डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
अस्कोट वन्य जीव विहार जनपद पिथोरागढ़ में 600 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैला है इसकी स्थापना सन् 1986 में की गयी, अस्कोट वन्य जीव अभ्यारण्य कस्तूरी मृग के लिए प्रसिद्ध है। उत्तराखण्ड राज्य में पाए जाने वाले कस्तूरी मृग प्रकृति के सुंदरतम जीवों में से एक हैं। यह 2.5 हजार मीटर ऊंचे हिम शिखरों में पाया जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम मास्कस कइसोगास्टर है। इसे हिमालयन मस्क डिअर के नाम से भी जाना जाता है।
कस्तूरी मृग अपने अप्रतिम सौन्दर्य के साथ.साथ अपनी नाभि में पायी जाने वाली कस्तूरी के लिए विश्व प्रसिद्ध है। यह खुशबूदार कस्तूरी केवल नर मृग में पायी जाती है, जो इसके पेट के निचले हिस्से में एक थैली में मौजूद होती है। एक नर मृग की थैली में लगभग 30 से 50 ग्राम तक कस्तूरी पाई जाती है। इस कस्तूरी का उपयोग औषधि के रूप में दमा, मिर्गी, निमोनिया आदि की दवाएं बनाने में होता है। कस्तूरी से बनने वाला इत्र अपनी मदहोश कर देने वाली खुशबू के लिए प्रसिद्ध है। उच्च हिमालयी इस जीव को मध्य हिमालय की जलवायु के अनुकूल बनाने के लिए पहले उच्च मध्य हिमालय के धाकुड़ी और तड़ीखेत में रखा गया। बाद में कम ऊंचाई वाले महरूढ़ी में लाया गया।
कस्तूरा मृग के लिए मध्य हिमालय की वनस्पति काम नहीं आती है। 45 वर्ष पूर्व महरूढ़ी फार्म में कस्तूरा मृग का जोड़ा लाना एक दुष्कर कार्य था। इसके लिए बागेश्वर जिले के पिंडारी ग्लेशियर क्षेत्र से कस्तूरा मृग पकड़े गए थे। प्राकृतिक रूप से धरती पर सर्वाधिक सुगंधित कस्तूरी की महक देश.दुनिया तक फैलेगी। उत्तराखंड के बागेश्वर और पिथौरागढ़ जिले की सीमा पर महरूढ़ी स्थित कस्तूरा मृग प्रजनन केंद्र में कस्तूरा मृगों की संख्या बढ़ चली है। बड़ी बात यह कि उच्च हिमालयी क्षेत्र में मिलने वाले दुर्लभ कस्तूरा मृग ने मध्य हिमालय में अनुकूलन कर लिया है। मध्य हिमालय रेंज में स्थित प्रजनन केंद्र की सफलता ने जैव विविधता के नए द्वार खोल दिए हैं। 1976-77 में शिकारियों की नजर में रहने वाले राज्य पशु कस्तूरा मृग के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए भारत सरकार की पहल पर मध्य हिमालय में कस्तूरा मृग अनुसंधान केंद्र की स्थापना की गई थी। पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिले की सीमा पर अस्कोट.कर्णप्रयाग मोटर मार्ग पर स्थित कोटमन्या से कुछ दूर ऊंचाई पर महरूढ़ी में फार्म के लिए भूमि का चयन किया गया। इस स्थान पर ग्रामीणों द्वारा दी गई भूमि पर फार्म स्थापित किया गया। 40 वर्षों के अंतराल में कस्तूरा फार्म ने कई झंझावात झेले। हिमरेखा के करीब रहने वाले दुनिया के सबसे शर्मीले जानवर कस्तूरा मृग ने इस परिस्थिति में अपने को ढाला।भोजन से लेकर जलवायु तक को अंगीकार करने में चार दशक का समय लग गया। इस बीच कई बार इस प्रोजेक्ट पर प्रश्नचिन्ह भी लगते रहे। कभी आशा और कभी निराशा का दौर चलता रहा। नर मृग की नाभि से वैज्ञानिक विधि से कस्तूरी भी निकाली गई। एक दौर ऐसा आया जब केंद्र बंद होने की स्थिति में पहुंच गया। अब फिर प्रयास सफल हो गया है। फार्म में कस्तूरा मृगों की संख्या 12 हो गई है। जिसमें सात नर और पांच मादाएं हैं। हाल ही में दो नए शावक हुए हैं जिसमें दोनों मादा हैं। आयुष विभाग ने अब इसी केंद्र में कस्तूरी निकालने की अनुमति दे दी है।
