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वर्तमान शिक्षातंत्र पर चहुंओर हमलावर पुस्तक

09/07/19
in उत्तराखंड, साहित्य
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‘शिक्षा के सवाल’

‘शिक्षा के सवाल’ पुस्तक उस सजग और संवेदनशील शिक्षक की है जो शैक्षिक दायित्वों को निभाते हुए हमेशा अनेकों सवालों से अपने को घिरा महसूस करता है। उसे यह बात हर समय कटोचती है कि ‘आज का शिक्षक’ किसी बंधे-बधाये ‘तंत्र’ के परम्परागत ‘मंत्रों’ को बच्चों तक पहुंचाने वाला ‘यत्रं’ मात्र बन कर रह गया है। आज शिक्षक का काम बच्चों को उक्त ‘मत्रों’ को रटाना-भर है, चाहे जीवनीय क्षमताओं और कौशलों को हासिल करने में उन ‘मंत्रों’ का किंचित मात्र भी योगदान न हो। इस प्रक्रिया में शिक्षक बच्चों को सामान्यतयाः उत्तीर्ण मानकर उन्हें स्कूल से विदाकर्ता की भूमिका मात्र में है।

पुस्तक का लेखक इस तथ्य को गम्भीरता से स्वीकारता है कि वह अपनी सहमति से शिक्षक बना है। अतः बच्चों को सिखाने और निपुण बनाने की जिम्मेदारी भी उसी की है। उसकी कोशिश है कि वह सीखने-पढ़ाने के नए और प्रभावी तरीके अपनाये ताकि बच्चे उसमें कुशल हो सकें। वह जानता है कि बच्चों को नया सीखना अच्छा लगता है पर हम उन्हें उसके लिए धकियाते रहें ये वे पसंद नहीं करते हैं। यहीं पर हमारा मौजूदा शिक्षा तंत्र कमजोर और अप्रसांगिक हो जाता है। नतीजन, बच्चों के मन-मस्तिष्क में स्कूल और उसकी शिक्षा प्रणाली के प्रति भय, नीरसता और भ्रम का क्रम और स्तर बढ़ता ही रहता है। बच्चों के इस अलगाव और शिक्षा तंत्र की असफलता का ‘दोषी’ शिक्षक को मानने की प्रवृत्ति आज समाज में हावी ही नहीं वरन पूर्णतया स्वीकार कर ली गई है। शिक्षक की मनःस्थिति स्वयं को शिक्षा की इस दशा का एक ‘जिम्मेदार’ मानने तक तो स्वीकारती है पर वो इसका घोषित ‘दोषी’ है यह सामाजिक स्वीकारोक्ति उसके मनोबल को शिथिलता प्रदान करता है। वर्तमान सामाजिक-शैक्षिक वातावरण में ‘जिम्मेदार’ को ‘दोषी’ साबित करवा देना सबसे बड़ी सार्वजनिक भूल, मूर्खता और शिक्षक के प्रति अनादर है।

शिक्षक-साहित्यकार मित्र महेश पुनेठा की नवीनतम पुस्तक ‘शिक्षा के सवाल’ लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित हुई है। आजकल साथियों के शैक्षिक-विर्मश में इस पुस्तक की चर्चा जोरों पर है। वर्तमान शिक्षा तंत्र पर चहुंओर हमलावर हुई यह पुस्तक शिक्षा के सवालों पर शिक्षकों की सामुहिक अभिव्यक्ति है। शिक्षा की दयनीय दशा और दिशा के लिए शिक्षकों को कठगरे में खडा करना एक फैशन सा हो गया है। शिक्षा की मूल समस्या से घ्यान हटाने की यह प्रवृत्ति कितनी घातक है इसका जायजा इस पुस्तक से लिया जा सकता है।

