शंकर सिंह भाटिया
देहरादून। कर्नल अजय कोठियाल पौड़ी लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने की एक साल पहले की गई अपनी घोषणा से पीछे हट गए हैं। सैन्य बहुल इस लोक सभा सीट पर इस बार कोई सैन्य पृष्ठभूमि वाला उम्मीदवार चुनाव मैदान में नहीं है। कर्नल कोठियाल के चुनाव लड़ने की स्थिति में इसका सबसे अधिक नुकसान भाजपा को होने की संभावना जताई जा रही थी। कर्नल कोठियाल भाजपा की धमकी से डरकर पीछे हटे हैं? या फिर निर्दलीय चुनाव लड़ने की स्थिति में चैदह विधानसभा सीटों वाले इस संसदीय क्षेत्र में राष्ट्रीय पार्टियों के मुकाबले धन बल, जन बल और चुनाव की तैयारी में पीछे रह जाने की संभावनाओं को देखते हुए उन्होंने मौके के अनुसार एक व्यवहारिक निर्णय लिया?
भाजपा से टिकट न मिलने की स्थिति में कर्नल कोठियाल निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे? किसी क्षेत्रीय पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ेंगे या फिर चुनाव लड़ने से पीछे हट जाएंगे? इन बातों को लेकर कई तरह के कयास लगाए जा रहे थे। इस बीच उनके लोगों के जरिये 23 मार्च को 11.30 बजे सुबह देहरादून प्रेस क्लब में प्रेस वार्ता के संदेश आने लगे, लेकिन उनकी कोई प्रेस वार्ता नहीं हो पाई। इसके स्थान पर 24 मार्च को वह प्रेस के सामने आए। इस घटनाक्रम के बाद कई लोग संदेह उठा रहे थे कि उन पर भाजपा का दबाव था। इसे लेकर मीडिया में कई तरह की बातें चलती रही। कुछ उन पर राष्ट्रीय दलों के प्रलोभन में आने का आरोप लगा रहे थे, तो कुछ का कहना था कि केदारनाथ निर्माण कार्य में फाइल खोलने की धमकी देकर भाजपा ने उन्हें चुनाव लड़ने से रोक दिया। प्रेस वार्ता में कर्नल कोठियाल की तरफ से केदारनाथ की फाइल खोलने वाली बात भी सामने आई, दूसरी तरफ उन्होंने यह भी कहा कि राजनीति उनकी समझ में आज भी नहीं आती। यह स्वाभाविक सवाल उठता है कि यदि उनकी समझ में राजनीति नहीं आती तो पिछले एक साल से वह राजनीतिक घोड़े पर सवार होने की तैयारी क्यों कर रहे थे? जिसके लिए उन्होंने अपने सैनिक अफसर के कैरियर को भी दांव पर लगा दिया। संभवतः उन्हें आस थी कि भाजपा में उन्हें हाथों-हाथ ले लिया जाएगा। इसी क्रम में वह संघ प्रमुख मोहन भागवत से लेकर भाजपा के कई अनुसांगिक संगठनों के बुलावे पर उनके कार्यक्रमों में भी शामिल होते रहे थे। सच में उन्हें राजनीति की उतनी समझ नहीं थी, इसलिए ऐन वक्त पर टिकट देने के बजाय भाजपा नेताओं ने उन्हें पंचायत स्तर का बता दिया।
संभवतः इसी तरह की बातों ने उन्हें चोट पहुंचाई होगी, जब उन्होंने किसी राष्ट्रीय दल के टिकट पर आगे चुनाव न लड़ने का ऐलान किया और अगली बार इन दलों से इतर क्षेत्रीय ताकत खड़ी कर चुनाव मैदान में जाने की बात कही। वास्तव में उत्तराखंड में इन दोनों राष्ट्रीय दलों के मुकाबले एक क्षेत्रीय ताकत को खड़ा करने की जरूरत राज्य गठन के समय से ही महसूस की जा रही है। हर बार जब विधानसभा चुनाव निकट होते हैं, कुछ लोग क्षेत्रीय दलों को एकजुट करने की कवायद करते हुए दिखाई देते हैं, लेकिन चुनाव समाप्त होते ही सारी कवायदें खत्म हो जाती हैं। उत्तराखंड में क्षेत्रीय दलों के प्रभाव को समाप्त करने में भाजपा-कांग्रेस ने हमेशा एकजुटता दिखाई है। इन दलों से इतर यदि ऐसा कोई व्यक्ति उभरता है तो ये मिलकर उसे इस कदर बदनाम कर देते हैं कि उस पर लोग अंगुलियां उठाने लगते हैं। एक झूठ को बार-बार दोहराकर उसे सच साबित करने वाली उनकी नीति ऐसे मामलों में खूब कारगर साबित होती है।
