलाकों से होते हुए यहाँ आई। क्योंकि कपड़ों में छापा प्रिंट करने वाले छिप्पी समुदाय के लोग इसके पहले शिकार हुए थे। कुमाऊँ कमिश्नर मि. गोवन की रिपोर्ट का हवाला देते हुए 25 अप्रैल, 1836 की रिपोर्ट में हचिन्सन लिखता है कि 1823 में संक्रमित इलाके में पहली बार केदारनाथ में इसकी जानकारी मिली।
इस महामारी ने मंदिर के मुख्य पुजारी.रावल को सबसे पहले चपेट में लिया और फिर वहाँ के अनेक पंडे काल के ग्रास बने। धीरे.धीरे यह महामारी घाटी के उन सभी गाँवों में फैल गई जो मंदिर की व्यवस्थाओं से सीधे जुड़े थे। गोवन लिखता है कि स्थानीय लोगों का विश्वास था कि बीमारी के फैलने का एक मात्र कारण धार्मिक व्यवस्थाओं से जुड़े लोगों का पथभ्रष्ट होना था। उनकी धारणा थी कि धार्मिक अनुष्ठानों तथा होम आदि के लिए धर्मशास्त्रों में उल्लिखित व्यवस्थाओं का पालन न कर पुजारियों ने एक ऐसा पाप किया है, जिसके कारण इस महामारी के प्रकोप के रूप में लोग ईश्वरीय कोप से अभिशप्त हुए हैं। केदार घाटी में इस महामारी से उस दौर में दर्जनों लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी थी।
1837 के आते.आते यह महामारी बधाण परगने समेत पिंडर नदी के उँचाईं वाले गाँवों और 1847 में रामगंगा के स्रोत तक पहुँच चुकी थी। दूधातोली इलाके में 7000 फीट की उँचाईं में बसे सरकोट गाँव की तो समूची आबादी को इसने समाप्त कर दिया था। अगले छः दशकों तक यह महामारी ब्रिटिश गढ़वाल और कुमाऊँ में अपना कहर बरपाती रही और पाँच से छः सौ लोग हर साल अपनी जान गँवाते रहे। 1860 में तो अकेले इस महामारी से पहाड़ के आठ परगनों में 1000 लोगों को अपनी जान से धोना पड़ा था। 1877 में गाँवों महामारी से उत्पन्न हुए हालातों और सामाजिक स्थितियों का जिक्र करते हुए गोरी घाटी में भ्रमण पर निकला डॉ वॉटसन लिखता है कि आलम गाँव की 9 वर्षीया धनुली किस तरह अपने 7 वर्षीय भाई के साथ बीमारी का सामना कर रही थी। वह बता रही थी कि किस तरह दो महीने पहले मार्च 1877 में उसके माँ.बाप की मृत्यु हो गई थी और कुछ समय बाद एक और भाई चल बसा। पड़ोस के घर में सभी लोग बीमारी से मर चुके थे और जो जीवित बचे वे संक्रमित घरों में आग लगा कर दूसरी जगह चल दिये। यही नहीं धनुली यह भी जिक्र करती है कि कैसे वो अपने डेढ़ वर्षीय भाई को एक टोकरी में रख दफनाने गई। और कैसे उसने रात में सियार को अपने मृत भाई को ले जाते हुए देखा। अंग्रेज़ सरकार खुद अचंभित थी कि इतनी शुद्ध हवा और साफ पानी के होते हुए भी पहाड़ी इलाकों में बीमारी तेजी से फैल रही थी। हमारे धार्मिक विश्वास और महामारियों के फैलाव के अंतर्सम्बंधों को एक और प्रसंग से समझा जा सकता है।
1877 में कुमाऊँ में महामारी की जाँच के लिए भ्रमण पर आया डॉ. रैने सरकार को भेजी अपनी रिपोर्ट में लिखता है कि लोग अभी भी अंधविश्वास में डूबे हुए हैं। दस्तावेज़ बताते है कि 19वीं सदी के नवें दशक तक भी लोग और स्थानीय प्रशासन अलग.अलग ध्रुवों में खड़े थे और महामारी के विषाणुओं से फैलने जैसी अवधारणा को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। 1890 में अंततः पहली बार अंग्रेज़ सरकार ने स्वीकार किया कि महामारी का कारण विषाणु है और जनता के स्वास्थ्य के प्रति उसका कुछ उत्तरदायित्व है। धार्मिक आस्था और विरोध की परवाह किए बिना हस्तक्षेप करते हुए उसने सख्त कदम उठाने शुरू किए। 1892 में जब एक बार फिर हरिद्वार कुम्भ में हैजे के रूप में फैली महामारी की दूसरी बड़ी लहर ने आबादी के बड़े हिस्से को अपनी चपेट में लिया तो पश्चिमोत्तर प्रांत की सरकार ने तत्काल साहसिक कदम उठाते हुए हरिद्वार कुम्भ मेले में प्रतिबंध लगा दो लाख से ज्यादा श्रद्धालुओं को नगर में प्रवेश करने से रोक दिया था।
