गांवों में कौन कराएगा कोरोना गाइड लाइन का अनुपालन?
शंकर सिंह भाटिया
उत्तराखंड जहां हमेशा प्रवासियों के लिए पलक पावड़े बिछाए जाते रहे हैं, लेकिन कोरोना काल में प्रवासियों और स्थानीय निवासियों के बीच तनातनी पैदा हो गई है। अचानक ही हजारों की संख्या में पहाड़ पहुंचे प्रवासियों को शक की निगाहों से देखा जा रहा है। अपने स्वास्थ्य के लिए चिंतित पहाड़वासी प्रवासियों को कोरोना संक्रमण के वाहक के रूप में देख रहे हैं। प्रशासन की पहाड़ के प्रति हीलावहाली भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है।
उत्तराखंड में पिछले महीनों में हुए पंचायत चुनाव में बड़ी संख्या में युवा प्रधान जीतकर आए हैं। उन्होंने इन महीनों में काफी सक्रियता दिखाई है। कोरोना को लेकर केंद्र तथा राज्य सरकार द्वारा जब गाइड लाइन जारी की गई थी, इन पंचायत प्रतिनिधियों ने इसे हाथों-हाथ लिया था। उन्होंने पहले ही गांव में आने वाले प्रवासियों तथा मेहमानों के लिए शर्तें लागू कर, उनका प्रचार-प्रसार भी शुरू कर दिया था। उसके बाद अचानक प्रवासियों की भीड़ ने पहाड़ की तरफ रुख किया। यह तय है कि देश के विभिन्न नगरों, महानगरों से पहाड़ आने वाले प्रवासियों में कई कोरोना संक्रमण के वाहक हो सकते हैं। जो पहाड़ की शांत वादियों में कोरोना महामारी का कहर बरपा सकते हैं। इसलिए स्थानीय निवासियों खासकर पंचायत प्रतिनिधियों के विरोध को ऐसे ही नहीं नकारा जा सकता है।
केंद्र राज्य सरकारों द्वारा जारी गाइड लाइन के अनुसार किसी भी मोहल्ले, शहर तथा गांव में बाहर से आने वाले लोग, उनके परिजन इसकी सूचना स्थानीय प्रशासन को देंगे। बाहर से आने वाले व्यक्ति को घर में ही 14 दिन के क्वारंटाइन (एकांतवास) में रखा जाएगा। किसी भी तरह के कोरोना के सिमटम पाए जाने पर उनका स्वास्थ्य परीक्षण किया जाएगा। अंतिम रिपोर्ट निगेटिव आने के बाद वह परिवार के साथ संयुक्त रूप से रह सकते हैं। लेकिन पहाड़ से आने वाली रिपोर्ट के अनुसार प्रवासी गांव में एकांतवास में नहीं रह रहे हैं। बल्कि कई लोग लाकडाउन के बावजूद गांव, गलियों में घूम रहे हैं और सामूहिक रूप से क्रिकेट जैसे तमाम खेल खेल रहे हैं।
सवाल उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? इसके लिए जिम्मेदारी गाइड लाइन को न मामने वाले प्रवासियों की है। पहाड़ की तरफ हमेशा लापरवाही से देखने वाला स्थानीय प्रशासन भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है। आज से चार दिन पहले का अखबारों में आया आकड़ा है। करीब 19000 प्रवासी गढ़वाल के पहाड़ी जिलों में आ चुके थे, लेकिन प्रशासन के सिर्फ 20 लोगों को क्वारंटाइन किया था। जबकि इनमें से सैकड़ों लोग विदेश से आए थे।
पहाड़ों में एक प्रवृत्ति रही है, जो व्यक्ति गांव से बाहर चला जाता है, वह अपने को बड़ा समझने लगता है। वह सोचता है कि गांव में रहने वाला दूसरा व्यक्ति जो अब प्रधान बन चुका है, उसे रोकने वाला वह कौन होता है? दूर दराज के गांवों तक प्रशासन की पहुंच न होना और अधिकारियों का दूर दराज के गांवों को गंभीरता से न लेना भी इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है। पंचायत प्रतिनिधि अब सक्रिय हैं, प्रवासियों द्वारा गाइड लाइन का अनुपालन न करने का वे विरोध कर रहे हैं। इसके खिलाफ पंचायत प्रतिनिधि पुलिस तथा प्रशासन को शिकायत कर रहे हैं। मोबाइल की सह उपलब्धता की वजह से सूचना देना भी आसान हो गया है। झगड़े की मूल वजह यही है।
यदि पहाड़ों के इस स्वच्छंद वातावरण में एक भी कोविड-19 संक्रमण का वाहक पहाड़ के गांव में पहुंच गया तो पहाड़ महामारी के गढ़ बन जाएंगे। प्रवासियों का विरोध करने का सवाल नहीं उठता है। प्रवासी यदि इस संकटकाल में अपनी मातृभूमि की शरण में आए हैं तो सभी को शरण देने वाली देवभूमि अपने भूमि पुत्रों को शरण देने से इंकार कैसे कर सकती है? बस मानकों का पालन हो, कोई यदि इस पर सवाल उठाता हो तो इसे प्रतिष्ठा का सवाल नहीं बनाया जाना चाहिए। सबसे बड़ी बात यदि प्रशासन समय से नहीं चेता तो सबकुछ बरबाद हो जाएगा।