डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला:
लंबे संघर्ष और हजारों के बलिदान के बाद उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ। राज्य गठन के बाद लोगों को लगा कि अब उनका भी जीवन स्तर सुधरेगा। गरीबी के दलदल से निकलेंगे, बुनियादी सुविधाएं भी बेहतर होंगी। लेकिन हो इसके ठीक विपरीत हो रहा है। सूबे के अस्तित्व में आने के बाद से जनप्रतिनिधियों की संपत्ति में तो खूब इजाफा हुआ, लेकिन जनता मुफलिसी के दलदल में ही फंसी रही। नीति आयोग की रिपोर्ट 2021 के मुताबिक राज्य की करीब 17.87 लाख की आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है।
रिपोर्ट में सूबे का सबसे गरीब जिला अल्मोड़ा को बताया गया है। जहां 25.65 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बशर कर रही है। अल्मोड़ा समेत उत्तराखंड के छह जिले ऐसे हैं, जिनका गरीबी सूचकांक 20 प्रतिशत से भी अधिक है। यानि इन छह जिलों का गरीबी सूचकांक राज्य के औसत सूचकांक से भी अधिक है। कुमाऊं के अल्मोड़ा, बागेश्वर, चम्पावत, ऊधमसिंह नगर और गढ़वाल मंडल के हरिद्वार, उत्तरकाशी जिले की 20 प्रतिशत आबादी गरीब है। उत्तराखंड में चुनावी बिगुल बज चुका है।
उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया अंतिम चरण में है। हर चुनाव की तरह इस चुनाव में भी दल और दावेदार लोक लुभावन वादों के साथ जनता के दर पर हैं। वाेट के लिए लोगों को रिझाने की हर कोशिश कर रहे हैं। वादों की झड़ी लगा रहे हैं लेकिन अतीत खोखले वादों का गवाह है। सूबे में नेताओं की संपत्ति तो बेतहाशा बढ़ी लेकिन जनता कंगाल होती चली गई। एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिपोर्ट के मुताबिक 2012 के विधानसभा चुनाव में 143 प्रत्याशी करोड़पति थे वहीं बीते चुनाव में 195 उम्मीदार करोड़पति थे।
2012 में 30 विजयी प्रत्याशी करोड़पति थे, जबकि बीते चुनाव में 46 विजयी प्रत्याशी करोड़पति थे। यानी कुल विजयी प्रत्याशियों के मुकाबले 71 प्रतिशत उम्मीदवार करोड़पति हैं। 25 प्रतिशत से अधिक गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले अल्मोड़ा जिले की कुल छह विधानसभा सीटों सिर्फ एक को छोड़कर पांच विधायक करोड़पति हैं।
जिनमें सोमेश्वर विधायक की संपत्ति सर्वाधिक 12 करोड़ से अधिक दर्शाई गई है। 11 विधानसभा सीटों वालों हरिद्वार जिले में नौ विधायक करोड़पति हैं। जिनमें से मंगलोर के विधायक की संपत्ति 21 करोड़ से अधिक है। तीन विधासभा सीटों वाले उत्तरकाशी जिले में दो विधायक करोड़पति हैं। वहीं नौ विधानसभा सीटों वाले ऊधमसिंहनगर जिले में पांच विधायक करोड़पति हैं। जिनमें किच्छा विधायक की संपत्ति 25 करोड़ से अधिक दशाई गई है। दो विधानसभा सीटों वाले चंपावत जिले में दोनों विधायक करोड़पति हैं।
दो विधानसभ सीटों वाले बागेश्वर जिले में दोनों विधायक लखपती हैं। सूबे में कुल 65 विधायकों के सापेक्ष 46 विधायक करोड़पति हैं। इनमें भाजपा के 54 विधायकों में से 37 और कांग्रेस के नौ में से आठ और दो निर्दलीय में से एक विधायक शामिल हैं। सर्वाधिक संपत्ति वाले विधायकों की सूची में टॉप पर मौजूदा काबीना मंत्री और चौबट्टाखाल के विधायक हैं।
एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक की 80 करोड़ रुपये से अधिक की संपति के मालिक हैं। काशीपुर निवासी आरटीआई एक्टीविस्ट नदीम उद्दीन ने उत्तराखंड के ग्राम्य विकास आयुक्त कार्यालय से 2017 से सितंबर 2021 तक कुल विधायक निधि खर्च का ब्यौरा मांगा था। मिली जानकारी के कुल मिली निधि 1256.50 करोड़ में 293.10 करोड़ निधि खर्च नहीं की गई। उत्तराखंड का निर्माण 9 नवंबर 2000 को देश के 27वें राज्य के रूप में हुआ था। पहले ये उत्तर प्रदेश का हिस्सा था।
