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कुमाऊँ विश्वविद्यालय: विवादित कार्यकाल के बाद विदा हुए राणा

14/03/25
in उत्तराखंड, देहरादून
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https://uttarakhandsamachar.com/wp-content/uploads/2025/11/Video-60-sec-UKRajat-jayanti.mp4

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
करीबन एक वर्ष पहले, १७ मई को कुमाऊँ विश्वविद्यालय के कुलपति का अस्थायी रूप से कार्यभार संभालने वाले के.एस.राणा, कुमाऊँ वि.वि. के इतिहास में पहले ऐसे कुलपति थे जो राज्य के किसी भी विश्वविद्यालय के प्रशासन से ताल्लुक नहीं रखते थे.कार्यकाल संभालने के दो सप्ताह भीतर ही वह तब विवादों के घेरे में आ गए जब उनका कैंप कार्यालय आगरा में होने की सूचना देता, उनके आवास का पता सार्वजनिक हुआ. इस पर पृथक कुमाऊँ वि.वि. के लिए संघर्ष कर चुके सम्मानित जनों, मीडिया कर्मियों एवं छात्रों-युवाओं द्वारा तीखी प्रतिक्रिया के बाद एक स्पष्टीकरण जारी करते हुए श्री राणा ने अपना कैंप कार्यालय नैनीताल में ही स्थापित करने की बात कही. ज्ञातव्य हो कि १९७३ में कुमाऊँ वि.वि. की स्थापना से पूर्व इन क्षेत्रों में स्थित महाविद्यालय, आगरा वि.वि. से ही संबद्ध थे. श्री राणा द्वारा कैंप कार्यालय आगरा में खोले जाने की खबर इस पृथक वि.वि. की स्थापना के मूल भावना के खिलाफ थी. ऐसा होना वि.वि. के कुशल संचालन में बाधा डालना और प्रशासनिक दृष्टि से दिक्क्तों को बढ़ाने वाला तो था ही, साथ ही कुमाऊँ वि.वि. के अंतर्गत आने वाले बहुत से क्षेत्रों के लिए, वि.वि. की स्थापना के लिए दी गयी शहादतों के चलते एक भावनात्मक मुद्दा भी था.इसी तरह का विवाद एक बार फिर से तब पैदा हो गया जब के• एस• राणा ने पीलीभीत, बिजनौर और सहारनपुर जैसे मैदानी जिलों को उत्तराखंड में जोड़ने संबंधी पत्र प्रधानमंत्री को लिखा।उनके ऐसे सुझावों को राज्य आंदोलन की भावना और भौगोलिक अस्मिता के खिलाफ मानते हुए तीव्र प्रतिक्रिया हुई और फिर से कुलपति महोदय ने लीपापोती भरा स्पष्टीकरण जारी करते हुए ‘खेद’ व्यक्त कर दिया. परन्तु उनके इस पत्र ने एक बार फिर से स्पष्ट कर दिया कि जिस राज्य के विश्वविद्यालय के शीर्षस्थ पद पर वह बैठे हैं, उसी राज्य के सामाजिक इतिहास और उसके संघर्षों के प्रति वह कितने असंवेदनशील हैं.उनकी इस गहरी असंवेदनशीलता का परिचय सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ में हुए छात्र-छात्राओं के बहुचर्चित आंदोलन के दौरान भी देखने को मिला. पिथौरागढ़ महाविद्यालय में 38 दिनों तक चले शिक्षक पुस्तक आंदोलन और राष्ट्रीय मीडिया में उसकी गूँज के बाद भी विश्वविद्यालय के कुलपति होते हुए राणा ने इस मुद्दे पर एक बयान देने की जहमत तक नहीं उठाई. यहां तक कि आंदोलन से बढ़ते दबाव के चलते राज्य के उच्च शिक्षा मंत्री और मुख्यमंत्री तक को बयान देने को मजबूर होना पड़ा लेकिन कुलपति श्री राणा ने तब भी कोई टिप्पणी नहीं की और इस पूरे मुद्दे से बचते रहे. यहाँ तक कि संसद के उच्च सदन, राज्यसभा, तक में इस मुद्दे के उठने और बाद में उत्तराखंड हाईकोर्ट द्वारा शिक्षक-पुस्तक की मांग पर स्वत: संज्ञान लेने के बाद भी कुलपति की खामोशी बनी रही. इस सब के बावजूद पूरे कार्यकाल में उन्होंने कुमाऊँ यूनिवर्सिटी से संबद्ध दूरस्थ महाविद्यालयों के लिए कार्ययोजना बनाना तो दूर, उन्होंने इन महाविद्यालयों में संसाधनों के अभावों का संज्ञान लेते हुए मांग अग्रेषित करने की कागज़ी कार्यवाही तक नहीं की.