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कितना आसान है पत्रकार पर रंगदारी का आरोप लगाना?

27/11/19
in उत्तराखंड, क्राइम, देहरादून
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शंकर सिंह भाटिया
देहरादून। मासिक पत्रिका और न्यूज पोर्टल ‘पर्वतजन’ के संपादक पत्रकार शिव प्रसाद सेमवाल ने एक प्रेस वार्ता में लगाए गए आरोपों पर आधारित खबर अपने पोर्टल में प्रकाशित की, जिसके खिलाफ यह खबर थी, उसने पत्रकार पर रंगदारी मांगने का आरोप लगाते हुए सहसपुर थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दी। करीब एक महीने दस दिन की कवायद के बाद पुलिस इस प्रकरण के मुख्य आरोपी को तो नहीं पकड़ पाई, लेकिन पत्रकार को गिरफ्तार कर लिया। क्या प्रेस वार्ता में आरोप लगाने वाले व्यक्ति के आरोप प्रकाशित करना अपराध है? जबकि यह खबर तो कई अन्य अखबारों, पोर्टल में भी प्रकाशित हुई है। आरोप लगाया गया है कि पत्रकार ने पोर्टल से खबर हटाने के एवज में रंगदारी मांगी है। रंगदारी मांगने के इस आरोप में कितना दम है?
जिसके खिलाफ खबर प्रकाशित होती है, उसकी तरफ से पत्रकार पर रंगदारी या दलाली मांगने का आरोप लगाना कोई नई बात नहीं है। जिनके खिलाफ खबर होती है, उनकी तरफ से ऐसे आरोप लगते रहे हैं। केवल किसी व्यक्ति द्वारा पत्रकार पर इस तरह के आरोप लगाने भर से पुलिस रिपोर्ट दर्ज कर सकती है? इस तरह के प्रकरण में दो वजहों से रिपोर्ट लिखे जाने की संभावना होती है। या तो संबंधित पत्रकार को फंसाने के लिए पुलिस लालायित हो, पुलिस पर किसी प्रभावशाली व्यक्ति का दबाव हो। या फिर एफआईआर लिखने से पहले या बाद में पुलिस ने पत्रकार के खिलाफ पुख्ता सबूत जुटा लिए हो, जिसमें रंगदारी वसूली के प्रमाण मिले होें।
इस प्रकरण में दोनों मामलों पर गौर करना होगा। जिस तरह पुलिस पत्रकार को जबरन घर से लेकर गई, दिन भर थाने में बैठाए रखा गया और शाम को पत्रकार की गिरफ्तारी दिखाई गई, उससे दाल में कुछ काला लगता है। यह किसी अपराधी को उठाने का पुलिसिया तरीका है। यहां संदेह होता है कि किसी उच्चाधिकारी को खुश करने के लिए पुलिस ने यह काम तो नहीं किया? जब इस प्रदेश में पूरा मीडिया सरकार के सामने नतमस्तक होता दिखाई दे रहा हो, उस दौर में कम से कम उत्तराखंड में पर्वतजन चाहे पत्रिका हो या फिर पोर्टल सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ तीखी खबरें प्रकाशित करने के लिए जाना जाता है। इन खबरों में सच्चाई कितनी होती है, ब्लैकमेल करने की मंशा कितनी होती है, यह तो जांच का विषय है, लेकिन इन खबरों की वजह से कई अधिकारी और नेता इस गु्रप पर दलाली में संलिप्त होने के आरोप लगाते रहे हैं। इसी वजह से इन पर कई मामले भी विचाराधीन चल रहे हैं। स्वाभाविक है, जिनके खिलाफ चुभती हुई खबरें लगती हैं, जिनका खेल खराब होता है वे, शिव प्रसाद सेमवाल और उनकी टीम से दुश्मनी रखते हैं। संभव है कि ऐसे ही सत्ताधीशों के इशारे पर पुलिस काम कर रही हो?
इस प्रकरण में दूसरा पक्ष है रंगदारी की रिपोर्ट दर्ज करने के एक माह दस दिन बाद पुलिस ने पत्रकार की गिरफ्तारी की है। हालांकि रंगदारी वसूलने की रिपोर्ट तुरंत दर्ज कर ली गई थी। इस दौरान पुलिस पत्रकार के खिलाफ रंगदारी वसूलने के सबूत जुटा रही थी? और पुलिस को इसके सबूत मिले हैं? अक्सर पत्रकारों पर इस तरह के आरोप लगते रहे हैं। पुलिस मिलीभगत या फिर खुन्नस में पत्रकारों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करती रही है। पत्रकार संगठन इसके खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं कि किसी के आरोप लगा देने पर ही पत्रकार के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज नहीं की जानी चाहिए। पहले ऐसे आरोपों की जांच होनी चाहिए। आरोपों के जांच में प्रमाणित होने के बाद ही पत्रकार के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई जानी चाहिए। लेकिन यहां तो जांच करने से पहले रिपोर्ट दर्ज की गई है, उसके बाद एक माह दस दिन बाद गिरफ्तारी हुई है। नेता अक्सर पुलिस को निर्देशित करते रहे हैं कि पत्रकारों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करने से पहले उन पर लगाए जाने वाले आरोपों की जांच होनी चाहिए। तभी उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए। लेकिन इस पर अमल कभी नहीं होता है।
