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तपता हिमालय, बदलता मौसम, बर्बाद होती खेती

27/05/21
in उत्तराखंड, हेल्थ
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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
हिमालयी राज्यों के लिए खेती, विंटर टूरिज्म बहुत मायने रखता है। लेकिन बढ़ते तापमान ने पर्यटन से जुड़े लोगों के माथे पर शिकन बढ़ा दी है। उत्तराखंड में हर साल दिसंबर से ही औली के विश्वविख्यात ढलानों पर बर्फ की कई फीट चादर बिछ जाया करती थी। देशी.विदेशी पर्यटक साहसिक खेलों का लुत्फ लेने को जुटते रहे हैं। लेकिन इस बार बेहद कम हिमपात हुआ जो कुछ ही दिनों में पिघल गया। हर साल की तरह इस साल भी फरवरी के अंतिम सप्ताह में औली में राष्ट्रीय सीनियर अल्पाइन स्कीइंग एंड स्नोबोर्ड चैंपियनशिप का आयोजन होना था, लेकिन बर्फ न होने के कारण ये खेल रद्द करने पड़े। औली में एक रिजॉर्ट मालिक विपिन लाल शाह बताते हैं कि मुझे याद नहीं पड़ता कि इससे पहले कभी ऐसा हुआ हो। स्कीइंग ट्रेनर कहते हैं कि यह सीजन बहुत बुरा रहा। इतना ही नहीं, इन हिमालयी राज्यों में इस साल जनवरी.फरवरी में बारिश भी काफी कम हुई।

मौसम विभाग के आंकड़े बताते हैं कि अरुणाचल प्रदेश में इन दो महीनों में सामान्य से 72 प्रतिशत, नागालैंड.मणिपुर.मिजोरम.त्रिपुरा क्षेत्र में 82 प्रतिशत, सब हिमालयन पश्चिम बंगाल/सिक्किम में 54 प्रतिशत, उत्तराखंड में 56 प्रतिशत, हिमाचल प्रदेश में 70 प्रतिशत और जम्मू कश्मीर में 45 प्रतिशत बारिश कम हुई। बारिश और ठंड में कमी का असर हिमालयी राज्यों की फसल पर भी पड़ा। नागालैंड में वोखा जिले के रुचान गांव के अध्यक्ष चेनिराओ खुंगो मानते हैं कि 2020 में गर्मी सामान्य से अधिक गर्म थी और सर्दी सामान्य से अधिक ठंडी थी। उनका कहना है कि अनियमित बारिश के साथ बढ़ते तापमान के कारण बैंगनए मिर्चए मूलीए आलू और गाजर में अज्ञात बीमारियां पैदा हो रही हैं। उन्होंने पहले कभी इस तरह की समस्या नहीं देखी थी। इसके चलते लोगों को पहली बार उन कीटनाशकों का इस्तेमाल करना पड़ रहा है, जिनका इस्तेमाल पहले कभी नहीं किया गया। उन्हें राज्य के बागवानी विभाग या किसी और से इसके लिए कोई मदद नहीं मिली है। अरुणाचल प्रदेश के अपर सियांग जिले के यिंगकियॉन्ग निवासी दुरिक मियु कहते हैं कि पिछले चार.पांच साल से वह देख रहे हैं कि आम के पेड़ों में बौर जनवरी.फरवरी में ही निकलने लगते हैंए इस बार भी ऐसा ही हुआ है। हिंदु कुश हिमालय एचकेएच क्षेत्र भारत, नेपाल और चीन सहित कुल आठ देशों में 3,500 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला है।

इस क्षेत्र को तीसरा पोल माना जाता है, क्योंकि उत्तरी और दक्षिणी पोल के बाद यहां सर्वाधिक बर्फ होती है। यहां करीब 24 करोड़ लोग निवास करते हैं। यहीं से 10 नदी बेसिन की उत्पत्ति होती है जिनमें गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेकॉन्ग शामिल हैं। भारत के 11 राज्यों और दो केंद्र शासित क्षेत्रों में हिमालय फैला हुआ है। इनमें उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, लद्दाख, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा, असम और पश्चिम बंगाल के दो.दो जिले शामिल हैं। ये इलाके आमतौर पर अत्यधिक ठंड के लिए जाने जाते हैं। लेकिन अब इसमें बदलाव के लक्षण दिखाई देने लगे हैं।

इस साल जनवरी.फरवरी में तापमान में वृद्धि एक असामान्य घटना इसलिए है, क्याेंकि अभी भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर में मध्यम ला नीना की स्थिति बनी हुई है और ला.नीना की वजह से दुनिया के दूसरे हिस्सों में असामान्य ठंड हो रही है। गौरतलब है कि पूर्वी प्रशांत महासागर क्षेत्र के सतह पर निम्न हवा का दबाव होने पर ला.नीना की स्थिति पैदा होती है। इससे समुद्री सतह का तापमान काफी कम हो जाता है, जिसका सीधा असर दुनियाभर के तापमान पर होता है और वो भी औसत से ठंडा हो जाता है। दुनिया के मुकाबले हिंदुकुश हिमालय अधिक तेजी से गर्म हो रहा है, जो चिंता का कारण है हिमालयी क्षेत्र में बढ़ती गर्मी की बात वैज्ञानिक भी कर रहे हैं। आईआईटीएम द्वारा जून 2020 में प्रकाशित असेसमेंट ऑफ क्लाइमेट चेंज ओवर दी इंडियन रीजन रिपोर्ट में कहा गया है कि 1901 से 2014 के बीच हिमालयी क्षेत्र में 0.1 डिग्री सेल्सियस की दर से तापमान में वृद्धि हुई, जो 1951 से 2014 के बीच लगभग दोगुणा हो गया था। तिब्बती पठार में हर दशक 0.5 डिग्री सेल्सियस की दर से वृद्धि हुई। यहां पिछले 60 साल में 3 डिग्री सेल्सियस की वृ़द्धि हो चुकी है। ऐसा तब है जब 1980 से वैश्विक तापमान 0.18 डिग्री की दर से बढ़ रहा है।