महेश पुनेठा एक कुशल शिक्षक, संवेदनशील कवि और सामाजिक सरोकारों में सक्रिय अग्रणी व्यक्तित्व हैं। उनके लेखन के कई आयाम हैं, परन्तु शैक्षिक-विर्मश उसके केन्द्र में है। प्रतिष्ठित ‘शैक्षिक दखल’ पत्रिका के वे सम्पादक हैं, तो ‘दीवार पत्रिकाः एक अभियान’ के वे मुख्य संचालनकर्ता हैं। ‘भय अतल में’ और ‘पंछी बनती मुक्ति की चाह’ कविता संग्रह उन्हें हिन्दी के प्रतिष्ठित और लोकप्रिय कवियों में शुमार करता है। ‘शिक्षा के सवाल’ पुस्तक एक शिक्षक के रूप में उनके अनुभवों, मान्यताओं, विचारों, सुझावों और शैक्षिक कार्ययोजनाओं को रेखंकित करती है। शैक्षिक कर्मक्षेत्र को अपना सर्वोत्तम योगदान न दे पाने की बैचेनी उन्हें घेरे रहती है। उनकी चिन्ता शिक्षकों का गिरता मनोबल और बच्चों की शिक्षा के प्रति अलगाव है। शिक्षा तंत्र की बेरूखी और उदासीनता उन्हें परेशान करती है। शिक्षा जो कि जीवन, जगत और जीविका में तारतम्य लाने का सशक्त माध्यम है, वही अनेकों जगहों और स्तरों पर टूटी-फूटी उन्हें नजर आती है। शिक्षक, कवि और लेखक महेश पुनेठा अपनी इन्हीं शैक्षिक बैचेनियों को लेकर ‘शिक्षा के सवाल’ पुस्तक में मुखर हैं।

महेश पुनेठा ने किताब की मंशा को भूमिका में ही स्पष्ट कर दिया है कि ‘यह पुस्तक शिक्षक के दृष्टिकोण से शिक्षा के सवालों को समझने की एक कोशिश है। आज सरकारी शिक्षा की बदहाली के लिए शिक्षक को सबसे अधिक जिम्मेदार माना जा रहा है। ऐसा लगता है कि यदि शिक्षक सुधर जाए, तो सब कुछ ठीक हो जाएगा, जबकि यथार्थ इतना सरल नहीं है। बहुत सारी जटिलताएं हैं। इस पुस्तक में शामिल आलेखों में इन्हीं जटिलताओं को पकड़ने और रेखंकित करने का प्रयास किया गया है।’

पुस्तक में शिक्षा के विविध संदर्भों के प्रति उद्घाटित विचारों का समागम 29 उप-शीर्षकों में है। शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था’ किताब का प्रारम्भ बिन्दु है। शिक्षा के विविध संदर्भों से गुजरते हुए ‘प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता का सवाल’ पर यह पुस्तक विराम लेती है। संपूर्ण पुस्तक शिक्षा की अवधारणा को समग्रता में लिए हुए उसके 3 पक्षों पर ज्यादा फोकस है। शिक्षा व्यवस्था में नीतिगत सवाल, बच्चों का नजरिया और उनकी स्थिति तथा शिक्षकों के सवाल और प्रयास। समान और सबको शिक्षा, वाउचर प्रणाली, पाठ्यपुस्तकें, शिक्षण का माध्यम, परीक्षा प्रणाली, शिक्षा तंत्र की नीति और नियत, एनसीएफ-2005, बच्चों की वैज्ञानिक अप्रोच, शिक्षा में सृजनशीलता और गुणवत्ता, शिक्षा मेें वर्ग भेद, भाषायी दक्षता, शैक्षिक डायरी, आदि लेखों में प्रश्नों के साथ लेखक के जबाब और सुझाव भी हैं।

किसी हद तक यह तो माना जाना चाहिए कि आज की शिक्षा व्यवस्था सामाजिक जीवन में बच्चे को विवेकशील, होशियार और दायित्वशील बनाने से ज्यादा चतुर, चालाक और एकांगी बना रही है। लेखक इंगित करता है कि शिक्षा में सजृनशीलता की जगह बाजारवाद ने ले ली है। उसका कहना है कि ‘हम एक ऐसे दौर में हैं, जबकि शिक्षा, सृजनात्मकता व विवेकशीलता के विकास का मिशन न होकर मुनाफे का धंधा बनती जा रही है। शिक्षा सृजनोन्मुखी न होकर बाजारोन्मुखी हो गई है। कैसे अधिक-से-अधिक धनोपार्जन किया जा सके, शिक्षा उसका माध्यम बनती जा रही है’ (पृष्ठः 18)। शिक्षा जब बाजार के हितों का साधन बन गई तो उसके सार्वजनिक स्वरूप में विभेद होना स्वाभाविक है। देश में समान और सबको शिक्षा व्यवस्था से पीछा छुडाती सरकार संसाधनों के अभाव का कोरा विलाप करती हैं। जबकि यह भी हकीकत है कि विश्व के विकसित देश जो निजी क्षेत्र के बडे़ पैरोकार हैं वहां भी शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे अहम काम सरकारी नियंत्रण में ही हैं।

