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पहाड़ की कृषि आर्थिकी को संवार सकता है कुट्टू

31/03/25
in उत्तराखंड, देहरादून
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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
समुद्र तल से 1800 मीटर ऊँचाई वाले पहाड़ी इलाकों में कुट्टू की खेती बहुत फ़ायदेमन्द साबित होती है। क्योंकि कुट्टू एक बहुद्देशीय फसल है। इसके बीज से जहाँ महँगा आटा बनता है, वहीं इसके तने का उपयोग सब्ज़ी बनाने, फूल और पत्तियों के रस के निष्कर्षण से दवाईयाँ बनाने वाले ग्लूकोसाइड का उत्पादन होता है। कुट्टू के फूलों से बनने वाले शहद की क्वालिटी भी बहुत अच्छी मानी जाती है। इसके बीज का इस्तेमाल नूडल, सूप, चाय, ग्लूटिन फ्री-बीयर वग़ैरह के उत्पादन में होता है। यह हरी खाद के रूप में भी बेहद उपयोगी होती है। धान, गेहूँ और अन्य मोटे अनाजों की तुलना में कुट्टू में पोषक तत्वों की मात्रा ख़ासी ज़्यादा होती है। कुट्टू को टाऊ, ओगला, ब्रेश, फाफड़, पदयात, बक व्हीट आदि अनेक नामों से जाना जाता है। इसका उत्पत्ति का मूल स्थान उत्तरी चीन और साइबेरिया को माना गया है। लेकिन रूस में इसकी खेती व्यापक पैमाने पर होती है। कुट्टू की जंगली प्रजाति यूनान में भी पायी जाती है। धान, गेहूँ और अन्य मोटे अनाजों की तुलना में कुट्टू में पोषक तत्वों की मात्रा ख़ासी ज़्यादा होती है। लेकिन कुट्टू की देश में पैदावार ज़्यादा नहीं है। इसीलिए इसका आटा, गेहूँ के मुकाबले दो-तीन गुना महँगा बिकता है। इसीलिए कुट्टू की खेती में किसानों के लिए कमाई की काफ़ी सम्भावनाएँ मौजूद हैं। लेकिन कुट्टू की देश में पैदावार ज़्यादा नहीं है। इसीलिए इसका आटा, गेहूँ के मुकाबले दो-तीन गुना महँगा बिकता है। इसीलिए कुट्टू की खेती में किसानों के लिए कमाई की काफ़ी सम्भावनाएँ मौजूद हैं। कुट्टू में प्रमुख पोषक तत्वों की मात्रा प्रति 100 ग्राम,कार्बोहाइड्रेट65-752, प्रोटीन12-133, वसा6-74, विटामिनबी37 मिग्रा, 5फॉस्फोरस,282 मिग्रा, 6मैग्नेशियम231, मिग्रा7, कैल्शियम114 , मिग्रा8आयरन13.2 मिग्रा है। कुट्टू का आटा मुख्य रूप से फलहार में इस्तेमाल किया जाता है। व्रत-उपवास में कुट्टू के आटे से स्वादिष्ट पूड़ियाँ और फलहारी पकोड़े जैसे व्यंजन बनाये जाते हैं। इसके अलावा गेहूँ के साथ इसे मिलाकर बिस्किट, नान खटाई, सेवइयाँ और  चावल के साथ मिलाकर पापड़, फूलबड़ी आदि बनाये जाते हैं। काशा की रोटी सेहतमन्द होती है। इसका स्वाद केक जैसा होता है। इसे छाछ, मलाई और नट्स के साथ काशा या रोस्टेड टाऊ को मिलाकर बनाते हैं। काशा की रोटी भी एक स्वादिष्ट विकल्प है। पेनकेक्स स्वादिष्ट नाश्ता है, जिसे आसानी से कम समय में तैयार किया जा सकता है। यह रेसिपी कुट्टू के आटे के साथ बनायी जाती है। कुट्टू के आटे और कोलोकैसिया से कुरकुरा डोसा भी बनाते हैं। कुट्टू की खेती के लिए उस ज़मीन को उम्दा माना जाता है जो रबी के मौसम में देरी से सूखती है या फिर जहाँ लम्बे अरसे की बाद खेती करनी हो। देश