डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पिप्पली, वानस्पतिक नाम पाइपर लॉन्ग, पाइपरेसी परिवार का पुष्पीय पौधा है। पीपर यूनान में छठी एवं पाँचवीं शताब्दी के मध्य पहुंची थी। इसका उल्लेख हिपोक्रेटिस ने पहली बार किया और इसे एक मसाले के बजाय एक औषधि के रूप में किया था। यूनानियों एवं रोमवासियों में अमरीकी महाद्वीपों की खोज से पूर्व ही पीपरी एक महत्त्वपूर्ण एवं सर्वज्ञात मसाला था, गर्म एवं आर्द्र जलवायु उत्तम है, तराई क्षेत्र फसल के लिए उत्तम है। पर्वतीय क्षेत्रों में 3000 फीट तक उगाई जा सकती है।
पिप्पली की खेती बीज अथवा कटिंग लगाकर की जा सकती है। कटिंग को मार्च.अप्रैल में पाॅलीथीन की थैली में लगाया जाता है। मई तक जड़ तथा पत्तियां आ जाती है। इस प्रकार तैयार किये गये पौंधों को खेत में 60×60 सेमीण् की दूरी पर गड्डे बनाकर रोपित किया जाता है। एक गड्डे में दो पौंधे लगाना चाहिए। पिप्पली की लतायें 3 वर्ष तक उसी खेत में रहती हैं। रोपण के 6 माह बाद पुष्पगुच्छक आने लगते हैं। जब फल काले हो जायें तो उन्हें तोड़कर 4.5 दिन धूप में सुखाना चाहिए। फल वर्ष में 3.4 बार तोड़े जाते हैं। तीसरे वर्ष फल तोड़ने के बाद इसकी जड़ों एवं तने को भी उखाड़ कर बेचा जाता है। इसकी खेती इसके फल के लिये की जाती है। इस फल को सुखाकर मसालेए छौंक एवं औदषधीय गुणों के लिये आयुर्वेद में प्रयोग किया जाता है। इसका स्वाद अपने परिवार के ही एक सदस्य काली मिर्च जैसा ही किन्तु उससे अधिक तीखा होता है। इस परिवार के अन्य सदस्यों में दक्षिणी या सफ़ेद मिर्च, गोल मिर्च एवं ग्रीन पैपर भी हैं। इनके लिये अंग्रेज़ी शब्द पैपर इनके संस्कृत एवं तमिल मलयाली नाम पिप्पली से ही लिया गया है। विभिन्न भाषाओं में इसके नाम इस प्रकार से हैं, संस्कृत पिप्पली, हिन्दी. पीपर, पीपल, मराठी. पिपल, गुजराती. पीपर, बांग्ला. पिपुल, तेलुगू. पिप्पलु, तिप्पली, फारसी. फिलफिल। अंग्रेज़ी. लांग पीपर, लैटिन. पाइपर लांगम।
पिप्पली के फल कई छोटे फलों से मिल कर बना होता है, जिनमें से हरेक एक खसखस के दाने के बराबर होता है। ये सभी मिलकर एक हेज़ल वृक्ष की तरह दिखने वाले आकार में जुड़े रहते हैं। इस फल में ऍल्कलॉयड पाइपराइन होता है, जो इसे इसका तीखापन देता है। इसकी अन्य प्रजातियाँ जावा एवं इण्डोनेशिया में पायी जाती हैं। इसमें सुगन्धित तेल ;0.७ प्रतिशत पाइपराइन ४.५ प्रतिशत तथा पिपलार्टिन नामक क्षाराभ पाए जाते हैं। इनके अतिरिक्त दो नए तरल क्षाराभ सिसेमिन और पिपलास्टिरॉल जड़ जिसे पीपला मूल भी कहा गया है। पाइपरिन ;०.१५.०.१८ प्रतिशत पिपलार्टिन ;०.१३.०.२० प्रतिशत पाइपरलौंगुमिनिन, एक स्टिरॉएड तथा ग्लाइकोसाइड से युक्त होती है।
रोग प्रतिरोधक क्षमता वृद्धि हेतु अश्वगंधा, गिलोय, मुलेठी, पिप्पली आदि रसायन द्रव्यों के उपयोग की गाइडलाइन जारी की है। कोरोना संक्रमण से बचाव और रोग प्रतिरोधक क्षमता में बढ़ोत्तरी के लिए है। चम्पावत हाल ही में वन्य जीवों से खेती की सुरक्षा योजना लागू की है। वर्तमान में आंवला, हरण, बहड़, जामुन, सतावर, गिलोई, बीजा, साल, सहजन, पीपली, वन गेठी, पाषाण भेद, बांस, रीठा आदि पौधे यहां उगाए जा रहे हैं। ऐसे पौधों की बाजार में मांग भी आज ठीक है। यह प्रजातियां फसलों को बचाने के साथ स्वरोजगार भी प्रदान करेंगी।
रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए त्रिकुट पीपली, मरीच और शुंठी पाउडर का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। पिप्पली की फसल से पिप्पली के फलों की बिक्री से प्रथम वर्ष में लगभग 50,000 रू0 तथा तीसरे से पांचवें वर्ष में लगभग 75,000 रू0 प्रति एकड़ की प्राप्तियां होती हैं। पांचवें वर्ष में पिप्पलामूल की बिक्री से लगभग 30000 रू0 की अतिरिक्त प्राप्तियां भी होती हैं। इसमें से फसल पर होने वाले खर्चे को कम करके देखा जाए तो पिप्पली की फसल से प्रथम एवं द्वितीय वर्ष में क्रमशः 28,000 एवं 44,400 रू0, तीसरे तथा चौथे वर्ष में 68,000 एवं 69,300 रू0 तथा पांचवें वर्ष में 94,300 रू0 का शुद्ध लाभ प्रति एकड़ प्राप्त होता है। उपरोक्तानुसार देखा जा सकता है कि पिप्पली काफी लाभकारी फसल है।
विशेष रूप से इसके बहुआयामी उपयोगों.मसालें, औषधीय एवं औद्योगिक उपयोगों को देखते हुए एक व्यवसायिक फसल के रूप में पिप्पली काफी लाभकारी फसल सिद्ध हो सकती है। इसके साथ.साथ क्योंकि यह फसल इंटरक्रापिंग की दृष्टि से भी काफी उपयोगी फसल है, अतः इसके साथ विभिन्न औषधीय फसलें लेकर इसकी व्यवसायिक उपयोगिता और भी अधिक बढ़ाई जा सकती है। राज्य के उत्तरी भाग में इसकी खेती आसानी से की जा सकती है। गज पिप्पली की अच्छी बढ़वार राज्य के दक्षिणी भाग में भी देखा गया है। आर्थिक क्षेत्र में भारत को एक नया मॉडल अपनाने की आवश्यकता है। यह मॉडल अपनी प्रकृति में देशज और स्थानिक होगा। यह सत्य है कि कोरोना संकट ने भारत के सामने अपनी अर्थव्यवस्था के व्यापक विकास और अंतरराष्ट्रीय विस्तार का ऐतिहासिक अवसर उपलब्ध कराया है। इस संकट के फलस्वरूप विश्व बिरादरी में चीन की साख में जबरदस्त गिरावट आई है।
अमेरिका से लेकर यूरोपीय और अफ्रीकी देशों में भारत की विश्वसनीयता बढ़ी है। यह बढ़ी हुई विश्वसनीयता कोरोना संकट से निपटने में भारत द्वारा प्रदर्शित अभूतपूर्व क्षमता और अंतरराष्ट्रीय सहयोग और समन्वय के लिए की गई उसकी पहल की परिणति है। इस समय भारत को भौतिक विकास की जगह वैकल्पिक सभ्यता के विकास को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति भौतिकतावादी कभी नहीं रही। वास्तव में वह मानव मूल्यवादी आध्यात्मिक संस्कृति है। भारत को फिर से अपनी जड़ों की ओर लौटते हुए विकास का एक वैकल्पिक मॉडल विश्व के सामने रखना चाहिए। अहम सवाल यह भी है कि सरकार के फैसलों और नीति.निर्धारण में भागीदारी करने वाले हमारे सांसदों को सरकार के फैसलों और नीतियों को अधिक जनपक्षीय बनाने पर जोर देना चाहिए या किसी खास गांव पर अपना ध्यान केंद्रित करने पर दरअसल गांवों को एक हद तक आत्मनिर्भर बनाकर, गांव के लोगों के लिए रोजी.रोजगार के साधन मुहैया कराकर ही गांवों का विकास संभव है। ऐसी व्यवस्था के बगैर गांवों की तस्वीर में कभी कोई मुकम्मल बदलाव नहीं हो सकता। जो भी बदलाव होगा, उसके भी टिकाऊ होने की कल्पना नहीं की जा सकती।