लेखक का मानना है कि संपूर्ण शिक्षा पाठ्य-पुस्तकों पर केन्द्रित होकर परीक्षोन्मुखी हो गई है, जो चिन्ताजनक स्थिति है। ‘पाठ्यपुस्तक का दबाब इतना जबरदस्त है कि न बच्चे और न ही शिक्षक उससे बाहर निकल पाते हैं। पाठ्यपुस्तक में निहित विषयवस्तु को पढ़ना और पढ़ाना ही उनके लिए अभीष्ट बन चुका है। पाठ्य पुस्तकों का अनुकरण करना ही शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य बन गया है। ‘मुक्त करने वाली’ शिक्षा बांधने वाली बन गई है’ (पृष्ठः 53)। पाठ्यपुस्तकों पर अत्यधिक निर्भरता का मूल कारण ‘शिक्षा का जीवनोन्मुखी न होकर परीक्षोन्मुखी होना है। सभी का जोर परीक्षा पास करने या परीक्षा में अधिकाधिक अंक प्राप्त करने में है। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे शिक्षा परीक्षा के लिए है न कि जीवन के लिए’ 
(पृष्ठः 41)।

बच्चों के मनोविज्ञान और उससे अभिव्यक्त व्यवहार के बारे में लेखक की यह टिप्पणी सटीक है कि ‘बच्चे जन्मजात उत्सुक, जिज्ञासु और कल्पनाशील होते हैं। बात-बात पर उनके द्वारा किए जाने वाले कभी खत्म न होने वाले सवाल तथा रंग-बिरंगी कल्पनाएं इस बात के प्रमाण हैं। बच्चे किसी भी बात को ऐसे ही नहीं स्वीकार कर लेते हैं, बल्कि अनेक प्रश्न-प्रतिप्रश्न करते हैं। यह क्या है, कहां से आया, क्यों आया, कैसे बना ? जैसे प्रश्न हर वक्त उनकी जुबान पर ही रहते हैं। उन्हें खोजने में बहुत आनंद आता है। हर नई चीज उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। वे उसकी तह में पहुंचना चाहते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि बच्चे स्वभावतः वैज्ञानिक अप्रोच लिए हुए होते हैं’ (पृष्ठः 38)।

सामाजिक-आर्थिक विषमताओं वाली व्यवस्था में सबको समान और गुणवत्तायुक्त शिक्षा देने बात करना ही बेमानी है। महेश पुनेठा कवि हैं। अतः अपनी राय को प्रसिद्ध कवि चंद्रकांत देवताले की कविता की व्याख्या के माध्यम से और भी प्रभावी तरीके से व्यक्त करते हैं। ‘ .. जिस उम्र में उच्च-मध्य वर्ग के बच्चे अपने खाए बर्तनों को अपनी मेज से खिसकाते तक नहीं, उसी उम्र में बहुत सारे बच्चे होटल में बर्तन मांजने तथा दूसरे के द्वारा तय की गई मजदूरी पर अपनी इच्छा के विरुद्ध कठोर श्रम करने के लिए मजबूर हैं। लेकिन आश्चर्य है कि इस विषमता को हमारी शिक्षा कभी प्रश्नांकित नहीं करती है। हमेशा उस पर पर्दा डालने की ही कोशिश अधिक करती है। यह समाज इतना क्रूर क्यों है…..

अखबार के चेहरे पर जिस वक्त
तीन बच्चे आइसक्रीम खाते
हंस रहे हैं
उसी वक्त
बीस पैसे में सामान ढोने के लिए
लुकाछिपी करते बच्चों के पुठ्ठों पर
पुलिस वालों की बेतें उमच रही हैं। 
(चंद्रकांत देवताले) (पृष्ठः 80-81)

‘आखिर क्यों कुछ बच्चों के लिए ही आकर्षक स्कूल और प्रसन्न पोशाकें हैं ? क्यों कुछ के लिए ही रंग-बिरंगी किताबें, खेल-खिलौने, मैदान और बाग-बगीचे हैं ? क्यों लड़कियां नदी-तालाब-कुआं-घासलेट-माचिस-फंदा ढूंढ़ रही हैं ? क्यों शांति और अहिसां का पाठ पढ़ाने वाले समाज में असंख्य बच्चों के हिस्से में हिंसा-ही-हिंसा है ? जिस दिन हमारी शिक्षा में इन प्रश्नों को स्थान मिलेगा, उस दिन वह बदलाव का हथियार बनेगी।’ (पृष्ठः 85)