1895 में इंडियन मेडिकल गज़ट में छपी रिपोर्ट में ब्रिटिश सर्जन हर्बर्ट ने हरिद्वार कुम्भ में एकत्र हुई भीड को उक्त महामारी को फैलाने का दोषी पाया था। उसके अनुसार 1891 के कुम्भ में 2,69,346 श्रद्धालुओं ने गंगा में डुबकी लगाई थी और इतनी बड़ी संख्या में भीमगोडा और नदी की मुख्य धारा में पवित्र जल से आचमन कर रहे और डुबकी लगा रहे लोगों के कारण हैजे के विषाणु बुरी तरह फैलते चले गए। कुम्भ से ले जाए गए पानी के साथ ये विषाणु अन्यत्र भी चले गए। वह यह भी उल्लेख करता है कि पहले कुछ श्रद्धालु अपने साथ विषाणु लेकर आए और फिर बड़ी संख्या संक्रमित होकर इसे अपने.अपने इलाकों को ले गए। इस तरह कुम्भ से वापस लौटे ग्रामीणों के साथ यह महामारी उत्तराखंड के ग्रामीण अंचल में भी पहुँची।
इस बार हैजे से भारत में 46,000 से अधिक लोग मारे गए थे। महामारी के बीच हरिद्वार में कुंभ मेला में भीड़ को वहां पर नियंत्रित करने के लिए प्रशासन ने कई उपाय किए हैं, लेकिन कोरोना के बढ़ते मामलों के बीच लगातार चिंता भी थी, उत्तराखंड जैसे पृथक पहाड़ी राज्य की चाहत का कारण एक साँस्कृतिक पहचान को बचाए रखने की पहल था।। साथ ही साथ लोग यह भी मानते हैं की ऐसे राजनैतिक पहल पहाड़ के दूरस्थ स्थानों को वो लाभ दिलवायेंगे जो आज तक वहाँ पहुँच ना सके। पर ऐसी सोच रखते हुए हम अक्सर उन कारणों को अनदेखा कर देते हैं, जिनके कारण आजादी के कई दशकों के बाद भी पहाड़ मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। भारत में 5 करोड़ से अधिक भारतीयों के पास हाथ धोने की ठीक व्यवस्था नहीं है, जिसकी वजह से उनके कोरोना वायरस से संक्रमित होने और उनके द्वारा दूसरों तक संक्रमण फैलने का जोखिम बहुत अधिक है। अमेरिका में वाशिंगटन विश्वविद्यालय में इंस्टीट्यूट ऑफ हैल्थ मैट्रिक्स ऐंड इवेल्यूएशन आईएचएमई के शोधकर्ताओं ने कहा कि निचले एवं मध्यम आय वाले देशों के दो अरब से अधिक लोगों में साबुन और साफ पानी की उपलब्धता नहीं होने के कारण अमीर देशों के लोगों की तुलना में संक्रमण फैलने का जोखिम ज्यादा है। यह संख्या दुनिया की आबादी का एक चौथाई है। जर्नल एन्वर्मेंटल हैल्थ पर्सपेक्टिव्ज में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक उप सहारा अफ्रीका और ओसियाना के 50 फीसदी से अधिक लोगों को अच्छे से हाथ धोने की सुविधा नहीं है।आईएचएमई के प्रोफेसर माइकल ब्राउऐर ने कहा, कोविड.19 संक्रमण को रोकने के महत्वपूर्ण उपायों में हाथ धोना एक महत्वपूर्ण उपाय है। यह निराशाजनक है कि कई देशों में यह उपलब्ध नहीं है। उन देशों में स्वास्थ्य देखभाल सुविधा भी सीमित है। लोग अपने इम्यून सिस्टम को मजबूत और अपने स्वास्थ्य को बेहतर करने पर ध्यान दें। और इम्यून सिस्टम तभी मजबूत होगा जब हम सही और पौष्टिक आहार खाएंगे तथा जैसे प्राकृतिक उपचार को चुनेंगे। च्यवनप्राश, आयुष जोशांदा, खमीरा मरवारीद और सुफुफ.ए.सत.ए.गिलो। आपके और आपके परिवार के सदस्यों के इम्यून सिस्टम को मजबूत करने के लिए ये प्रोडक्ट्स बहुत असरदार हैं और वायरस से लड़ने में मदद करेंगे।