डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
हिंदू धर्म में पितृ पक्ष का काफी महत्व है. भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से शुरू होने वाला पितृ पक्ष अश्विनी माह की कृष्ण पक्ष की अमावस्या तक माने जाते हैं. इस दौरान पितरों का श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है और उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है. मान्यता है कि पितृ पक्ष के दौरान तीन पीढ़ियों के पितरों का श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है. इन तीन पीढ़ियों की आत्मा मृत्यु के बाद स्वर्ग और पृथ्वी के बीच पितृ लोक में ही रहती हैं और पितृ पक्ष के दौरान पृथ्वी पर आती है.पितरों के निमित्त श्रद्धापूर्वक किये जाने वाला कर्म ही श्राद्ध है. दरअसल पितर ही हमें इस धरती पर लाये, हमारा पालन पोषण किया और हमें अपने पांवों पर खड़े होने के लिए समर्थ किया. लेकिन उनसे ऊपर भी हमारे ऋषि थे, जो हमारे आदिपुरूष रहे और जिनके नाम पर हमारे गोत्र चले तथा उन ऋषियों के शीर्ष में देवता. देवऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए ही श्राद्ध की परम्परा शुरू हुई. हालांकि जितना उपकार इनका हमारे प्रति है उस ऋण से उऋण होना तो संभव नहीं और नहीं ऋण का मूल चुका पाना संभव है, श्राद्ध के निमित्त सूद ही चुका दें तो हम अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर सकते हैं. जिसने हमारे लिए इतना सब किया, उनके इस दुनियां से चले जाने के बाद उनके प्रति श्रद्धा एवं सम्मान देकर कृतज्ञता व्यक्त करना हमारा नैतिक दायित्व बनता है. यों तो श्रद्धाभाव से पितरों को स्वयं पिण्ड अर्पित कर तथा उन्हें तिलांजलि देकर भी श्रद्धा व्यक्त की जा सकती है, लेकिन सनातन धर्म में कर्मकाण्डी विधि से तर्पण एवं पिण्ड दान की विधिवत् व्यवस्था की गयी है. जिसमें देवताओं के स्वरूप विश्वेदेवाः (दस देवताओं के समूह) का तर्पण उसके बाद ऋषियों और अन्त में पितरों को तर्पण देकर उनका श्रद्धा से स्मरण किया जाता है, जिसमें पिता, पितामह, प्रपितामह, माता, मातामह, प्रमातामह तथा ननिहाल प़क्ष के भी पिछले तीन पीढ़ियों का सगोत्र नामोच्चार कर तिलांजलि अर्पित की जाती है. ऐसी मान्यता है कि जन्मान्तर में वे जिस योनि में चले गये हों, उनके पास उसी रूप में वह उनके भोज्य पदार्थ के रूप में पहुंचती है. यह भी मान्यता है कि पितर कौवे के रूप में श्राद्ध में अर्पित भोजन को ग्रहण करते हैं.यों तो श्राद्धों के कई प्रकार बताये गये हैं, लेकिन हमारे पर्वतीय क्षेत्र में मुख्यतः 5 प्रकार के श्राद्ध किये जाते हैं, जिनमें पिण्डदान एवं तर्पण से पितरों को तृप्त करने की बात कही गयी है. मृत्यु के ग्यारहवे दिन प्रेतात्मा को कुल के अन्य पितरों के साथ मिलाने के लिए सपिण्डन श्राद्ध, मृत्यु के एक वर्ष बाद मृत्यु की तिथि पर वार्षिक श्राद्ध, मुृत्यु की चन्द्र तिथि को प्रतिवर्ष किये जाने वाला एकोदिष्ट श्राद्ध तथा महालय अथवा आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावास्या पर्यन्त निश्चित तिथि को पार्वण श्राद्ध. जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि एकोदिष्ट श्राद्ध (एक को उद्देश्य मानकर) में किसी पितर विशेष के निमित्त श्राद्ध किया जाता जब कि पार्वण श्राद्ध में उन सभी के पितरों का श्राद्ध का पर्व है, जो पितृपक्ष में आशा के साथ अपने वंशजों द्वारा किये गये तर्पण एवं श्राद्ध भोज के लिए पितृ लोक से धरती पर तृप्त होने के लिए आते हैं. पितरों के पर्व (पितृपर्व) से ही पार्वण शब्द बना है. गौर करने वाली बात ये है कि श्राद्ध कर्म में पितरों को दिया जाने वाला तर्पण व भोजन पितरों को पहुंचता है या नहीं, इसका हमारे पास कोई प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, यह आस्था का विषय है और आस्था को प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं. लेकिन इसका इतर पक्ष देखें तो सनातनी संस्कृति में श्राद्ध के नाम पर अपने पितरों को याद करने का यह उपक्रम कितना व्यावहारिक है? यदि श्राद्ध जैसे पितृपर्वों की व्यवस्था न होती तो शायद आज की व्यस्त जिन्दगी में हम उनको कुछ ही काल के अन्तराल में भूल चुके होते और बहुत संभव है कि कई लोगों को तो अपने पितामह, प्रपितामह, मातामह और प्रमातामह का नाम तक पता न होता. श्राद्ध के बहाने में कम से कम वर्ष में दो बार एकोदिष्ट एवं पार्वण श्राद्ध तथा किसी भी शुभ कार्य में नान्दी श्राद्ध के मौके पर उनको याद तो कर लेते हैं, उनसे प्रेरणा लेने एवं अपनी श्रद्धा व्यक्त करने का अवसर