में कुट्टू की खेती छिटपुट इलाकों में ही होती है। इसीलिए इसकी खेती के कुल क्षेत्रफल का आँकड़ा उपलब्ध नहीं है। लेकिन पहाड़ी आबादी में कुट्टू की खेती की परम्परा है, इसीलिए छत्तीसगढ़ के सरगुजा सम्भाग में बसे तिब्बती शरणार्थियों की कुट्टू मुख्य फसल है। वहाँ मेनपाट इलाके में करीब 10 हेक्टेयर में कुट्टू की खेती होती है। कुट्टू एक फल है जो हिमालयी क्षेत्र के पहाड़ों में ही पाया जाता है। यह भारत के जम्मू-काश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड व दक्षिण के नील गिरी में जबकि नॉर्थ ईस्ट राज्यों में उगाया जाता है। यह अन्न नहीं होता इसलिए भारत में इसे वृत के दौरान खाया जाता है। इसका फल तिकोने आकार का होता है और यह पोलीगोनेसिएई परिवार का पौधा है।ओगल कुट्टू बेहद पोषक है फाफ़र यानि कुट्टू फ़र की सब्जी तो लगभग सभी लोगों ने खाई होगी और व्रत त्योहार में कुट्टू का आटा भी खूब इस्तेमाल होता है। फाफर को ही आम बोलचाल में कुट्टू कहा जाता है। यह उत्तराखण्ड में पारम्परिक रूप से उगायी जाने वाली फसल है। यह पोलीगानिस परिवार का पौधा है एवं इसकी शुरुआती अवस्था में हरी पत्तियों को सब्जी के रूप में प्रयोग किया जाता है जो कि आयरन से भरपूर होती है तथा इसके बीज को आटा बनाकर व स्थानीय बाजार में स्थानीय विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत नमक व चावल के बदले बेचा जाता है, जिसमें नमक छः गुना व चावल तीन गुना तक मिलता है। उत्तराखण्ड के फुटकर बाजार में भी इसका मूल्य 60 प्रति किलोग्राम से भी ज्यादा है। प्रदेश में ओगल की खेती निम्न ऊँचाई से उच्च ऊँचाई वाले क्षेत्रों में की जाती है, निम्न तथा मध्य ऊँचाई वाले क्षेत्रों में केवल सब्जी उपयोग हेतु इसको उगाया जाता है तथा बीजों को नकदी व अन्य सामग्री के बदले बेचा जाता है। जबकि उच्च ऊँचाई वाले क्षेत्रों में ओगल की ही अन्य प्रजाति जिसको फाफर के नाम से जाना जाता है, को अधिक मात्रा में उगाया जाता है। इसको बड़े व्यापारी घर से ही खरीद कर बड़े बाजारो तक ले जाते हैं।
उत्तराखण्ड के चमोली जिले में घाट ब्लॉक, देवराड़ा, गैरसैंण तथा उत्तरकाशी में बड़े बाजारों से खरीरदार आकर 40 से 50 किलोग्राम की दर से खरीद कर ले जाते हैं। जहां तक विश्व में ओगल उत्पादन की बात की जाय तो रूस सर्वाधिक ओगल उत्पादक देश है जिसमें लगभग 6.5 मिलियन एकड़ में इसकी खेती की जाती है जबकि फ्रांस में 0.9 मिलियन एकड़ में की जाती है। 1970 के दशक तक सोवियत संघ में 4.5 मिलियन एकड़ भूमि पर इसकी खेती की जाती थी। वर्ष 2000 के पश्चात् चीन ओगल उत्पादन में अग्रणी स्थान पर आ गया है। जापान भी चीन से ओगल आयात से उपभोग करता है। वर्तमान में रूस तथा चीन 6.7 लाख टन प्रति वर्ष ओगल के साथ अग्रणी देशो में शुमार है। यद्यपि रूस तथा चीन ओगल उत्पादन में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, साथ ही जापान, कोरिया, इटली, यूरोप तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में भी न्यूट्रास्यूटिकल उद्योग