कस्तूरा मृगों को उनके प्राकृतिक माहौल के मुताबिक भोजन उपलब्ध नहीं करा पाने के चलते 2005 में इस केंद्र के अस्तित्व को लेकर सवाल उठ खड़े हुए थे। हालांकि तक एक मृग की नाभि से कस्तूरी निकाली गई थी। लेकिन उसके बाद यह संभव नहीं हो सका। अब यह समस्या नहीं रही है। मृगों ने भी अनुकूलन करना सीख लिया है। ऐसे में अब आयुष विभाग से मंजूरी मिलने के बाद सात नर मृगों से कस्तूरी निकाली जानी है। कस्तूरी दरअसल नर मृगों की ग्रंथि से निकलकर नाभि में जमा होने वाला तेज गंधयुक्त पदार्थ होता है। इसे अब वैज्ञानिक पद्धति से निकाल लिया जाता है और मृग को कोई क्षति नहीं पहुंचती है। एक मृग की नाभि से एक बार में 10 से 20 ग्राम तक कस्तूरी निकल सकती है। अनुसंधान केंद्र संग्रहित कस्तूरी को सीधे आयुष विभाग को भेजता है।
इसकी कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में एक लाख रुपये प्रति तोला तक बताई जाती है। कस्तूरी का प्रयोग जीवनरक्षक एवं शक्तिवर्धक दवा बनाने में होता है। यहां एक.दो कारणों से अनुसंधान केंद्र में मृगों का विस्तार नहीं किया जा सका है। केंद्र में सीमित जगह इसमें एक बाधा है। इस केंद्र को वन विभाग को हस्तांतरण की कार्रवाई की फाइल करीब 12 साल से अटकी है। वन विभाग को हस्तांतरण के बाद जगह और संसाधनों की कमी आड़े नहीं आएगी। दूसरी तरफ नस्ल वृद्धि इनब्रीडिंग की समस्या भी यहां मृगों के विस्तार में बाधक है। जानकारों का मानना है कि अच्छी नस्ल के लिए यहां नए कस्तूरा मृग भी लाने होंगे। 19वीं सदी के उतरार्ध तक, प्राकृतिक कस्तूरी का इस्तेमाल इत्र में बड़े पैमाने पर तब तक किया जाता रहा जब तक की आर्थिक और नैतिक इरादों ने सिंथेटिक कस्तूरी को अपनाने की दिशा नहीं दिखाई, जो लगभग विशेष रूप से उपयोग किया जाता है।
कस्तूरी की विशेष गंध के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार जैविक यौगिक म्स्कोने है। प्राकृतिक कस्तूरी फली का आधुनिक उपयोग अब केवल पारंपरिक चीनी दवा तक सीमित है। कस्तूरीमृग उच्च हिमालयी पहाड़ी जंगलों की चट्टानों के दर्रों और गुफाओं में रहता है। यह अपने निवास स्थान को कड़क ठण्ड के मौसम में भी नहीं त्यागता। चरने के लिए बहुत लम्बी दूरी तय करने के बाद भी यह लौटकर अपनी गुफा में ही आता है। हिमालयी घास.पात, फूल, जड़ें, झाड़ियाँ और जड़ी.