तो मिलता है. धन्य है, सनातनी संस्कृति की परम्पराऐं जो धार्मिक आस्थाओं के साथ व्यावहारिक जगत के लिए भी उतनी ही उपयोगी हैं. आश्विन मास में पड़ने वाला श्राद्ध पक्ष पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का पर्व है। साल में एक वक्त ऐसा भी आता है जब गत पूर्वज स्वर्ग से उतर पृथ्वी पर आते हैं। यह वक्त आता है महालया श्राद्ध पक्ष में। मान्यता है कि इस पक्ष में पूर्वज धरा पर सूक्ष्म रूप में निवास करते हैं। साथ ही अपने संबंधियों से तर्पण व पिंडदान प्राप्त कर उन्हें सुख- समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं। महालया पक्ष में पिंडदान व श्राद्धकर्म का विशेष महत्व है। पितृ पक्ष के सोलह श्राद्धों का धार्मिक ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक महत्व भी है।भाद्र मास की पूर्णिमा से पितृ पक्ष शुरू होता है, जो आश्रि्वन मास की अमावस्या तक चलता है। इस अवधि में सोलह श्राद्ध होते हैं। जिसे महालया श्राद्ध के नाम से जाना जाता है। इसमें गत पूर्वजों की मृत्यु तिथि के अनुसार श्राद्ध किया जाता है। यदि किसी कारणवश कोई श्राद्ध कर्ता अपने पूर्वज का श्राद्ध करना भूल जाता है तो ऐसी स्थिति में आश्रि्वन मास की अमावस्या अर्थात श्राद्ध के आखिरी दिन श्राद्ध करने का विधान निर्णय सिंधु में दिया गया है। भाद्र मास की पूर्णिमा से आश्रि्वन अमावस्या तक पृथ्वीवासी अपने पूर्वजों की सेवा कर उनके निमित्त तर्पण व श्राद्ध करते हैं। शास्त्रों में मनुष्य पर तीन ऋण बताए गए हैं, जिसमें पितृ, देव व ऋषि ऋण शामिल हैं। इसमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। जहां पितृ पक्ष में पिंडदान व तर्पण का विशेष महत्व है, वहीं पितृ पक्ष का वैज्ञानिक रहस्य भी है। ज्योतिषाचार्यो के अनुसार पितृ पक्ष के दौरान पृथ्वी सूर्यमंडल के निकट रहती है। इसलिए श्राद्धकर्ताओं द्वारा किए गए सभी तर्पण आदि सर्वप्रथम सूर्यमंडल पर पहुंचते हैं। आश्रि्वन मास के आखिरी श्राद्ध के दिन पूर्वजों का तर्पण आदि कर उन्हें विविध व्यंजनों की पातली परोसी जाती है। इसे पितृ विसर्जन के नाम से भी जाना जाता है। श्राद्ध पक्ष पितरों के प्रति श्रद्धा के साथ ही जीवन में गौ सेवा का भी बोध कराता है। शास्त्रों में गौ में सभी देवताओं का वास माना गया है। इसलिए श्राद्ध के बाद उसे गौ ग्रास दिया जाता है। इससे पितर तृप्त होते हैं। इसके अलावा कौए के लिए भी पत्ते में भोजन परोस इसे घर के बाहर रख दिया जाता है। यह पर्व जीवों के प्रति कर्तव्यों का बोध कराता है। श्राद्ध पक्ष में तन व मन की शुद्धि का भी विशेष ध्यान रखा जाता है। श्राद्ध के पहले रोज हबीक(श्राद्धकर्ता का व्रत) करने का विधान है, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से पेट के लिए खास लाभकारी है। शरीर में प्राणवायु का विकास होता है तथा तन व मन शुद्ध बना रहता है। लोग पितरों के तर्पण के लिए गया धाम जाते हैं तो तीर्थ पुरोहितों का कहना है कि पहला पिंडदान प्रयागराज में होता है. पितृ मुक्ति का प्रथम व मुख्य द्वार कहे जाने की वजह से संगम नगरी में पिंडदान और श्राद्ध का विशेष महत्व है. यही वजह है कि पितृ पक्ष में बड़ी संख्या में श्रद्धालु संगम में आकर पुरखों का तर्पण और पिंडदान करते हैं. मनोवैज्ञानिक स्तर पर, श्राद्ध की प्रथा जीवित परिवार के सदस्यों को मृतक रिश्तेदारों से जुड़ाव और आत्मीयता का एहसास दिलाती है। यह पूर्वजों को याद करने और उनका सम्मान करने का एक तरीका है, जिससे पारिवारिक परंपराओं में उनकी स्मृतियाँ जीवित रहती हैं। उत्तराखंड में बदरीनाथ के ब्रह्मकपाल के बाद एक और स्थान ऐसा है, जिसका महत्व श्राद्ध पक्ष में काफी बढ़ जाता है. यह स्थान उत्तराखंड के टिहरी जिले में स्थित भागीरथी और अलकनंदा का संगम स्थल देवप्रयाग है. इस स्थान पर न केवल भारत बल्कि, अन्य देशों के लोग भी अपने पूर्वजों को याद करने के लिए आते हैं.
खासकर पड़ोसी देश नेपाल से सबसे ज्यादा लोग यहां पर अपने पूर्वजों का श्राद्ध तर्पण आदि करने के लिए पहुंचते हैं. यह स्थान ऋषिकेश-बदरीनाथ हाईवे पर ही स्थित है. जहां भागीरथी और अलकनंदा आपस में मिलकर गंगा बनाती है. इस जगह पर दोनों नदियों का संगम हर किसी का मन मोह लेता है.दोनों ही नदियों की धाराओं का रंग अलग-अलग नजर आता है. यहीं से गंगा बनती है. जो उत्तराखंड से लेकर बंगाल की खाड़ी तक लोगों के लिए जीवनदायिनी बनती है. माना जाता है कि इस स्थान पर भी पांडवों ने अपने पूर्वजों का श्राद्ध तर्पण आदि किया था. *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*