एक तरफ ऐसे अहम मूलभूत मुद्दों पर श्री राणा चुप्पी की गहरी चादर ओढे नजर आए वहीं दूसरी ओर महादेवी वर्मा सृजन पीठ में व्यावसायिक पाठ्यक्रम शुरू करने की बात हो या गाँव गली में चुनाव ड्यूटी को प्रोफेसरों की गरिमा के खिलाफ बताने वाले पत्र चुनाव आयोग को लिखना हो, यह उनके कुछ ऐसे कारनामे थे जो उन्हें पूरी तरह शिक्षा की जमीनी वास्तविकता से कटे होने और उनके अभिजात्यपन की ओर संकेत करते हैं. वैसे भी, ऐसे ही अभिजात्य तबके के लोगों का शिक्षा क्षेत्र के उच्च पदों में सत्ता के आशीर्वाद के साथ बैठे रहना उच्च शिक्षा की दुर्गति का एक बड़ा कारण भी है।अपने पूरे कार्यकाल में कुलपति के.एस.राणा ने पहले से स्थित भवनों के नाम बदलने के काम में सक्रियता जरूर दिखायी लेकिन एक ‘गौरा देवी’ के नाम को छोड़ उनके द्वारा बदले गए लगभग दस नामों में से एक भी पर्वतीय राज्य उत्तराखंड से संबंध या योगदान रखने वाला नाम नहीं है. राज्य आंदोलन में शहादत देने वाले या कुमाऊँ विश्वविद्यालय के निर्माण और अपने कार्यों से उसको गौरवान्वित करने वाले व्यक्तियों को सम्मान देने के बजाय उन्होंने सत्ता पक्ष की विचारधारा के प्रति वफ़ादारी दिखाते हुए इस भूगोल के लोगों को दरकिनार करना ही उचित समझा।इसी वर्ष फरवरी माह में कुमाऊँ यूनिवर्सिटी में करोड़ो के घोटाले की बात सामने आयी थी और यह खबर लोगों तक पहुँचने से पहले ही गायब हो गयी. इतने बड़े घोटाले पर किसी तरह का स्पष्टीकरण या कार्यवाही की जानकारी विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा सामने नहीं आयी. इस आशय का कोई बयान तक सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है।कुमाऊँ वि.वि. के ही अल्मोड़ा स्थित सोबन सिंह जीना परिसर में छात्रसंघ और प्रशासन के बीच हुई नोक-झोंक के गंभीर हो जाने और ‘हत्या के प्रयास’ जैसी खबरों के अखबार में मुखपृष्ठ पर छपने के बाद भी जिस तरह मुद्दे को दबाने और लीपापोती की कोशिशें शासन-प्रशासन स्तर पर हुई और इस सब पर एक कुलपति के रूप में बरती गयी चुप्पी भी श्री राणा द्वारा अहम मसलों पर मौन धारण कर लेने का एक और उदाहरण बनी.अभी तीन सप्ताह पूर्व ही यूनिवर्सिटी रजिस्ट्रार के पद पर डिप्टी रजिस्ट्रार को नियुक्त करने पर भी विवाद बढ़ गया जब रजिस्ट्रार के संज्ञान में लाए बिना ही उन्होंने यह निर्णय ले लिया. इस बाबत रजिस्ट्रार डॉ. महेश कुमार ने खुद आदेश जारी कर वि.वि. के अधिकारियों को उनकी अनुमति के बिना कोई आदेश जारी न करने को कहा।इस घटना और इससे पूर्व भी ‘सत्ता की हनक’ दिखाते, मीडिया को दिए गए उनके बयानों से उनकी कार्यशैली का पता चलता है।इन सबसे इतर एक मजेदार बात यह भी है कि कुलपति राणा नियमित रूप से अपना फेसबुक एकाउंट चलाते हैं, अपने निजी फेसबुक अकाउंट से देश के बहुतेरे विश्विद्यालयों के माहौल, कार्यप्रणाली की आलोचना करते और उनको नसीहत देते हुए नजर आते हैं. बहुधा ही उनकी पोस्टें ‘वाट्सएप यूनिवर्सिटी’ से निकले कंटेंट की उपज होती हैं जो उनके अकाउंट और एक सोशल मीडिया के ट्रोल एकाउंट में अंतर कर देना मुश्किल कर देती हैं.कुमाऊँ वि.