डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड राज्य गठन के 25 साल बाद भी कंडी मार्ग नहीं बन पाया, यह वही ऐतिहासिक सड़क है, जो लगभग 200 साल पुरानी है और जिसे लोग कभी सब-माउंटेन रोड के नाम से जानते थे. ये ब्रिटिश काल में बनाई गई कंडी रोड का उपयोग यातायात के लिए किया जाता था. कंडी का अर्थ कुछ लोग शिवालिक श्रेणी में पैदल चलने वाला मार्ग और कुछ लोग बैलगाड़ियों से लकड़ी की ढुलाई करने वाला मार्ग बताते हैं. इस ऐतिहासिक रोड के विस्तार के बारे में कुछ लोग इसे नेपाल सीमा टनपुर से कोटद्वार-हरिद्वार से हिमाचल बताते हैं. जबकि कुछ लोगों का मामना है कि कंडी मार्ग या पैदल चलने वाले मार्ग सभी पहाड़ी क्षेत्रों में होते थे. लेकिन हरिद्वार-कोटद्वार और कालागढ़ के बीच अभी भी यह पुराना मार्ग है. भारत की आजादी के बाद तराई क्षेत्र में पक्की सड़कों का निर्माण होने लगा. इसके साथ ही जंगल का रास्ता होने के कारण सुरक्षा की दृष्टि से भी यह मार्ग बंद होता गया. बाद में वन विभाग ने सुरक्षा की दृष्टि से इस मार्ग बंद करवा दिया. ब्रिटिश काल में सब माउंटेन रोड के नाम से जाने जानी वाली इस सड़क को ही आधार मानकर पर्वतीय और गैर पर्वतीय क्षेत्रों को बांटा गया था. इसी आधार पर ही सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को भी पर्वतीय भत्ता दिया जाता था. बाद में वर्ष 2000 में उत्तराखंड पृथक राज्य बना और इसकी राजधानी देहरादून बनाई गई. इसके बाद गढ़वाल से कुमाऊं जाने के लिए भी यूपी से होकर जाना पड़ा. जिससे टैक्स और अन्य दिक्कतों को देखते हुए कंडी रोड खोलने की मांग शुरू हुई. कार्बेट पार्क बनने के बाद और वन अधिनियमों के चलते भी कंडी रोड का पेंच फंसता गया. वर्तमान सरकारें भी कई बार इस रोड को बनाने के बारे में बोल चुकी हैं. लेकिन अभी कोटद्वार और हरिद्वार के बीच सड़क बन नहीं पाई. वहीं कोटद्वार और कालागढ़ के बीच छह माह जीएमओ की एक या दो बसें चलती थी. जो अभी नहीं चल पा रही हैं. कोटद्वार और कालागढ़ के बीच सड़क कच्ची है.जन संघ काल के पुराने नेता दुगड्डा निवासी मोहन लाल बैठियाल ने बताया कि कंडी रोड अंग्रेजों के जमाने में टनकपुर पूर्णागिरी नेपाल की सीमा से कुमाऊं होते हुए कालागढ़-कोटद्वार और हरिद्वार से पांवटा साहिब होते हुए हिमाचल को जोड़ती थी. अस्सी के दशक में कोटद्वार से कंडी रोड का निर्माण कार्य शुरू हुआ. जो पक्की सड़क बन रही थी. कोटद्वार से पाखरौ तक पक्की सड़क बन गई थी. सड़क में कई स्थानों पर ह्यूम पाइप डल चुके थे. लेकिन अचानक वन कानून और वन्य जीव संरक्षण के नियम और लोगों की आपत्ति के कारण सड़क का कार्य रुक गया.आज भी कोटद्वार से पाखरौ तक ही पक्की सड़क है. इसके आगे वन क्षेत्र में कच्ची सड़क है. अस्सी के दशक में सड़क निर्माण में जो पेड़ कटे थे उनके बदले में यूपी क्षेत्र में वनीकरण भी हो चुका है. लेकिन उसके बाद से सड़क निर्माण का मामला आज तक लटका हुआ है. ऐतिहासिक ब्रिटिश कालीन सड़क न सिर्फ सड़क थी बल्कि व्यापार का मुख्य संसाधन, सीमाओं का विभाजन और संस्कृति और परंपराओं को भी जोड़ती थी. 