डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड को जड़ी बूटी प्रदेश बनाने की कवायद अब ठंडी पड़ती जा रही है। राज्य गठन से पहले उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पैदा हो रही आधा दर्जन जड़ी बूटियां खतरे की जद में आ गई हैं। जंगलों में स्वत: पैदा होने वाली जड़ी बूटियों को तस्कर खत्म कर रहे हैं। नाप भूमि पर हो रही छोटी-मोटी कवायद से ही जड़ी बूटियों का अस्तित्व बचा हुआ है। प्रदेश के पहाड़ी और मैदानी जिलों में जड़ी बूटी पैदा होती हैं, लेकिन उच्च हिमालयी क्षेत्र में पैदा होने वाली जड़ी बूटी किसी अन्य क्षेत्र में तैयार नहीं हो सकती है। करीब दस हजार से अधिक ऊंचाई वाले इलाकों में पैदा होने वाली इन जड़ी बूटियों के लिए हिमपात के साथ ही मौसम में ठंडक जरु री है। राज्य गठन से पहले उच्च हिमालयी क्षेत्र में अच्छी खासी बसासत थी। इन गांवों में रहने वाले लोग तमाम बहुमूल्य जड़ी बूटी पैदा करते थे, लेकिन राज्य गठन के बाद जिस तेजी से पलायन बढ़ा है, इससे उच्च हिमालयी क्षेत्र के कई गांव खाली हो गए है और इसका सीधा असर जड़ी बूटी उत्पादन पर पड़ा है। दूसरा बड़ा कारण उच्च हिमालयी क्षेत्र के बुग्यालों में लगनी वाली आग भी है। पिछले दस वर्षो से जिले के बुग्याल आग की चपेट में आ रहे हैं। आग लगने के पीछे शिकारियों की सक्रियता को भी एक बड़ा कारण माना जाता है। बुग्यालों में आग से भी जड़ी बूटी का उत्पादन सिकुड़ रहा है लेकिन खतरे में आई इन जड़ी बूटियों के विदोहन के लिए अब अनुमति नहीं दी जाती है। इन जड़ी बूटियों को रेड बुक में शामिल कर लिया गया है। हिमालय जितना खूबसूरत है, यहां उतनी ही बेशकीमती जड़ी-बूटियों का खजाना भी छिपा हुआ है. आज भी आयुर्वेद में इलाज के लिए इस्तेमाल होने वाली ज्यादातर दवाएं हिमालय की गोद में ही पैदा हो रही हैं . साल 1998 में की गई एक रिसर्च से पता चला है कि हिमालय में औषधीय गुणों वाली प्रजातियों की संख्या 1,748 है,लेकिन बदलते मौसम, ग्लोबल वार्मिंग के चलते इन जड़ी-बूटियों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है. कई औषधीय जड़ी-बूटी विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी हैं, तो कई अब रेयर लिस्ट में शामिल हैं. रेड लिस्ट में शामिल मीज़ोट्रोपिस पेलिटा, फ्रिटिलोरिया सिरोहोसा और डैक्टाइलोरिज़ा हैटागिरिया मीज़ोट्रोपिस पेलिटा को औषधीय गुणों से भरपूर माना जाता हैं.बेमौसम बारिश और बर्फबारी इन जड़ी-बूटियों की ग्रोथ पर प्रभाव डालती है. वहीं इस बार नंवबर माह में हुई बर्फबारी से जहां वैज्ञानिक यह आशंका जता रहे थे कि इस बार जड़ी-बूटियों की पैदावार अच्छी होगी, वहीं नया साल आते-आते बर्फबारी न होने से एक बार फिर मौसम में परिवर्तन देखने को मिल रहा हैदरअसल अब उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ग्रामीण जड़ी-बूटियों की खेती कर अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं, लेकिन यहां तापमान में हो रही वृद्धि से इन जड़ी-बूटियों की पैदावार पर प्रभाव पड़ रहा है. इनके उत्पादन में कमी देखी जा रही है. वहीं कई ऐसी जड़ी-बूटियां जो विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी हैं. इस