वर्ष 2006 तक इसका नाम उत्तरांचल था। हिन्दु ग्रंथों और प्राचीन साहित्य में इस क्षेत्र का उल्लेख उत्तराखंड के रूप में है, लिहाजा जनवरी 2007 में इसका आधिकारिक नाम उत्तराखंड कर दिया गया। उत्तराखंड का अर्थ है, उत्तरी क्षेत्र। वर्ष 2021 तक, महज 21 साल के उत्तराखंड ने 10 मुख्यमंत्री देखे हैं। इनमें 7 भाजपा के और 3 कांग्रेस के मुख्यमंत्री शामिल हैं।
राज्य निर्माण के लिए संघर्ष हो या राज्य गठन के बाद राजनीतिक उठापटक, बदलाव हो या पहाड़ों की आपदा हो लेकिन आज भी यहां के वाशिंदों के जहन में एक ही सवाल उभरता है कि इन 21 वर्षों में पहाड़ की तकदीर और तस्वीर कितनी बदली है? यूं तो उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए आंदोलन काफी संघर्षपूर्ण रहा है. बहुत से आंदोलनकारियों ने अपने प्राणों की आहुति देकर राज्य निर्माण की नींव रखी थी सबसे बड़ी विडंबना ये कि जो राज्य निर्माण के नायक रहे वो किस हाल में हैं इसकी सुध लेने वाला भी कोई नहीं है.
राज्य आंदोलन में रहे से बात करने पर सही हाल जाना कि आखिर किस हाल में हैं ये नायक जिन्होंने आंदोलन की नींव रखी थी.उनकी मानें तो कुछ लोगों को तो जरूर सरकार ने आंदोलनकारी की पहचानसुध लेने वाला भी कोई नहीं है..21 वर्ष के दौरान अगर सबसे गंभीर समस्या जिससे वाकई उत्तराखंड सबसे ज्यादा प्रभावित है वो है पलायनपर 21 वर्ष बीतते-बीतते पलायन की चिंता किन फाइलों मे में गुम हो गई पता ही नहीं चला. बंद कमरों में चिंतन और मनन जारी है.
जनता का दर्द यह है कि पहाड़ पर न तो रोजगार है और ना ही उपजाऊ जमीन. जनप्रतिनिधि और सरकारें हैं कि एक-दूसरे को कोसने से फुर्सत नहीं. पहाड़ पर पहाड़ जैसा पर पहाड़ जैसा जीवन जीने को मजबूर लोगों की समस्याएं समझने के प्रयास के दावे करते-करते सरकारें आती हैं, जाती हैं लेकिन लोगों के सामने रह जाता है वही विकट पहाड़. स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मुद्दों को लेकर राज्य की जनता आए दिन सड़कों पर रहती है।
21 साल में राज्य सरकारें पलायन को लेकर कोई ठोस नीति नहीं बना पाई। पलायन आयोग तो बना दिया गया लेकिन इसकी रिपोर्ट को किसी भी सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया। वर्ष 2019 में आई पलायन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक़ उत्तराखंड की 66% आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। इसमें से 80% से अधिक आबादी पर्वतीय ज़िलों में हैं। वर्ष 2001 और 2011 के जनसंख्या आंकड़ों के मुताबिक़ राज्य के ज़्यादातर पर्वतीय ज़िलों में जनसंख्या वृद्धि दर बेहद कम रही है।
इस दौरान अल्मोड़ा और पौड़ी ज़िले की आबादी में 17,868 व्यक्तियों की सीधी कमी दर्ज की गई है। साफ है कि उत्तराखंड में पलायन आज भी बड़ी समस्या है। जिसको लेकर कोई भी सरकार गंभीर नजर नहीं आता है।पहाड़ी राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से उत्तराखंड में योजनाओं को लागू करने में कई तरह की समस्याएं भी आती हैं। लेकिन जब भी सरकार की इच्छा शक्ति हुई तो योजना ने परवान चढ़ी, लेकिन जब भी राज्य सरकार वोटबैंक और अपने राजनीतिक लाभ के लिए विकास कार्यों को टालती रही तो इसका नुकसान भी जनता को उठाना पड़ा है।
आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सरकारों के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है। उम्मीद करते हैं कि जिन संकल्पों से हमारे उत्तराखंड के आंदोलनकारियों ने पृथक राज्य के लिए संघर्ष किया वे शुभसंकल्प पूर्ण हों और हमारी देवभूमि उत्तराखंड आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न तथा खुशहाल बने।