2017 में जो मैनीफेस्टो जनता के बीच जारी किया था, उसमें कंडी मार्ग का निर्माण प्राथमिकता में बताया गया था. जबकि प्रदेश के वन मंत्री जिस कोटद्वार विधानसभा क्षेत्र से आते हैं वो इससे सबसे अधिक प्रभावित होने वाला क्षेत्र है. कोटद्वार में सिगडडी में ग्रोथ सेंटर है तो जशोधरपुर में दर्जनों स्टील फैक्टरियां हैं. इन फैक्टरियों के लिए कच्चा माल और फिर इनका उत्पाद दोनों के ही ट्रांसपोर्टेशन में कंपनियों को यूपी में भी टैक्स देना होता है. अहम मार्ग कुमाऊं और गढ़वाल मंडलों को एक-दूसरे से जोड़ती है. इस मार्ग केबनने से कुमाऊं और गढ़वाल की दूरी कम हो जाएगी. अब सुप्रीम कोर्ट के नए आदेश ने मार्ग निर्माण की नई किरण जगाई है.ब्रह्मदेव मंडी टनकपुर से कोटद्वार तक फैला कंडी मार्ग कभी पहाड़ और मैदान की सीमा का मानक हुआ करता था. ब्रिटिश दौर में इसी सड़क के ऊपर तैनात कर्मचारियों को पर्वतीय भत्ता मिलता था, जबकि नीचे तैनात कर्मचारियों को नहीं. यानी यह मार्ग लंबे समय से पहाड़ की पहचान से भी जुड़ा था. उत्तराखंड राज्य बनने से पहले ही इसे फिर से शुरू करने की मांग चल रही थी. राज्य बनने के बाद यह मांग और तेज हुई, लेकिन कांग्रेस हो या बीजेपी, दोनों ने इसे सिर्फ चुनावी मंचों पर भुनाया. हकीकत यह रही कि कोई भी सरकार इस पर गंभीरता से काम नहीं कर सकी, फाइलें आगे नहीं बढ़ी और कंडी मार्ग आज भी कागजों में ही कैद है.कॉर्बेट क्षेत्र में आता है 43 किलोमीटर का हिस्सा कुमाऊं और गढ़वाल को जोड़ने वाला यह मार्ग रामनगर से कोटद्वार तक जाता है. पहले यहां बस सेवा भी चलती थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद वह भी बंद हो गई. कुल मार्ग में से 43 किलोमीटर हिस्सा कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के अंदर आता है. साल 1999 में केंद्र सरकार ने आम लोगों के लिए इस मार्ग को खोले जाने की अनुमति दी थी.राज्य बनने के बाद उत्तराखंड सरकार ने इसे ऑल वेदर रोड के रूप में विकसित करने का प्रस्ताव केंद्र को भेजा. लेकिन जैसे ही इसकी जानकारी एनजीओ तक पहुंची, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी. दलील थी कि सड़क बनने से बाघों और अन्य वन्यजीवों पर खतरा बढ़ेगा. वनीकरण, वन्य जीव संरक्षण और विकास इन तीनों के बीच फंसा कंडी मार्ग अदालतों में अटक गया. लेकिन सबसे बड़ा अफसोस यह रहा कि सरकारें अदालत में कोई ठोस पैरवी ही नहीं कर सकीं. यही वजह है कि मामला लंबे समय से लटका हुआ है. समय-समय पर कई नेता इसे शुरू करने की पहल करते रहे, पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी, साल 2017 में तत्कालीन मुख्यमंत्री, पूर्व सांसद राज्यसभा सांसद 2017 में तत्कालीन वन मंत्री कई बार सर्वे हुए, प्रस्ताव बने, लेकिन सभी कोशिशें कागजों की धूल में खो