क्या इस प्रकरण में ऐसा हुआ है? पुलिस के पास पुख्ता प्रमाण है कि आरोपी पत्रकार ने रंगदारी मांगी है? यदि इस बात पर सच्चाई है तो पत्रकार के खिलाफ कानूनी कार्यवाही जरूर होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो सत्ता प्रतिष्ठानों पर बैठे अफसरों-नेताओं के ईशारों पर यह कार्यवाही पत्रकार के खिलाफ हुई है तो यह उत्तराखंड में स्वतंत्र प्रेस पर बहुत बड़ा प्रहार है। इसके बहुत गंभीर परिणाम होने वाले हैं। यह कलम का सिर कलम करने की सरकारी कार्यवाही है।
इन सवालों के उत्तर ढूंढे जाने इसलिए जरूरी हैं, क्योंकि यह पत्रकारिता जैसे पेशे के वजूद का सवाल है। लेकिन एक पत्रकार की पुलिसिया अंदाज में गिरफ्तारी पर पत्रकार जगत में कोई खास हलचल नहीं है। ऐसा क्यों है? क्या पत्रकारों ने मान लिया है कि यह वास्तव में रंगदारी वसूली का ही प्रकरण है? दरअसल यह उत्तराखंड के पत्रकार राजनीति को अंदर से झकझोरने वाला घटनाक्रम भी है। एक वकील गलती करता है, लेकिन जब उनके साथी पर कार्यवाही होती है तो सभी उसके साथ खड़े हो जाते हैं। एक पुलिस वाला गलत करता है तो कार्यवाही होने पर सभी पुलिस वाले उसके साथ खड़े हो जाते हैं। हाल ही में दिल्ली में पुलिस वकील संघर्ष में हमने यह सब होते हुए देखा है। यह पहले भी होता रहा है। लेकिन कम से कम उत्तराखंड के पत्रकार ऐसे मामलों में एकजुट नहीं हो सकते।
खासकर उत्तराखंड में पत्रकारों में विखराव की कई वजहें हैं। कुछ कथित बड़े अखबारों तथा चैनलों के पत्रकारों को मुख्य धारा के पत्रकार कहा जाता है। उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी में इन मुख्य धारा के पत्रकारों ने प्रेस क्लब पर अवैध कब्जा कर लिया था। बिना कोई कारण बताए प्रेस क्लब के सदस्यों की सदस्यता समाप्त कर दी गई, उसके बाद अपनी सुविधा के अनुसार एक समय सीमा तय कर कुछ को बहाल कर दिया गया। उसके बाद सैकड़ों लोगों को सदस्यता से बाहर कर नए सदस्य बना दिए गए। शासन और जिला प्रशासन ने भी इन पत्रकारों की अवैध कार्यवाही का ही साथ दिया। यह पत्रकारों के बीच विभाजन की स्पष्ट रेखा थी। कथित मुख्य धारा के पत्रकार दूसरों को पत्रकार मानने को ही तैयार नहीं हैं। खासकर सोशल मीडिया से जुड़े पत्रकारों को कोई पत्रकार मानने को तैयार नहीं है। दूसरे पत्रकार संगठन भी इस मामले में आगे आने को तैयार नहीं हैं।
प्रदेश भर से पत्रकारों तथा उनसे जुड़े संगठनों की इस मामले में प्रतिक्रियाएं जरूर आई हैं। उन्होंने पत्रकार की गिरफ्तारी का विरोध किया है। लेकिन पत्रकार की इस तरह से गिररफ्तारी के खिलाफ पत्रकारों की एकजुट हुंकार की अभी अपेक्षाएं बाकी है।
जहां तक शिव प्रसाद सेमवाल का मामला है, उनकी सोशल मीडिया की खबर से यह मामला हुआ है। लेकिन वह केवल आज उपजे सोशल मीडिया के पत्रकार नहीं हैं, बल्कि राज्य गठन के दौर से ही वह मासिक पत्रिका प्रकाशित करते हैं। पिछले दिनों तेजी से उभरे सोशल मीडिया के पत्रकारों को संगठित करने में उनकी काफी सक्रियता देखी गई थी। संभव है कुछ लोगों को उनकी यह सक्रियता नागवार गुजर रही हो।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि मुख्य धारा का मीडिया चाहे जितना भी अपने को मुख्य धारा का होने का ढिढौरा पीटता रहे, वह सरकारों के पीआर बनकर रह गए हैं। सरकारों से सांठगांठ कर विज्ञापन हड़पने के लिए अब वहां सत्ता प्रतिष्ठान की चुभने वाली खबरों को छिपाने की होड़ सी मची हुई है। राम रहीम का डेरा सच्चा सौदा किस कदर अराजक हो गया था। हरियाणा से लेकर पंजाब सरकार तक उनके सामने नतमस्तक थे। मुख्य धारा के अखबार विज्ञापन पाने के लिए वहां लाइन में खड़े थे। एक छोटे से अखबार के पत्रकार छत्रपति अपनी जान की परवाह किए बिना सच्चाई सामने नहीं लाए होते तो आज रामरहीम जेल में नहीं होते।
इसी साल अगस्त का मामला है, उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में एक पत्रकार पर मिड डे मील में नमक रोटी परोसने का खुलासा करने वाले पत्रकार पर 120बी और 420 जैसी संगीन धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया था। मिर्जापुर के जिलाधिकारी अनुराग पटेल का कुतर्क तो यहां तक था कि प्रिंट मीडिया का पत्रकार फोटो तथा वीडियो कैसे ले सकता है। सच्चाई का खुलाशा करने वाले पत्रकार के खिलाफ इसलिए इतनी गंभीर धाराओं में मुकदमे दर्ज किए गए, उन्हें गिरफ्तार किया गया। हालांकि यह प्रकरण जब पूरे देश में सूर्खियां बना तो उत्तर प्रदेश सरकार जागी। क्या इस प्रकरण में भी उत्तराखंड सरकार आगे आएगी?

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