डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड को “देवभूमि” के नाम से जाना जाता है। प्राचीन मंदिरों, जंगलों, नदियों और बर्फ से ढके पहाड़ों के अलावा, उत्तराखंड का भोजन भी समृद्ध है। यहाँ कुछ सुगंधित मसाले हैं जो क्षेत्रीय व्यंजनों को एक अद्भुत स्वाद देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैंजखिया एक औषधीय पौधा है, जिसका प्रयोग औषधि निर्माण, मसाले तथा तड़के के रूप मे किया जाता है। जखिया का वानस्पतिक नाम क्लोमा विस्कोसा है, जो कि कैपरेसी परिवार का सदस्य है। जखिया को जख्या, एशियन स्पाइडर फ्लावर, वाइल्ड डॉग या डॉग मस्टर्ड के नाम से भी जाना जाता है। भारत के पहाड़ी क्षेत्रों के अलावा पाकिस्तान, भूटान, नेपाल, श्रीलंका आदि देशों मे भी जखिया मुख्यतः 800 से 1500 मीटर की ऊंचाई मे प्राकृतिक रूप मे पाया जाता है।जखिया के दाने काले, पीले तथा पूरे रंग के सरसों तथा राई के समान होते है। जखिया को मुख्यतः मसाले तथा तड़के के रूप मे इस्तेमाल किया जाता है। आलू, लौकी, कद्दू, तुरई, बिन, पिनालू, राजमा की दाल, कढ़ी, आलू-मूली की सब्जी, गडेरी, हरी सब्जी आदि व्यंजनों मे जखिया के बीज का तड़का लगाया जाता है। जखिया मे पाये जाने वाला फ्लेवरिंग एजेंट इसके अद्भुत स्वाद व जायके के लिए जिम्मेदार है। एक बीघा मे औसतन 168 किलोग्राम जखिया पैदा किया जा सकता है। जखिया ₹200 से ₹300 प्रति किलो बाजार मे बेचा जाता है।जखिया के बीज मे लगभग 18% फैटी एसिड तथा अमीनो एसिड पाया जाता है। इसके अलावा पर्याप्त मात्रा मे कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, स्टार्च, विटामिन-सी, विटामिन-ई, मैग्निशियम, कैलशियम, पोटैशियम, सोडियम, मैग्नीज, आयरन तथा जिंक आदि तत्व पाए जाते है। जखिया न केवल तड़के के रूप मे इस्तेमाल किया जाता है बल्कि इसकी औषधीय महता भी बहुत है।जखिया के बीज बुखार, खांसी, हैजा, एसिडिटी, गठिया, अल्सर आदि रोगों के उपचार मे प्रयोग किया जाता है। जखिया मे मौजूद एसीसेप्टिक गुण के कारण इसका इस्तेमाल पहाड़ की परंपरागत चिकित्सा पद्धति मे किया जाता है। जखिया के नियमित सेवन से पेट से जुड़ी समस्याओं को दूर किया जा सकता है। जखिया मे फाइबर की अधिकता होती है जो कि पाचन तंत्र को दुरुस्त करता है। जखिया के इस्तेमाल से लीवर मे होने वाली सूजन तथा अन्य बीमारियों से भी बचाव किया जा सकता है। बदली परिस्थितियों में भले ही उत्तराखंड के सुदूर पर्वतीय अंचलों तक देश के विभिन्न प्रांतों के साथ ही चाइनीज व्यंजन भी पहुंचे हों, लेकिन यहां के पारंपरिक पकवानों के कद्रदानों की भी कहीं कमी नहीं है। बात पर्वतीय अंचलों के खान-पान की हो और उसमें जख्या के तड़के का जिक्र न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। पहाड़ की जीवन शैली में गहरे तक रचा बसा जख्या अब महानगरों की रसोइयों की शान बढ़ा रहा है। यह ऐसा जायका है, जिसके मुंह पर एक बार इसका स्वाद लग जाए तो वह बार-बार इसकी मांग करता है। फिर चाहे वह हरी सब्जियों में तड़का लगाना हो फिर आलू के गुटखे, कढ़ी, दाल आदि में, यह सभी को खूब पसंद आता है। वजह ये कि जख्या का तड़का स्वाद को लाजवाब बना देता है।