वि. के अंतर्गत नैनीताल में विधि संकाय की स्थापना जैसे इक्का-दुक्का कामों को छोड़ दिया जाये तो यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि एक कुलपति के रूप में वह पूरी तरह अक्षम और अयोग्य साबित हुए तथा उनके द्वारा लिए गए निर्णय, फ़िजूल बयान और जरूरत के वक्त धारण कर ली गयी चुप्पी, इस विश्वविद्यालय के कुलपति पद के इतिहास में एक गहरे धब्बे की तरह दिखते रहेंगे।डॉ• डी डी पंत जैसे कुलपतियों से शुरू हुआ कुमाऊँ विश्वविद्यालय का सफर ऐसे कुलपतियों को भोगने को मजबूर होगा किसी ने सोचा भी नहीं होगा। बहरहाल, कुमाऊँ वि.वि. की दुर्गति को चार कदम और आगे बढ़ा, के.एस.राणा अब विदा हो चुके हैं और उनकी जगह नए कुलपति पद ग्रहण कर चुके हैं. इसके बाद 2018 से 2024 तक कुमाऊं यूनिवर्सिटी नैनीताल, वर्ष 2020-21 में अल्मोड़ा रेजिडेंशियल यूनिवर्सिटी, वर्ष 2021-22 में मेवाड़ यूनिवर्सिटी और जयपुर में टेक्निकल यूनिवर्सिटी में वर्ष 2022-24 तक वाइस चांसलर रहे। बीते साल अगस्त में उन्हें इंडिया जीसीसी ट्रेड काउंसिल नामक एनजीओ का सदस्य बनने के बाद ट्रेड कमिश्नर बनाया गया। उसके बाद से ही वह खुद को हाई कमिश्नर बताकर घूमने लगे और प्रोटोकॉल मांगने लगे। पुलिस का कहना है कि आरोपी का पीए फरार है, उसकी तलाश की जा रही है।पुलिस पूछताछ में सामने आया है कि आरोपी ने नौ मार्च को मथुरा में और बीते वर्ष 12 दिसंबर को फरीदाबाद में ओमान का हाई कमिश्नर बताकर प्रोटोकॉल लिया था। स्थानीय पुलिस को उनका पीए मेल पर सूचना देता था कि ओमान के हाई कमिश्नर डॉ. कृष्ण शेखर राणा विजिट पर आएंगे, उनके लिए नियमानुसार प्रोटोकॉल दिया जाए। आरोपी ने 11 मार्च को कौशांबी सेक्टर-एक निवासी अपनी बेटी के यहां जाने के लिए गाजियाबाद पुलिस और प्रशासन को मेल कर प्रोटोकॉल मांगा था। पुलिस को शक होने पर ओमान एंबेसी से संपर्क किया गया। वहां से जानकारी दी गई कि उनके यहां कृष्ण शेखर राणा नामक व्यक्ति का कोई संबंध नहीं है। पुलिस ने लिखित में भी ओमान एंबेसी से जवाब मांगा है।पुलिस के मुताबिक, आरोपी ने अपनी मर्सिडीज कार पर 88 सीडी 01 नंबर प्लेट लगाई हुई थी। अंतरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर हमारे देश में राजदूतों के वाहनों पर लगने वाली सीरीज के पहले दो अंक देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। आरोपी ने जो नंबर प्लेट लगाई, उसमें 88 नंबर ओमान का न होकर लीबिया का है। लीबिया का हमारे देश में दूतावास नहीं है। ऐसे में उसका राजदूत हमारे यहां तैनात ही नहीं है। इधर उनके गिरफ्तार होने के बाद आगरा में सभी आश्चर्यचकित हैं। यहां भी सभी उन्हें हाई कमिश्नर समझते थे। उनका गिरफ्तार होना चर्चा का विषय बना हुआ है। पूर्व शिक्षा मंत्री ने कुमाऊं विश्वविद्यालय के कार्यवाहक कुलपति को लेकर कई गंभीर सवाल खड़े किए हैं. नैथानी ने कुमाऊं विश्वविद्यालय में स्थायी कुलपति नियुक्त किए जाने की मांग की है. पूर्व शिक्षा मंत्री नैथानी ने कहा कि कुमाऊं विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डीके नौटियाल इस्तीफा देकर चले गए, क्योंकि वर्तमान सरकार ने उन्हें परेशान करते हुए गवर्नर हाउस से दबाव बनाया था.