बार बर्फबारी, बारिश व ओलावृष्टी से अप्रैल व मई में काफी कम हो गया है. जिससे इन औषधीय पौधों की ग्रोथ धीमी गति से हो रही है। अगर इन जड़ी-बूटियों की ग्रोथ धीमी रहेगी तो बीज बनने की प्रक्रिया भी कम हो जायेगी जिससे इन औषधीय जड़ी बूटियों पर संकट गहरा सकता है. इसका सीधा नुकसान इन जड़ी बूटियों की काश्तकारी करने वाले किसानों को तो होगा ही साथ ही हिमालय की एक बहुमूल्य संपदा भी विलुप्ती की कगार पर पहुंच जाएगी. ग्लोबल वार्मिंग से बदले मौसम चक्र की मार उत्तराखंड में वनस्पतियों पर पड़ रही है. फरवरी, मार्च में खिलने वाला बुरांस का फूल इस बार जनवरी में ही खिल गया है. इसके साथ ही उत्तराखंड में पाई जाने वाली 2 जड़ी बूटियों पर भी बदले मौसम चक्र की मार पड़ने वाली है. जानकार इसको लेकर बहुत चिंतित हैं. कम बर्फबारी के कारण इस वर्ष बुरांस का फूल भी फरवरी, मार्च के बजाय जनवरी माह में खिल गया है. साथ में 26 से अधिक हिमालयी रीजन में पाई जाने वाली जड़ी बूटियों के प्रजनन चक्र पर बुरी तरह प्रभाव पड़ने से इनका अस्तित्व भी संकट में आ गया है. उत्तराखंड का हिमालयी रीजन बड़ा ही सुंदर है. यहां विभिन्न प्रकार की जड़ी बूटियों सहित जैव विविधता पाई जाती है. उत्तराखंड में एक प्यारा सा बुरांस का फूल खिलता है. इस साल बुरांस वक्त से पहले ही जनवरी माह में ही खिल गया है. इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह मौसम में बढ़ी गर्मी है. बारिश और कम बर्फबारी होने के कारण बुरांस का फूल भी वक्त से पहले फरवरी, मार्च के बजाय इस साल जनवरी में ही खिल गया है. वैज्ञानिक इससे चिंता में पड़ गए हैं. मात्र बुरांस ही इस गर्मी का शिकार नहीं हो रहा है. इसके अतिरिक्त भी 26 से अधिक जड़ी बूटियों के भी प्राण संकट में आ गए हैं. इस वर्ष पिछले 6 माह से बारिश नहीं हुई है. हिमालय के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के चलते औषधीय और सुगंधित पौधों की संख्या प्रभावित हुई। औषधीय पौधों की जगह भी प्रभावित हुई है। जबकि कुछ पौधे ऊंचाई की और शिफ्ट हो गए हैं। वह ये भी जोड़ते हैं कि इन औषधीय पौधों की जानकारी भी वहां रह रहे लोगों तक सीमित है। बाहर के लोगों को इसके बारे में बहुत कम पता है। जबकि आयुर्वेद की पारंपरिक चिकित्सा पद्धति को बचाए रखने के लिए जितना इन औषधीय पौधों को बचाना जरूरी है, उतना ही इनके बारे में जानकारी इकट्ठा करना। ये जड़ी-बूटियां जैव-विविधता के संरक्षण के लिए तो जरूरी हैं ही, हिमालयी क्षेत्र में रह रहे लोगों की आजीविका का जरिया भी बन हैं। उत्तराखंड के गढ़वाल हिमालय के तुंगनाथ, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री के अल्पाइन और उप अल्पाइन क्षेत्रों में पाया जाता है. इसका भोजन जड़ी-बूटियां और घास की सैकड़ों प्रजातियां हैं, लेकिन हिमालयी क्षेत्रों में बढ़ रही मानवीय गतिविधियों ने इसका मुंह का स्वाद ही बदलकर रख दिया है. चोपता तुंगनाथ घूमने आने वाले पर्यटक जगह-जगह चिप्स और खाने का अन्य सामान छोड़ देते हैं, जिससे इन चीजों को खाने से इनके व्यवहार में परिवर्तन आ रहा है. *लेखक, के व्यक्तिगत विचार हैं दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।*