उत्तराखंड के पर्वतीय अंचलों में प्राचीन काल से ही जख्या पैदा हो रहा है और इसका उपयोग तड़के के रूप में किया जा रहा है। जख्या के लिए कोई खास मेहनत भी नहीं करनी पड़ती। यह खेतों अथवा खाली पड़ी भूमि पर स्वयं ही उगता है। इससे घर की जरूरत के लिए पर्याप्त जख्या मिल जाता है। जख्या की फलियां सूखने के बाद बीज झड़ने लगता है और इसे ही तड़के के लिए उपयोग में लाया जाता है। स्वाद को लाजवाब बनाने वाले जख्या की मांग अब न केवल देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी, नैनीताल, मसूरी समेत अन्य स्थानों पर स्थित होटलों बल्कि दिल्ली, चंडीगढ़, मुंबई, लुधियाना जैसे तमाम शहरों में भी बढ़ने लगी है। असल में उत्तराखंड के लोग देश के लगभग सभी महानगरों में हैं और वे अपने खान-पान में जख्या को भी तवज्जो देते हैं। वे उत्तराखंड में रह रहे अपने नाते-रिश्तेदारों से इसे मंगाते हैं। धीरे-धीरे उत्तराखंड का जख्या देश के अन्य हिस्सों में भी फैला और वहां के होटलों में जख्या का तड़का सभी को लुभा रहा है। पहाड़ी जख्या का स्वाद अधिक लाजवाब होने से इसकी मांग अधिक है। जख्या की खेती को भले ही अब तक खास तवज्जो न मिली हो, लेकिन यह आर्थिकी संवारने में सक्षम हो सकता है। जिस तरह से इसकी मांग बढ़ रही है, उसे देखते हुए जख्या की खेती को बढ़ावा दिया जाए तो इससे अच्छी आय हो सकती है। हिमालयी क्षेत्र ईश्वर प्रदत्त अनेक औषधीय वनस्पतियों का खजाना है यहां मिलने वाली विशिष्ट वनस्पतियों का उपयोग लोग सदियों से पारंपरिक व्यंजनों में करते आ रहे हैं।इनमे से अधिकांश वनस्पतियां खाली बेकार पड़े क्षेत्रों में तथा जंगलों में जानकारी के अभाव में खर पतवार के रूप में मानी जाती रही है।पर्वतीय क्षेत्र के पारंपरिक चिकित्सक वैद्य इन वनस्पतियों का रोगों के उपचार हेतु प्रयोग कराते आ रहे हैं।एक अध्ययन के अनुसार ऐसी लगभग 124 प्रकार की वनस्पतियां है जिनका प्रयोग पर्वतीय क्षेत्र वैद्य पारंपरिक चिकित्सा में करते हैं भविष्य में जखिया का प्रयोग बायोफ्यूल के रूप मे किया जा सकता है। जखिया या जख्या नाम से जाना जाने वाला यह पहाड़ी मसाला महक और जायके से भरपूर है। जखिया उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों में तड़के के रूप में सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला पसंदीदा और लोकप्रिय मसाला है। इसके बीज हल्के काले ओर भूरे रंग के होते हैं जो बिल्कुल राई ओर सरसों के बीज की तरह होता है। तड़के के रूप में लगने वाला यह मसाला पहाड़ी खाने की मुख्य पहचानों में से एक है। जख्या का स्वाद एक बार जिसकी जुबान पर लग जाए वह इसका दिवाना हो जाता है। बता दें कि अब जखिया के छौंक की महक से कैलिफोर्निया की रसोई भी महक उठी है। इसके अलावा हर्षिल की राजमा, टिहरी की तोर, पौड़ी की उड़द और पुरोला की गहथ भी देशभर में उपस्थिति दर्ज करा रही है। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*