हिंदुकुश में औसतन हर दशक में एक ठंडी रात कम हो रही है। यहां हर दशक में 1.7 गर्म रातें बढ़ रही हैं, वहीं 1.2 गर्म दिन हर दशक में बढ़ रहे हैं। उदाहरण के लिए ताजा क्लाइमेंट चेंज असेसमेंट रिपोर्ट में भारत में औसतन 0.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि का अनुमान लगाया गया है। वैश्विक अथवा स्थानीय तापमान में वृद्धि से चरम मौसमी घटनाएं बढ़ चुकी हैं और बारिश का पैटर्न बदल चुका है। जहां एक ओर अधिकतम दिनों तक सूखा रहता है तो दूसरी ओर भारी बारिश की घटनाएं बढ़ी हैं। हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों के पीछे हटने की प्रक्रिया भी तेज हुई है। ग्लेशियरों के पिघलने और सागर के गर्म होने के कारण भारतीय सागरों में समुद्र का स्तर बढ़ रहा है। वह कहते हैं कि तापमान में वृद्धि से महासागरों और अन्य जल स्रोतों से अधिक वाष्पीकरण होता है जो वायुमंडल की नमी को बढ़ाता है। इस वजह से बारिश का पैटर्न बदल जाता है। हिमालय के पहाड़ों का दक्षिण पश्चिम मानसूनी हवाओं पर काफी प्रभाव है और उनके गर्म होने से देश के बाकी हिस्सों में भी बारिश के पैटर्न में बदलाव हो सकता है। बारिश के पैटर्न में बदलाव से क्षेत्र में रहने वाले लोगों, विशेषकर किसानों के लिए पानी की कमी और उनकी आजीविका पर असर पड़ सकता है।

हिमालय राज्यों में खेती अधिकांशतः वर्षा आधारित होती है। पूरे हिमालय क्षेत्र की निगरानी करने वाली संस्था आईसीआईएमओडी के आकलन में पाया गया कि बढ़ती गर्मी का क्षेत्र के लोगों और पारिस्थितिकी पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। सबसे बड़ा असर खेती, फसलों की वृद्धि और उत्पादकता पर पड़ेगा, जिससे खाद्य सुरक्षा प्रभावित हो सकती है। जमीन के अधिक गर्म होने का मतलब मिट्टी की नमी का नुकसान भी होगा, जो पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक है। 1.5-2.5 डिग्री सेल्सियस के गर्म होने से चावल, गेहूं और मक्का जैसी खाद्य फसलों की उत्पादकता में कमी आएगी। सेंट्रल रिसर्च इंस्टिट्यूट फॉर ड्राइलैंड एग्रीकल्चर, हैदराबाद के सीए द्वारा प्रकािशत रिपोर्ट एटलस ऑन वलनरबिलिटी ऑफ इंडियन एग्रीकल्चर टु क्लाइमेट चेंज के मुताबिक 1961-90 के मुकाबले 2021-50 में हिमालयी क्षेत्र के ज्यादातर जिलों में अधिकतम तापमान में कम से कम 1.5 से 2 डिग्री वृद्धि हो सकती है। हिमालयी क्षेत्र में बढ़ती गर्मी से जैव विविधता का क्षरण हो रहा है। ग्लेशियर का पिघलना बढ़ सकता है और पानी की उपलब्धता कम हो सकती है। इससे इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के जीवनयापन पर सीधा असर पड़ेगा। यहां गर्मी से तेज बर्फबारी और ग्लेशियरों के पिघलने के कारण बहुत सी झीलें बन गई हैं। आईसीआईएमओडी ने अपने 1999 और 2005 के सर्वेक्षण में 801.83 वर्ग किलोमीटर में फैली 8,790 ग्लेशियर झीलें पता लगाई थीं। इनमें से 203 झीलों से बाढ़ का खतरा था। हिंदुकुश क्षेत्र में ग्लेशियर तेजी से खत्म हो रहे हैं। ये नदियों के बहाव के लिए लगातार पानी उपलब्ध करा रहे हैं। तिब्बत के पठार में नदी में बहाव 5.5 प्रतिशत बढ़ गया है। ऊंचाई पर स्थित अधिकांश झीलों में जलस्तर 0.2 मीटर प्रतिवर्ष बढ़ रहा है। दूसरी तरफ इनका दायरा भी बढ़ रहा है। यह बदलाव किसी बड़े खतरे की आहट है। फलस्वरूप अनेक महत्वपूर्ण औषधीय पौधे विलुप्त होने की कगार पर आ गये हैं। सरकार इनके संरक्षण हेतु उचित कदम नहीं उठाये गये तो ये वनस्पतियां सदैव के लिए विलुप्त हो जायेंगी। उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में की खेती करने के लिए बड़े खतरे की आहट है।

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