शिवेंद्र गोस्वामी
अल्मोड़ा। सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा की प्रसिद्ध व ऐतिहासिक होली इन दिनों पूरे शबाब में है। देर रात तक होली गायन की महफ़िलें सज रही हैं। इस मौके पर रंगकर्मी, कलाकार और स्थानीय लोग देर रात तक बैठकी होली के रागों का आनन्द ले रहे हैं। सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में इस बैठकी होली का इतिहास 150 साल से भी अधिक पुराना है।
अल्मोड़ा की बैठकी होली काफी प्रासिद्ध है। यहाँ बैठकी होली की शुरुआत पौष महीने के प्रथम रविवार से हो जाती है। इस बैठकी होली की विशेषता यह है कि यह होली शास्त्रीय रागों पर गायी जाती है। जिसमें ईश्वर की आराधना के निर्वाण गीत गाए जाते हैं। बसंत के शुरू होते ही श्रृंगार रस के गाने शुरू हो जाते हैं, जबकि शिवरात्रि के बाद होली अपने पूरे उफान पर होती है। बैठकी होली शुद्ध शास्त्रीय गायन है, लेकिन शास्त्रीय गायन की तरह एकल गायन नहीं है। होली में भाग लेने वाला मुख्य कलाकार गीतों का मुखड़ा गाते हैं और श्रोता होल्यार भी बीच.बीच में साथ देते हैं। जिसे भाग लगाना कहते हैं।
कुमाउंनी बैठकी होली की बात हो और अल्मोड़ा का नाम न आये ऐसा हो ही नहीं सकता। क्योंकि सैकड़ों वर्ष पूर्व अल्मोड़ा से ही इस कुमाउंनी बैठकी होली की परंपरा शुरू हुई। वहीं इस होली की एक विशेषता यह है कि यह होली शिवरात्रि तक बिना रंगों के सिर्फ संगीत की होली होती है। सायं होते ही संगीत प्रेमियों द्वारा अपने अपने घरों में शास्त्रीय रागों पर आधारित बैठकी होली का गायन शुरू हो जाता है।
जानकारों के अनुसार कुमाऊॅ में बैठकी होली गीतों के गायन की परम्परा सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा से शुरू हुई। जानकार बताते हैं इस होली की शुरूआत अल्मोड़़ा में 1860 में हुई थी। होली में गायी जाने वाली बंदिशें विभिन्न रागों पर आधारित होती हैं, जो समय के अनुसार गाये जाते हैं। बैठक में होली को गाये जाने का एक तरीका है। राग काफी, जंगला काफी, खमाज, देश, विहाग, जैजेवन्ती, जोगिया आदि रागों में होली के पद गाये जाते रहे हैं। होली रसिक बताते हैं कि अब कुछ नये रागों पर भी होली के पद गाये जाने की परम्परा नई पीड़ी ने शुरू कर दी है।
बाईट. अनिल सनवाल, रंगकर्मी