यही कारण है कि दबाव के चलते उन्हें इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा. एक प्रक्रिया के तहत वाइस चांसलर की गैरमौजूदगी में यूनिवर्सिटी के वरिष्ठ प्रोफेसर को कार्यवाहक वीसी की जिम्मेदारी सौंपी जाती है, लेकिन कुमाऊं विश्वविद्यालय में ऐसा नहीं किया गया. उत्तराखंड के भीतर जिस कुमाऊं यूनिवर्सिटी में विद्वान और बुद्धिजीवी लोगों ने उत्कृष्ट कार्य किए हैं वहां जो हरकत हो रही है उसे बर्दाश्त नहीं करेगी। का कहना है कि सलेक्शन कमेटी के तहत वाइस चांसलर की चयन प्रक्रिया हो चुकी है, लेकिन आज तक उस कमेटी ने का निर्णय नहीं आया है। ऐसे में गवर्नर हाउस में वो निर्णय क्यों दबाया जा रहा है वह समझ से परे है। प्रो.केएस राणा कुमाऊं विवि के 28वें कुलपति के रूप में जिम्मेदारी निभाएंगे। प्रो.राणा मूल रूप से जयपुर के रहने वाले हैं। उन्होंने 1976 में पारिस्थितिकी एवं वन्यजीव, कीटविज्ञान विषय से एमएससी, 1981 में पीएचडी, 1992 में एलएलएम एवं 1996 में डीएससी की उपाधि ली। प्रो.राणा इससे पहले नालंदा राजकीय मुक्त विश्वविद्यालय पटना, मोनाड विश्वविद्यालय हापुड़ और केवीएस विश्वविद्यालय आरा बिहार के कुलपति के पद पर रह चुके हैं। प्रो.राणा 2005 से जनवरी 2016 तक बीआर आंबेडकर विवि आगार में जंतु विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष रहे, उसके बाद वह 2016 से अब तक वन एवं पर्यावरण मंत्रालय भारत सरकार में विशेष सलाहकार के रूप में तैनात थे। उनके सौ से अधिक शोध पत्र राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय जरनलों में प्रकाशित हो चुके हैं। वहीं इनके निर्देशन में 40 से अधिक विद्यार्थी शोध कार्य कर चुके हैं। प्रो.राणा को देश-विदेश में कई अवार्ड भी मिल चुके हैं। वह समझ से परे है। कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. के.एस. राना एक बार फिर विवाद में फंस गए हैं. इस बार भी वे विवाद में अपने एक पत्र को लेकर ही फंसे है. अब उन्होंने उत्तराखण्ड के मुख्य निर्वाचन आयुक्त को पत्र लिखा है. जिसमें उन्होंने कुमाऊं विश्वविद्यालय को एक स्वायत्त संस्था बताते हुए निर्वाचन आयुक्त को कहा है कि वे कुमाऊं विश्वविद्यालय के अध्यापकों व कर्मचारियों की लोकसभा, विधानसभा, नगर निकाय व पंचायत के सामान्य निर्वाचन में चुनाव की ड्यूटी न लगायें. कुलपति राना ने ऐसा करने पीछे तर्क के साथ लिखा है कि चूँकि विश्वविद्यालय एक स्वायत्त संस्था है और यहां के अध्यापक व कर्मचारी किसी न किसी राजनैतिक दल से प्रेरित और उससे सम्बंद्ध रहते हैं. से में उनसे चुनाव की ड्यूटी लेने से चुनाव की निष्पक्षता और उसकी गोपनीयता पर असर पड़ता है. कुलपति ने अपने पत्र में आगे लिखा है कि चुनाव ड्यूटी के कारण विश्वविद्यालय के शिक्षण एवं परीक्षा से सम्बंधित आवश्यक कार्यों पर भी असर पड़ता है. विश्वविद्यालय में दो सेमेस्टरों में परीक्षीएँ क्रमश: मई-जून व नवम्बर-दिसम्बर में सम्पादित होती है. शिक्षकों के चुनाव ड्यूटी पर जाने से परीक्षा प्रणाली पूरी तरह से चौपट हो जाती है तथा शिक्षा सत्र भी प्रभावित होता है. यहॉ तक तो ठीक था. यह एक सही बात है भी. पिछले कई चुनावों में इसी कारण से विश्वविद्यालय के कई अध्यापकों व कर्मचारियों को चुनाव ड्यूटी से इसलिए हटाना पड़ा था, क्योंकि वे किसी न किसी राजनैतिक दल के न केवल सक्रिय कार्यकर्ता थे, बल्कि कुछ तो उनमें पदाधिकारी तक थे.)