में विभिन्न खाद्य उत्पादों के निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जहाँ तक ओगल फाफर उत्पादन करने की बात की जाय तो यह दोनों बड़ी आसानी से बिना किसी भारी भरकम तकनीकी के कम उपजाऊ व पथरीली भूमि पर उत्पादन देने की क्षमता रखती है। स्थानीय काश्तकार इन्हीं गुणों के कारण ओगल को दूरस्थ खेतों, जहां पर खाद पानी कम होने पर भी उत्पादन लिया जा सके, में उगाते हैं तथा सब्जी व अनाज दोनों रूपों में प्रयोग करते हैं। वर्तमान में कुटटू का आटा तो पौष्टिकता की वजह से अधिक प्रचलन में है। इसकी चौड़ी पत्तियां होने की वजह से कवर क्रॉप के रूप में भी प्रयोग किया जाता है जो कि मिट्टी से वास्पोत्सर्जन रोकने में सहायक होती है तथा खेत में नमी बनाये रखती है। यदि इसकी वैज्ञानिक विश्लेषण की बात की जाय तो इसका बीज ग्लूटीन फ्री होता है जिसकी वजह से सुपाच्य तथा पौष्टिकता से भरपूर अन्य कई खाद्य उत्पादों को बनाने में मुख्य अवयव के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसी वजह से कई महत्वपूर्ण राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय उद्योगों की ओर से इसकी अधिक मांग रहती है। इसकी पत्तियों में आयरन प्रचुर मात्रा में 3.2 मि0ग्रा0 प्रति 100 ग्राम होने की वजह से एनीमिया निवारण के लिये बहुत लाभदायक होता है। इसकी पत्तियों के पाउडर बनाकर आटे में मिलाने से फिनोलिक तथा फाईवर का पूरक के रूप में कार्य करती हैं तथा वजन कम करने व रक्त में निम्न प्लाजमा स्तर को बनाये रखने में सहायक होती हैं।इसके अतिरिक्त कुटटू का आटा लीवर में कोलेस्ट्रोल कम करने में भी सहायक होता है। जो शरीर में इन्सुलिन के विकल्प की तरह कार्य करता है तथा ग्लूकोज स्तर को निम्न बनाने में सहायक होता है। ओगल में रूटीन एंटीआक्सीडेंट भी बेहतर मात्रा में पाया जाता है जिसकी लगभग 85 से 90 प्रतिशत एंटीऑक्सीडेंट एक्टिविटी पायी जाती है जबकि फाफर में रूटीन तथा क्वारक्टीन की मात्रा ओगल से 100 गुना अधिक पायी जाती है जो कि एक बेहतर एंटीऑक्सीडेंट के साथ.साथ ग्लूकोज स्तर को भी नियंत्रित करने में सहायक होता है। शायद इन्ही पोष्टिक गुणों के कारण इसकी अंकुरित अनाज अंतरराष्ट्रीय बाजार में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसमें पॉलिफिनोल की प्रचुर मात्रा होने की बेहतर एंटीऑक्सीडेंट के साथ.साथ पोषक गुणवत्ता युक्त हाइड्रोजिलेट्स उत्पादन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि यह पोष्टिक उत्पादों के साथ.साथ औद्योगिक रूप से एल्कोहल, औषधि एवं पशुचारा के रूप में भी उपयोग किया जाता है। जहां तक इसकी पोष्टिक गुणवत्ता का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाय तो यह उच्च गुणवत्ता युक्त ग्लूटीन फ्री पोषक आहार के साथ.