यह पुस्तक इस मामले में भली है कि लेखक ने शैक्षिक पेशे में रहते हुए अपने निजी अनुभवों की डायरी भी सार्वजनिक की है। इससे पूर्व मैंने शिक्षक मित्रों की ‘एक अध्यापक की डायरी के कुछ पन्ने’ (हेमराज भट्ट) और ‘मेरी स्कूल डायरी’ (रेखा चमोली) को पढ़ा है। रेखा चमोली जी ने अपनी पुस्तक की भूमिका के प्रारम्भ में ही डायरी लेखन की महत्वा को बताया है। वो कहती हैं कि ‘शिक्षण का पेशा काफी चुनौती भरा है। इस पेशे में यदि आनन्द की अनुभूति को कायम रखना है, तो बहुत जरूरी है कि शिक्षक अपने सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में खुद से निरन्तर सवाल-जवाब करें और अपने अनुभवों के आधार पर अपनी चुनौतियों से निकलने के रास्ते तलाशे। आमतौर पर शिक्षक अपने अनुभवों के आधार पर ही अपने सीखने-सिखाने के तरीकों को निखारते रहते हैं, लेकिन कई बार अपने अनुभवों को दर्ज नहीं कर पाते हैं। परिणाम स्वरूप उनकी खुशी और परेशानियों के ढेर सारे पल समय के साथ कहीं खो जाते हैं।’ महेश पुनेठा ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया है। मुझे लगता है कि कई शिक्षक मित्र शैक्षिक डायरी लिखते होंगे। उन्हें सुझाव है कि वो उसके प्रकाशन में संकोच न करें।

महेश पुनेठा ‘दीवार पत्रिकाः एक अभियान’ के संस्थापक संचालनकर्ताओं में शामिल हैं। बच्चों की रचनात्मकता को बढ़ाने और पढ़ने की आदत को विकसित करने के लिए ‘दीवार पत्रिकाः एक अभियान’ देश भर में लोकप्रिय हो रहा है। अब तक देश के 1 हजार से अधिक स्कूलों में यह विचार फलीभूत हो गया है। दीवार पत्रिका के बारे में महेश पुनेठा पुस्तक में लिखते हैं कि ‘यह एक हस्तलिखित पत्रिका है, जो दीवार पर कलैंडर की तरह लटकाई जाती है। इसमें साहित्य की विभिन्न विधाओं, बच्चों के अनुभवों, रोचक गतिविधियों और चित्रकला को स्थान दिया जाता है।….इसे भित्ति पत्रिका या वाॅल मैग्जीन के नाम से भी पुकारा जाता है’ (पृष्ठ-74)।

यह पुस्तक हमें बताती है कि बुद्धि और प्रतिभा का असली परीक्षण यह नहीं है कि हम क्या-क्या जानते या कर सकते हैं, वरन इसमें है कि जब हम न जानते हैं और न करना आता है, तब हमारा व्यवहार किस तरह का होता है। शिक्षक जो पाठ कक्षा में पढ़ा रहा है यदि वो बच्चों को यह समझााने में सफल हो जाता है जीवन के किस मोड़ पर यह पाठ काम आयेगा तो उसका शिक्षण प्रभावी होगा। इसे दूसरे तरीके से यह कह सकते हैं कि शिक्षक की बताई गई सीख और पाठ जब हमें जीवन की किसी विशेष परस्थिति से उभारने में मदद करते हुए प्रतीत होती है तो वही सार्थक शिक्षा है।

मित्र महेश पुनेठा की ‘शिक्षा के सवाल’ पुस्तक को पढ़कर शिक्षाविद जाॅन होल्ट की ‘हाऊ चिल्ड्रन फेल’ पुस्तक में लिखा याद आया कि ‘ऐसे स्कूल हों, जहां बच्चों को अपनी तरह से अपनी जिज्ञासाओं को संतुष्ट करने की छूट हो। वे स्वयं ही निजी क्षमताएं विकसित करें। अपनी रुचियों एवं रुझानों को पनपाएं। हमारे स्कूल, बुद्धि, ज्ञान, हुनर और सृजनात्मकता का ऐसा विशाल मंच बने जहां प्रत्येक बच्चा अपने स्वाभाविक गुणों के साथ जीवन जीने की कला सीख सकें’। महेश पुनेठा के मन-मस्तिष्क में विराजमान जीवंत स्कूल की अवधारणा भी यही है।

पुनः मित्र महेश पुनेठा जी को बधाई और शुभकामनाएं। अन्य मित्रों और विशेषकर शिक्षा से जुड़े महानुभावों से अनुरोध रहेगा कि शिक्षा के सवाल जीवन, जगत और जीविका के सवालों से इतर नहीं हैं वरन इनके केन्द्र में रहकर ही वे हर समय उथल-पुथल मचाते रहते हैं। उनका निदान तो दूर है, पर अभी हम उनको जान-समझ तो लें। और उसके लिए आपको महेश पुनेठा की पुस्तक ‘शिक्षा के सवाल’ से बतौर पाठक दोस्ती करनी होगी। 
डाॅ अरुण कुकसाल

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