गईं. चुनावी मुद्दा बनने के अलावा किसी भी सरकार ने इसे असल में प्राथमिकता नहीं दी. यह सड़क सिर्फ लोगों की यात्रा को आसान नहीं बनाती, बल्कि देश की सुरक्षा के लिहाज से भी बेहद अहम मानी जाती है. गढ़वाल में लैंसडाउन स्थित गढ़वाल रेजिमेंट सेंटर और कुमाऊं के रानीखेत में कुमाऊं रेजीमेंट मुख्यालय दोनों को जोड़ने के लिए यह सबसे सीधा और तेज मार्ग है. अगर यह सड़क बन जाती है तो आवाजाही आसान हो जाएगी. क्योंकि, यह सड़क न बनने से रामनगर से कोटद्वार जाने के लिए उत्तर प्रदेश के नजीबाबाद होकर जाना पड़ता है. जिससे 165 किलोमीटर की अतिरिक्त दूरी तय करनी पड़ती है, जबकि इस मार्ग के बन जाने से यह दूरी महज 88 किलोमीटर की रह जाएगी. इस मार्ग से देहरादून भी कम समय में पहुंचा जा सकेगा. रामनगर-कोटद्वार के बीच व्यापार और पर्यटन भी बढ़ेगा. साथ ही कुमाऊं और गढ़वाल की सांस्कृतिक सभ्यता का भी आदान-प्रदान हो सकेगा. 200 साल से भी पुरानी कंडी सड़क को बनाने के लिए वो साल 2005 में सुप्रीम कोर्ट गए. जहां से सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट में याचिका दायर करने को कहा. इसके बाद साल 2010 में जब वो हाईकोर्ट गए तो कोर्ट ने इसे बनाने में सहमति जताकर आदेश जारी कर दिए. साल 2014 में वो फिर हाईकोर्ट गए तो उनके खिलाफ दो दर्जन से ज्यादा एनजीओ ने रिट दायर कर दी, तब मजबूरन उन्हें अपनी रिट वापस लेनी पड़ी गई. करीब दो सौ साल पुराने कंडी मार्ग को लोग ‘सब माउंटेन रोड’ के नाम से भी पुकारा करते थे. यह वही मार्ग है, जो अभिभाजित उत्तरप्रदेश के समय पहाड़ और मैदान के मानक तय करती थी. ब्रह्मदेव मंडी टनकपुर से लेकर कोटद्वार तक जाने वाली इस सड़क से नीचे की ओर तैनात अधिकारियों, कर्मचारियों को हिल अलाउंस का भत्ता नहीं दिया जाता था. जबकि, इस सड़क के ऊपर की ओर स्थापित कार्यालयों में तैनात कर्मचारियों को पर्वतीय भत्ता दिया जाता था. उत्तराखंड राज्य बनने से पहले से ही कंडी सड़क मार्ग को शुरू करने की मांग की जाती रही है. आजादी के बाद भी साठ और सत्तर के दशक में रामनगर से कालागढ़, कोटद्वार और हरिद्वार के बीच इस मार्ग पर जीएमओयू की गंगा बस सर्विस चलती थी. मेटाडोर भी इस मार्ग पर चलती थी. मोहन लाल बैठियाल बताते हैं कि वन विभाग की ओर से कंडी रोड पर पाखरौ, सनेह और चिल्लरखाल के पास लालढांग में वाहनों से टैक्स लिया जाता था. अभी भी लालढांग में और पाखरौ में वन विभाग की चेक पोस्ट हैं. राज्य बनने के बाद तो इस मांग ने जोर पकड़ा. कांग्रेस और बीजेपी की सरकारों ने इस मार्ग को बनाने में अपनी सहमति तो जताई, लेकिन इच्छा शक्ति किसी भी सरकारों की नहीं रही. आलम ये रहा है कि कांग्रेस हो बीजेपी दोनों ने इसे चुनाव में खूब भुनाया, लेकिन काम करने की बारी आई तो कोई फाइल को आगे नहीं बढ़ा पाया. नतीजन यह तब से लेकर अब तक चुनावी मुद्दा बना हुआ है. *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं*