उत्तराखंड में यदि क्षेत्रीय दलों का बुरा हाल है तो इसके पीछे इन दोनों दलों की राजनीति काम करती है। साम, दाम, दंड, भेद सभी रास्ते अपनाकर किसी ऐसे दल या ताकत को समाप्त करना इनका पहला लक्ष्य रहता है। उत्तराखंड जैसे राज्य में भाजपा-कांग्रेस को इसका फायदा भी हुआ है। यहां एक बार भाजपा सत्ता में आती है, अगली बार सत्ता कांग्रेस के हाथ में होती है। निष्कंटक होकर उत्तराखंड पर दोनों दल राज कर रहे हैं। सत्ता हस्तांतरण की इस राजनीति का राज्य की जनता को गंभीर नुकसान उठाना पड़ रहा है तो इन दलों के लिए यह फायदे का सौदा है। तीसरी ताकत के वजूद में होने की स्थिति में दोनों राष्ट्रीय दलों को सत्ता से खेलने का ऐसा बेहतर अवसर नहीं मिल सकता था।
तीसरी ताकत का मौजूद न होना सीधे तौर उत्तराखंड के विकास से भी जुड़ा हुआ है। जिस पहाड़ के विकास के लिए राज्य की मांग उठी थी, वही पहाड़ राज्य बनने के बाद इन सालों में जर्जरहाल होता जा रहा है। इसके लिए इन दोनों दलों की राजनीति पूरी तरह से जिम्मेदार है। सन् 2006 में हुए विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों के परिसीमन के बाद सत्ता संतुलन 87 प्रतिशत भूभाग वाले पहाड़ के हाथ से खिसककर 13 प्रतिशत से भी कम भौगोलिक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले मैदानी क्षेत्र के हाथों में चला गया है। यह सब भाजपा तथा कांग्रेस की सहमति और मेहरबानी से हुआ है। पहाड़ की दुर्दशा हो रही है, लेकिन इस पर चिल्लाने वाला भी कोई नहीं है। इन हालात में भी पहाड़ से कांग्रेस तथा भाजपा के लोग ही चुनकर आते हैं, इसलिए किसी और के बोलने का अधिकार ही समाप्त हो जाता है, यदि कोई बोलता भी है तो वह नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रहा जाता है। पर्वतीय राज्य की राजधानी पहाड़ में क्यों नहीं है? पहाड़ से चुने गए भाजपा कांग्रेस के लोग पहाड़ की आवाज क्यों नहीं उठाते? सत्ता संतुलन में मैदान को बढ़त दिलाने वाले इन पार्टियों के हाईकमान के सामने इन चुने गए प्रतिनिधियों की बोलने की हिम्मत है? इसलिए पहाड़ जर्जर है, इन दोनों के अलावा वहां कोई तीसरा नहीं है। यदि कोई क्षेत्रीय ताकत खड़ी होती है तो इन दोनों दलों का भंडा फूटता है। इस स्थिति में यह भी संभव है कि इन दोनों दलों के हाथ से हमेशा के लिए सत्ता छिन सकती है। इसलिए ऐसी किसी ताकत को उबरने न देना इनकी पहली प्राथमिकता है। इसलिए ये दोनों दल मिलकर किसी उभरती क्षेत्रीय ताकत को सबसे पहले निपटाते हैं। यूकेडी समेत तमाम क्षेत्रीय ताकतें इसी जद्दोजहद में अपने वजूद को समाप्त करने की कगार तक पहुंच गए हैं। इसलिए उत्तराखंड में ऐसे किसी व्यक्तित्व का बेसब्री से इंतजार हो रहा है, जिस पर इस राज्य के युवा, महिलाएं, पूर्व सैनिक और आम आदमी विश्वास करते हों। लेकिन उसे सतर्क रहना होगा कि उसकी विश्वसनीयता को भाजपा-कांग्रेस सरे बाजार कब नीलाम कर दें, कहा नहीं जा सकता है।
यदि केदारनाथ की फाइल में ऐसा कुछ है, जिससे कर्नल कोठियाल को लपेटा जा सकता है तो क्षेत्रीय ताकतों को एकजुट करने की उनकी मुहिम की राह में यह भाजपा-कांग्रेस के लिए एक अच्छा हथियार साबित हो सकता है। इसलिए उन्हें ऐसी किसी मुहिम को शुरू करने से पहले इनके आक्रमण को झेलने में अपने आप को सक्षम बनाना होगा।
कर्नल कोठियाल पर युवाओं का भरोसा है, इसलिए युवाओं के भरोसे क्षेत्रीय ताकतों को एकजुट करने की मुहिम का वह नेतृत्व कर सकते हैं। अन्यथा उत्तराखंड में मौजूद क्षेत्रीय ताकतों के साथ युवा जुड़ने से झिझकने लगे हैं। राष्ट्रीय दलों की नकारात्मक राजनीति की काट युवाओं, महिलाओं तथा आम लोगों को साथ लेकर ही संभव है। सन् 2022 के चुनाव आने में अभी तीन साल का वक्त बाकी है। अभी से इस मुहिम में जुटा जाए तो झूठ पर खड़े इन राष्ट्रीय दलों के तिलिस्म को आसानी से तोड़ा जा सकता है। झूठ और फरेब पर टिका यह तिलिस्म टूटेगा तभी पहाड़ का विकास संभव हो सकेगा।