साथ संतुलित अमीनो अम्ल भी प्रदान करता है तथा विटामिन एवं मिनरल्स से भरपूर होता है। उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में इतनी पोष्टिक एवं औद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण फसल जिसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अधिक मांग है, को प्रदेश में व्यवसायिक रूप से उत्पादित कर जीवका उपार्जन का साधन बनाया जा सकता है। उत्तराखण्ड के फुटकर बाजार में भी इसका मूल्य 60 प्रति किलोग्राम से भी ज्यादा है। प्रदेश में ओगल की खेती निम्न ऊँचाई से उच्च ऊँचाई वाले क्षेत्रों में की जाती है, निम्न तथा मध्य ऊँचाई वाले क्षेत्रों में केवल सब्जी उपयोग हेतु इसको उगाया जाता है तथा बीजों को नकदी व अन्य सामग्री के बदले बेचा जाता है। जबकि उच्च ऊँचाई वाले क्षेत्रों में ओगल की ही अन्य प्रजाति जिसको फाफर के नाम से जाना जाता है, को अधिक मात्रा में उगाया जाता है। इसको बड़े व्यापारी घर से ही खरीद कर बड़े बाजारो तक ले जाते हैं। उत्तराखण्ड के चमोली जिले में घाट ब्लॉक, देवराड़ा, गैरसैंण तथा उत्तरकाशी में बड़े बाजारों से खरीरदार आकर 40 से 50 किलोग्राम की दर से खरीद कर ले जाते हैं।जहां तक विश्व में ओगल उत्पादन की बात की जाय तो रूस सर्वाधिक ओगल उत्पादक देश है जिसमें लगभग 6.5 मिलियन एकड़ में इसकी खेती की जाती है जबकि फ्रांस में 0.9 मिलियन एकड़ में की जाती है। 1970 के दशक तक सोवियत संघ में 4.5 मिलियन एकड़ भूमि पर इसकी खेती की जाती थी। वर्ष 2000 के पश्चात् चीन ओगल उत्पादन में अग्रणी स्थान पर आ गया है। जापान भी चीन से ओगल आयात से उपभोग करता है। वर्तमान में रूस तथा चीन 6.7 लाख टन प्रति वर्ष ओगल के साथ अग्रणी देशो में शुमार है। यद्यपि रूस तथा चीन ओगल उत्पादन में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, साथ ही जापान, कोरिया, इटली, यूरोप तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में भी न्यूट्रास्यूटिकल उद्योग में विभिन्न खाद्य उत्पादों के निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।जहाँ तक ओगल/फाफर उत्पादन करने की बात की जाय तो यह दोनों बड़ी आसानी से बिना किसी भारी भरकम तकनीकी के कम उपजाऊ व पथरीली भूमि पर उत्पादन देने की क्षमता रखती है। स्थानीय काश्तकार इन्हीं गुणों के कारण ओगल को दूरस्थ खेतों, जहां पर खाद पानी कम होने पर भी उत्पादन लिया जा सके, में उगाते हैं तथा सब्जी व अनाज दोनों रूपों में प्रयोग करते हैं। वर्तमान में कुटटू का आटा तो पौष्टिकता की वजह से अधिक प्रचलन में है। इसकी चौड़ी पत्तियां होने की वजह से कवर क्रॉप के रूप में भी प्रयोग किया जाता है जो कि मिट्टी से वास्पोत्सर्जन  रोकने में सहायक होती है तथा खेत में नमी बनाये रखती है। उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में इतनी पोष्टिक एवं औद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण फसल जिसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अधिक मांग है, को प्रदेश में व्यवसायिक रूप से उत्पादित कर जीवका उपार्जन का साधन बनाया जा सकता है। *लेखक, के व्यक्तिगत विचार हैं दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।*

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