शंकर सिंह भाटिया
देहरादून। करीब दो दशक के हो गए उत्तराखंड में एक बार भाजपा सत्ता में होती है तो अगली बार कांग्रेस के हाथों सत्ता होती है। पिछले दो संसदीय चुनावों से यहां की पांचों संसदीय सीटें एक बार भाजपा के पास होती हैं तो अगली बार पांचों पर कांग्रेस का कब्जा हो जाता है। इन दो दशकों में तीसरा विकल्प खड़ा होने के बजाय उसकी संभावनाएं समाप्त होती चली गई हैं। अब तो भाजपा-कांग्रेस के बीच उत्तराखंड में सत्ता की भागीदारी मैच फिक्सिंग की तरह लगने लगी है। भाजपा-कांग्रेस के बीच सत्ता के इस बंदरबांट से जनवादी ताकतें अच्छी तरह वाकिफ हैं, इसलिए कोई विकल्प न देखकर अब ऐसी ताकतें नोटा की शरण में जाने को मजबूर हैं। यही वजह है कि कई संगठन इस समय नोटा का बटन दबाने के लिए अभियान चलाए हुए हैं।
नोटा मतलब इनमें से कोई नहीं, चुनाव आयोग ने यह प्रावधान 2013 से किया है, इससे पहले 17ए के प्रावधान के तहत मतदाता रजिस्टर में किसी भी उम्मीदवार को वोट न देने की घोषणा करता था। अब चुनाव आयोग ने ईवीएम में एक अलग से बटन की व्यवस्था की है। हालांकि यदि नोटा को सबसे अधिक मत पड़ते हैं, तब भी उसके बाद सबसे अधिक मत पाने वाले उम्मीदवार को विजयी घोषित किया जाएगा। कई बार नोटा में पड़े मत जीत हार के समीकरण बदल देते हैं। इस बार तो नोटा के पक्ष में एक तरह से चुनाव प्रचार तक करते हुए कई संगठन देखे गए हैं। गैरसैंण राजधानी अभियान चुनाव के शोरगुल के बीच नोटा की तरफदारी में अभियान चलाए हुए है। महिला मंच भी सोशल मीडिया के जरिये नोटा के पक्ष में वोट करने का आग्रह कर रहा है। नवक्रांति स्वजराज मोर्चा ने भी नोटा के पक्ष में वोट करने की अपील जनता से की है। इसके अतिरिक्त कई अन्य संगठन भी नोटा के पक्ष में लगातार मैदान में उतरे हुए हैं।
हालांकि विभिन्न संगठनों के ये अभियान बहुत अधिक संगठित तौर पर नहीं चलाए गए हैं। प्रत्येक संगठन अपने-अपने तरीके से अपील कर रहा है। लेकिन यह कदम उत्तराखंड में विकल्पहीनता की इस स्थिति में एक संदेश जरूर दे रहा है। यदि स्थिति ऐसी ही रही तो भविष्य में कहीं नोट तीसरा विकल्प बनकर न उभरे। भाजपा-कांग्रेस के लोग इसे वोट की बर्बादी करार दे रहे हैं। वास्तव में वोट की बर्बादी जैसा कोई तर्क होता ही नहीं है। सभी लोग जीतने वाले उम्मीदवार को तो वोट नहीं करते, कम या ज्यादा दूसरे प्रत्याशियों को भी वोट मिलता है, उन्हें मिला हुआ वोट बर्बादी तो नहीं है? इसी तरह से नोटा को भी वोट करना वैधानिक है, इसलिए उसे वोट देना भी वोट की बर्बादी नहीं हो सकती है। नोटा की व्यवस्था ही इसीलिए की गई है कि वोटर को यदि कोई उम्मीदवार पसंद नहीं है, किसी भी उम्मीदवार को यदि वोटर योग्य नही ंसमझता है तो वह नोटा बटन दबाकर अपनी इच्छा जाहिर कर सकता है। इसलिए यह एक प्रजातांत्रिक कृत्य है।
हालांकि कोई सांगठनिक तरीके से नोटा का प्रचार नहीं हुआ है, लेकिन उत्तराखंड के हालात बहुत सारे लोगों को नोटा की तरफ जाने के लिए मजबूर कर रहे हैं। वही दिल्ली के निर्देश पर खड़े किए गए उम्मीदवार, चुन लिए जाने के बाद जनता के प्रति उनकी बेरुखी, अपनी सांसद, विधायक निधि को भी ठीक ढंग से मैनेज न करने तथा विकास कार्यों में लगाने के प्रति कोई रुचि न रखना, निधि में कमीशनखोरी के आरोप, झूठे बयान देकर विकास होने का दावा करना, जनता की समस्याओं के प्रति संवेदनहीन बने रहना, पहाड़ की दुर्दशा पर भी विकास का दावा करना जैसे आम बात हो गई है। इसलिए इन जनप्रतिनिधियों से अधिकांश लोगों को कोई उम्मीद नहीं रह गई है।
इन हालात में देखना यह होगा कि इस बार नोटा को विकल्प मानकर चलने वाले इसे किस तरह विकल्प बनाने में सफल हो पाते हैं? आने वाले समय में क्या यह काम अधिक संगठित तरीके से होगा? इस स्थिति में क्या नोटा जीत हार भी तय करने की स्थिति में होगा?