रिपोर्ट-सत्यपाल नेगी/रुद्रप्रयाग
उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव 2022 अपने आप में अनोखे तरीके से सम्पन्न होते दिखे। इस बार वर्षों पुरानी माँगें, जन मुद्दे किसी भी विधानसभा में हावी नजर नहीं आये।
बात रुद्रप्रयाग जनपद की दोनों विधानसभाओं की करें, यहॉ कांग्रेस.बीजेपी केवल सता पाने तक की होड़ में ही नजर आई। जनपद की दोनों विधानसभाओं में रुद्रप्रयाग में निर्दलीय मातबर कंडारी तो केदारनाथ में निर्दलीय कुलदीप रावत के धनबल के आगे राष्ट्रीय दल कांग्रेस-बीजेपी को भी खूब रूपया, शराब हर घर, हर गाँव तक पहुंचाना पड़ा, क्योंकि निर्दलियों ने बड़े दलों का पसीना निकाल दिया था।
उत्तराखण्ड के चुनाव अब धीरे-धीरे जन मुद्दों से जुड़े ना रहकर, जातिवादी, शराब, धनबल की खरीद फरोक पर थम रहे हैं। इसके लिए दोषी खुद जनता ही नजर आ रही है। विशेषकर युवा वर्ग एवं गरीब तबका।
केदारनाथ में निर्दलीय कुलदीप रावत एक मजबूत प्रत्याशी होने के चलते, राष्ट्रीय दल कॉग्रेस के सीटिंग विधायक मनोज रावत, तो भाजपा की पूर्व विधायक शैलारानी रावत, यानि तीन मजबूत रावतों के बीच भी खूब जातीय समीकरण अंदर ही अंदर चलते नजर आये। लेकिन केदारनाथ विधान सभा के लोग भी चुनावी समय में सालों से चली आ रही जमीनी पीड़ा सुअरों-बन्दरों के आतंक से हो रहे खेती को नुकशान पर मौन रहे, यहॉ भी शराब, रुपया पर ही वोटरों का ध्यान ज्यादा रहा।
वहीं रुद्रप्रयाग विधान सभा मे ंभी इस बार अलग ही रंग देखने को मिला। जानकारों का कहना है कि इस बार बीजेपी के अंदर भी दो गुट नजर आए, वर्तमान विधायक भरत सिह चौधरी जहाँ एक मजबूत प्रत्याशी थे तो वही कॉग्रेस ने ब्राह्मण प्रत्याशी उतर दिया। कॉग्रेस से टिकट ना मिलने से नाराज पूर्व मंत्री मातबर कंडारी के निर्दलीय चुनाव मैदान में आने से भी मुकाबला रौचक हुआ।
यहॉ कुछ राजनीतिक विशेषज्ञ कहते हैं कि इस बार कट्टर भाजपा समर्थक एक तबका वोटिंग के टाइम पाला बदल सकता है। जिससे बीजेपी को नुकशान भी हो सकता है। निर्दलीय कंडारी किसे फायदा पहुचायेंगे यह 10 मार्च को ही पता चलेगा। तब तक दोनों राष्ट्रीय दलों की नींद जरूर उड़ाती रहेगी।
आखिर इस बार के चुनावों में किसी भी दल व प्रत्याशी के पास सालों से पहाड़ी ग्रामीणों की खेती-बागवानी को नुकशान पहुंचा रहे जंगली जानवर सुअर-बन्दरों से ठोस निजात दिलाने की कोई नीति नहीं थी, ना ही आम जनता ने इस मुद्दे को नेताओं के सामने उठाया।
आखिर धनबल, शराब, जातिवाद ने भी जनता को जन मुद्दों से दूर रखने को मजबूर कर दिया। कार्यकर्ता भी अपने निजी स्वार्थ व फायदे को बटोरते नजर आये।
आखिर वही कहावत पहाड़ों में सच साबित हुई दिखी. सब लग्या जुगाड़ मा, जनता जौऊँ भाड़ मा।