बूटियाँ ही इसका प्रमुख भोजन है। ये एकांतवासी जीव है, ऋतुकाल के अलावा सामान्यतः समूह में रहना पसंद नहीं करते। कस्तूरी मृग की सूंघने की शक्ति बहुत तेज होती है। कस्तूरी मृग तेज गति से दौड़ने वाला जानवर है, लेकिन दौड़ते समय 50 मीटर दौड़ने के बाद मुड़कर देखने की प्रवृत्ति ही इसके लिये जानलेवा बन जाती है। कस्तूरी मृग की प्रजाति संकट में है। कस्तूरी मृग के शरीर पर मौजूद कस्तूरी ही उसकी मौत का कारण बनी हुई है। पैसा कमाने की हवस में अँधा इंसान उसकी थैली में मौजूद कस्तूरी को निकालकर बेच डालने के लिए उसकी हत्या करने में जरा भी नहीं हिचकिचाता। उत्तराखण्ड सरकार द्वारा इसके संरक्षण के लिए प्रयास किये जा रहे हैं इधर वन्य जीव अधिनियम व ड्रग कॉस्मेटिक एक्ट में महत्वपूर्ण अंगों का दवाओं में इस्तेमाल प्रतिबंधित होने के बाद वन मंत्रालय ने कस्तूरी मृग के संरक्षण के बहाने प्रजनन केंद्र अपनी सुपुर्दगी में लेने की तैयारी कर ली थी।
बीते दो तीन वर्षो से आयुष व वन मंत्रालय के बीच कई दौर की बातचीत व पत्राचार हुए। सूत्रों के अनुसार आयुष मंत्रालय प्रजनन केंद्र को वन विभाग के सुपुर्द करने के बजाय कुनबा बढ़ाकर उसके प्राकृतिक हिमालयी आवास में छोड़ने का पक्षधर रहा है। मगर संकटग्रस्त वन्य जीव का हवाला दे वन विभाग ने इसे अपने अधिकार में करने की तैयारी कर ली है। धरमघर प्रजनन केंद्र को वन विभाग अपनी सुपुर्दगी में लेगा। आयुष मंत्रालय से अंतिम दौर की वार्ता हो चुकी है। इसे नैनीताल जू में शिफ्ट किया जाएगा। इसका अस्तित्व खतरे में है जब दुनिया की आधी से अधिक आबादी शहरी क्षेत्रों में रहती है। जहां 2030 तक 500 करोड़ से अधिक लोगों के बसने की उम्मीद है। बढ़ती मानव आबादी जैविक विविधता वाले क्षेत्रों में रहते हैं और लगातार विस्तार के कारण जीवों के निवास स्थान को खतरे में डालते हैंए जिससे जैवविविधता विलुप्त होने के कगार पर पहुंच जाती है और इससे छठे बड़े पैमाने पर विलुप्त होने का संकेत मिलता है। राज्यक गठन के बाद इस हिमालयन मस्कम डियर अर्थात कस्तूलरी मृग को राज्य पशु का दर्जा दिया गया है, परन्तुम इसके संरक्षण के पुख्ता् इंतजाम नहीं किए गए। इस कारण वर्ष 1982 से वर्ष 2006 के मध्यस 56 से अधिक कस्तू्री मृगों की विभिन्नग कारणों से मौतें हो गईं। कारणों का पता लगाने के लिए वन विभाग ने कस्तूरी मृग के अवयवों को भारतीय पशु अनुसंधान केन्द्रत देहरादून, पंतनगर विश्वतविद्यालय नैनीताल, भारतीय पशु अनुसंधान केन्द्रु बरेली आदि स्थारनों पर परीक्षण के लिए भेजा। कई परीक्षणों के बाद ही कस्तूयरी मृग की मृत्युध के ठोस कारणों का पता लग पाया। कांचुला खर्क में 1981 में 1 नर व दो मादा कस्तूतरी मृग लाए गए थे।
मृगों के प्रजनन के बाद यहां 66 मृगों का जन्मो हुआ। वर्ष 2004 में 4 कस्तूगरी मृग दार्जिलिंग भेजे गए, जिसके पश्चाात वर्तमान समय में इस केन्द्रह में मात्र एक ही कस्तूुरी मृग शेष रह गया है। कस्तूजरी मृग में सामान्यतया 30-45 ग्राम की कस्तूएरी पाई जाती है, जिसकी बाजार में अत्यसधिक मांग है। अंतरराष्ट्रीसय बाजारों में 1 ग्राम कस्तू्री की कीमत 50 से 60 डालर आंकी गयी है। परिणामस्वकरूप इसका अवैध शिकार किया जा रहा है।