विवाद का कारण प्रदेश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त को लिखे पत्र का तीसरा बिन्दु है. जिसमें कुलपति ने लिखा है कि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर व एसोसिएट प्रोफेसर सम्मानित वर्ग हैं. उन्हें चुनाव ड्यूटी के दौरान किसी गांव, गली में भेजना उनकी गरिमा के विरुद्ध है. कुलपति का यह पत्र 15 अक्टूबर 2019 को सोशल मीडिया में वाइरल होते ही कुलपति की आलोचना होने लगी और यह सवाल किया जाने लगा कि किसी विश्वविद्यालय के किसी अध्यापक का किसी भी कारण से गांव में जाना उनकी गरिमा के विरुद्ध कैसे हो गया? और ऐसा कब से होने लगा? जब अपने शोध के लिए ये लोग गांवों में जाते हैं तो तब उनकी गरिमा क्यों नहीं गिरती? और जो लोग विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर हैं क्या उनमें से अधिकतर का नाता किसी न किसी तौर पर गांव से नहीं रहा है? क्या कुलपति यह चाहते हैं कि उनकी गरिमा को बचाए रखने के लिए चुनाव में ड्यूटी केवल शहरों में ही लगाई जाय? वे चुनाव में ड्यूटी लगाए जाने के खिलाफ हैं कि गांवों में ड्यूटी लगाए जाने के? कई शिक्षकों ने भी गांव को लेकर कुलपति के नजरिए को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया. इन शिक्षकों ने तो यहॉ तक कहा कि कुलपति का पूरा नजरिया गांवों के खिलाफ दिथाई देता है. शायद यही कारण है कि उसी वजह से गांवनुमा कस्बों में स्थित महाविद्यालयों में शिक्षकों का बेहद अभाव है. शिक्षकों की कमी के कारण गांव व कस्बों के बच्चे चाहते हुए भी अपने कस्बों में स्थित महाविद्यालयों में नहीं पढ़ पाते हैं.जब किसी भी तरह के चुनाव में गांवों के मतदाताओं की भी उतनी ही भागीदारी होती है, जितनी कि शहर में रहने वाले मतदाताओं की, तो फिर गांव के लोगों के साथ यह भेदभाव करने वाला व्यवहार क्या किसी विश्वविद्यालय के कुलपति की पद की गरिमा के खिलाफ नहीं है? इसके साथ ही यह वैधानिक सवाल भी उठ खड़ा हुआ है कि क्या किसी कुलपति को राज्य के मुख्य निर्वाचन आयुक्त को किसी भी तरह का निर्देश देने का अधिकार प्राप्त है? यह सवाल इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि उत्तराखण्ड के मुख्य निर्वाचन आयुक्त को लिखे पत्र के अंत में कुलपति प्रो. राना ने यह लिखा है, ”अत: कुमाऊं विश्वविद्यालय से किसी भी शिक्षक को भविष्य में चुनाव एवं मतगणना ड्यूटी से अवमुक्त रखे जाने के आदेश जारी करें.” इस वाक्य में निर्वाचन आयुक्त से अनुरोध नहीं, बल्कि उन्हें निर्देशित कर के कहा गया है कि “निर्देश जारी करें.” कुलपति के पत्र की इस तरह की भाषा ने अगर वैधानिक विवाद पैदा किया तो कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति के लिए परेशानी पैदा हो सकती है. अपने पत्र में कुलपति राना ने कहा कि वर्ष 2,000 में उत्तराखण्ड अलग राज्य बना था, लेकिन बीस साल बाद भी यह राज्य अपने आप में अपूर्ण है. यहॉ रोजगार और कृषि के संकट के कारण पलायन लगातार बढ़ रहा है. राना ने इसके समाधान के लिए प्रधानमन्त्री मोदी को लिखे पत्र में सुझाव दिया कि यदि उत्तर प्रदेश से अलग कर के पीलीभीत, बिजनौर व सहारनपुर जनपदों को उत्तराखण्ड में शामिल कर दिया जाय तो इससे उत्तराखण्ड में न केवल उत्पादकता बढ़ेगी, बल्कि वह एक आत्मनिर्भर राज्य भी बन सकेगा. अपने पत्र में राना ने दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने के लिए उसके पुनर्गठन का भी सुझाव दिया था. उन्होंने अपने पत्र में कहा कि दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने की मॉग भी बहुत पुरानी है. उसके लिए दिल्ली को केन्द्र शासित राज्य बनाते हुए राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में शामिल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हिस्से को दिल्ली में शामिल कर दिया जाय. इसके साथ ही उत्तर प्रदेश का भी विभाजन कर के बुंदेलखण्ड और पूर्वांचल नाम से दो राज्य बनाए जाने चाहिए. बुंदेलखण्ड में मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले सहित कुछ और हिस्सों को शामिल करते हुए ग्वालियर को राजधानी बनाया जाय. उत्तर प्रदेश के शेष हिस्से को पूर्वांचल नाम देकर उसकी राजधानी वाराणसी बनाई जानी चाहिए. विवाद उत्पन्न होने पर अपने बचाव में कुलपति राना ने यह भी कहा कि वे तो राजस्थान के मूल निवासी हैं. उत्तर प्रदेश के जिन जिलों को उत्तराखण्ड में मिलाने की बात उन्होंने कही, उसके पीछे उनका कोई राजनैतिक या दूसरा स्वार्थ नहीं है. न इसके पीछे किसी तरह का राजनैतिक दबाव ही था. यह केवल उनका व्यक्तिगत विचार था. तब कुलपति ने यह भी कहा कि वह जानते हैं कि राज्य पलायन और अन्य समस्याओं से जूझ रहा है, इसीलिए उन्होंने कुमाऊं विश्वविद्यालय में बीए में एग्रीकल्चर विषय की पैरवी की और कक्षाएँ भी शुरु करवा दी हैं. आगे भी विश्वविद्यालय स्तर पर व्यवसायिक पाठ्यक्रम लाये जा रहे हैं. जिससे क्षेत्र के युवाओं को राज्य में ही बेहतर रोजगार मिल सके.विवाद में फँसने पर कुलपति ने तब अपने लिखे पत्र पर खेद व्यक्त कर दिया था. पर इस बार अगर बात उनके वैधानिक अधिकार तक पहुँची तो कुलपति राना के लिए परेशानी पैदा हो सकती है. गाजियाबाद पुलिस ने आरोपी के खिलाफ भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 319(2), 318(4) और 336(3) के तहत मामला दर्ज किया है। आरोपी के खिलाफ विस्तृत जांच जारी है ताकि यह पता लगाया जा सके कि उसने अब तक कितने अधिकारियों और संस्थानों को गुमराह किया है। प्रदेश सरकार की शिक्षा के प्रति गंभीरता के प्रति गंभीर प्रश्न उठेंगे। क्योंकि राज्यपाल भले ही कुलाधिपति हों लेकिन विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को समाप्त करने में सरकारों के निहित स्वार्थ होते हैं। कमजोर और अयोग्य व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों पर बैठाने से अवैध नियुक्तियों का रास्ता आसान हो जाता है। भारत जैसे देश में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक लगातार स्तरहीन होते जा रही है। इस याचिका के अलावा ईमानदारीपूर्ण कदम उठाने की जरूरत है। मात्र एक गलत नियुक्ति को रद्द करवा देने से भविष्य में किसी बेहतरी की उम्मीद करना अत्यधिक आशावाद होगा। निश्चित रूप से जिन व्यक्तियों ने शिक्षा व्यवस्था में भ्रष्टाचार के प्रकरणों को सामने लाने के प्रयत्न किये हैं उन्हें चाहिये कि वे शिक्षा व्यवस्था में बदलाव के लिए व्यापक आंदोलन करें, निश्चित रूप से उन्हें जन समर्थन मिलेगा और संभव है कि शिक्षा व्यवस्था में बदलाव भी शुरू हो। शिक्षा व्यवस्था में भ्रष्टाचार के प्रकरणों को सामने लाने के प्रयत्न कियेलेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। *लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*

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