शंकर सिंह भाटिया
कोरोनाकाल में देश के सामने अभूतपूर्व संकट खड़ा है। देश की अर्थव्यवस्था ध्वस्त होने के कगार पर पहुंच गई है। अर्थव्यवस्था की रीढ़ मजदूर सड़क पर आ गए हैं। इन बद से बदतर हालात को संभालने के लिए प्रधानमंत्री ने 20 लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा की है। इतना बड़ा आर्थिक पैकेज संभवतः देश के इतिहास में पहली बार जारी किया गया है। इसके बावजूद दो विरोधाभाष सामने आ रहे हैं। देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ मजदूर सड़क पर आ गए हैं, वे बदहाल हैं और जिस करोना पर नियंत्रण का दावा सरकारें कर रही हैं, वह अब अचानक बहुत तेज गति से बढ़ने लगा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समय पर लाॅकडाउन का निर्णय लिया, इसलिए देश में चीन, यूरोप तथा अमेरिका जैसे हालात पैदा नहीं हो पाए। केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी, खुद प्रधानमंत्री और तमाम राज्य सरकारें देश में कोरोना नियंत्रण को लेकर ये बातें कहकर खुद अपनी पीठ थपथपा रहे हैं। यदि यूरोप-अमेरिका से भारत की तुलना करेंगे तो पाएंगे कि हालात जरूर बेहतर हैं। लेकिन अचानक अब कोरोना संक्रमण में आई तेजी के लिए जिम्मेदार कौन है? विशेषज्ञ कहते आ रहे हैं कि जून-जुलाई में हालात और खराब होने वाले हैं, तब समय से पहले खुश होना अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने जैसा नहीं होगा?
यहां बीस लाख करोड़ के पैकेज को लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। सत्तारूढ़ पार्टी इसे आज तक का सबसे बड़ा आर्थिक पैकेज बताते हुए खुश हो रही है। लेकिन विपक्ष की समझ में नहीं आ रहा है कि यह पैकेज किस तरह का है। विपक्ष का कहना है कि यह तो ऋण है, पैकेज कहां है? यदि हम मान लें कि सरकार ने अब तक का सबसे बड़ा पैकेज दिया है तो आज की स्थिति में सबसे बड़े संकट में करोड़ों मजदूर पर है। जो लाॅकडाउन के तुरंत बाद सड़कों पर आ गए थे, लेकिन विभिन्न राज्यों की पुलिस ने डंडे के बल पर उन्हें जहां थे, वहीं रोक दिया था। उसके बाद लाॅकडान-3 में कुछ छूट के साथ लोगों को घरों तक जाने की छूट मिली तो करोड़ों मजदूर सड़कों पर आ गए। इसके दो कारण हो सकते हैं, पहला जहां मजदूर काम के लिए गए थे, अब कोरोनाकाल में उन्हें वहां अपना भविष्य सुरक्षित नहीं लग रहा है। दूसरा जिन राज्यों में दूसरे राज्यों के मजदूर रह रहे थे, वहां उन्हें खान पान तक की समुचित व्यवस्था नहीं मिल पा रही थी।
करोड़ों मजदूरों का सड़क पर आ जाना और लगातार हो रही दुर्घटनाओं में उनकी जान जाना आज देश का सबसे बड़ा तात्कालिक संकट है। यदि सरकार वास्तव में गंभीर है तो 20 लाख करोड़ के पैकेज में से सिर्फ एक लाख करोड़ इन मजदूरों को अपने घर पहुंचाने पर खर्च करे। देश में आवागमन के जितने भी संसाधन हैं, रेल, वाहन, बसें तथा दूसरे निजी वाहन जिनका उपयोग इन मजदूरों को ले जाने में सहायक हो सकता है, उन सभी का उपयोग उन्हें घर पहुंचाने के लिए किया जाए। अब यदि मजदूरों को घरों के लिए जाने को कह दिया गया है तो उन्हें इस तरह सड़कों, रेल की पटरियों पर अपने हालात में छोड़ देना सबसे बड़ा अपराध होगा।
कोराना संकट में सबसे बेहतर यही होता कि लाॅकडाउन का कड़ाई से पालन किया जाता। जो जहां है, वहीं रहता तो कोरोना की चेन आसानी से तोड़ी जा सकती थी, जैसा कि पहले चरण में देश करने में सफल हुआ भी है। लेकिन अब हालात हाथ से निकल चुके हैं। अब यदि सड़कों पर उतर आए मजदूरों को लाॅक करने की कोशिश की गई तो हालात ज्यादा खराब हो सकते हैं। अब इन करोड़ों मजदूरों को उनके घर पहुंचाना देश की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। क्योंकि विश्वास बहाली के लिए यह सबसे जरूरी हो गया है। लोग एक बार अपने घर पहुंच जाएंगे, आर्थिक पैकेज से उद्योग पटरी पर आ जाएंगे तो घरों में बेरोजगार मजदूर इनकी जरूरत के मुताबिक फिर से काम पर आ सकते हैं। लेकिन अब इन मजदूरों को रास्ते में रोकना संभव नहीं है। अब उन्हें उनके घरों तक पहुंचाना सबसे बड़ी जरूरत बन गई है। हालांकि इससे एक बार कोरोना की रफ्तार बढ़ेगी, अब इसे कोई रोक नहीं सकता है। इसलिए पैकेज की प्राथमिकता सड़कों, पटरियों पर उतर आए लोगों को घरों तक पहुंचाने की होनी चाहिए। सरकार को पैकेज का सबसे पहला यही उपयोग करना चाहिए। अन्यथा इस पैकेज का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। जिन मजदूरों के दम पर देश की अर्थव्यवस्था खड़ी होने की बात खुद प्रधानमंत्री कह रहे हों, उनके बदहालत से कोई अर्थव्यवस्था फिर से कैसे खड़ी हो सकती है? इससे तो मजदूरों की कमर ही टूट जाएगी, तब वे अर्थव्यवस्था को खड़ी करने में कैसे सहायक हो सकेंगे?