डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
सालम पंजा हिमालय और तिब्बत में 8 से 12 हजार फीट की ऊंचाई पर पैदा होता है। भारत में इसकी आवक ज्यादातर ईरान और अफगानिस्तान से होती है। अर्किडेसी पादप कुल का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण बहुवर्षीय पौधा है। इसकी जड़े राइजोम इंसान के हाथ की शक्ल की होने के कारण इसे हत्ताजड़ी के नाम से भी पहचाना जाता है। यूनानी चिकित्सा पद्धति में इसे बजिदान या सालेबमिसरी, कश्मीर में इसे सालम पंजा, हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखण्ड में हत्ताजड़ी, लेह लद्दाख में वांगलैक या अंगुलग्पा तथा अंग्रेजी में हिमालयन मार्श अर्किड के नाम से जाना जाता है।
आयुर्वेदिक, यूनानी, सिद्ध तथा होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धतियों में इस पौधे की जड़ों को बहुत गुणकारी बताया गया है। तदनुसार यह बल और वीर्य वर्धक, पौष्टिक और नपुंसकता नष्ट करने वाली औषधि है। वात पित्त का शमन करने वाली, वात नाड़ियों को शक्ति देने वाली शुक्र वर्धक व पाचक है। अधिक दिनों तक समुद्री यात्रा करने वालों को होने वाले रक्त विकार, कफजन्य रोग, रक्त पित्त आदि रोगों को दूर करती है। जंगलों से इसके अत्यधिक दोहन के कारण यह पौधा अति संकट ग्रस्त पौधों की श्रेणी में आ पहुँचा है। पुरानी लिखी हुई पुस्तकों तथा लेखों में जिन.जिन स्थानों पर इसकी उपलब्धता दर्शाई गई है यह पौधा अब उन स्थानों पर दिखाई नहीं देता है। साथ ही जिस मात्रा एवं संख्या में बताया गया है, वह मात्रा एवं संख्या भी अब वहाँ दिखाई नहीं पड़ती है। सालमपंजा का उपयोग शारीरिक, बलवीर्य की वृद्धि के लिए, वाजीकारक नुस्खों में दीर्घकाल से होता आ रहा है। बहुतायत में पाई जाने वाली औषधीय जड़ी.बूटियां अब एक.एक कर विलुप्त होती जा रही हैं।
यह पौधा विश्व के अनेक देशों में पाया जाता है। भारत में यह हिमालय क्षेत्रए विशेष रूप से तिब्बत, जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश में 2500 से 5000 मीटर की ऊँचाइयों पर प्राकृत रूप में उगता है। अन्य देशों में नेपाल, पाकिस्तान, भूटान, चीन, तिब्बत, उत्तरी अफ्रीका, यूरोप तथा सम.शीतोष्ण जलवायु वाले अन्य एशियाई क्षेत्र शामिल हैं। एक से दो फुट की ऊँचाई वाला यह पौधा बर्फीले चरागाहों में नम स्थानों पर ह्यूमस से भरपूर भूमि में, नदियों तथा जल स्रोतों के निकट उगता है जहाँ ग्रीष्मकालीन तापमन 15 से 18 डिग्री सेंटीग्रेड तथा सर्दियों में बेहद सर्दी पड़ती है और तापमान शून्य से नीचे रहता है। इन इलाकों में सर्दियों की बर्फ पिघलते ही इसका अंकुरण और वानस्पतिक वृद्धि शुरू हो जाती है और अगली सर्दी आने से पहले ही अक्टूबर तक यह अपना जीवन चक्र पूरा कर लेता है।
इसकी सर्वोत्तम बढ़वार के लिये अल्पाइन क्षेत्रों में पायी जाने वाली कार्बनिक पदार्थ और ह्यूमस से परिपूर्ण गहरे धूसर रंग की दोमट मिट्टी अच्छी होती है। इस मिट्टी की गहराई पर्याप्त होती है और पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण इसमें छोटे.मोटे कंकड़ पत्थर भी पाए जाते हैं जो इसमें वायु संचरण में सहायक होते हैं। औषधीय उपयोग के लिये इस पौधे की जड़ों का इस्तेमाल किया जाता है। इसकी जड़ें इंसान के हाथ की तरह होती हैं जिसमें 1.2 इंच लम्बी सफेद रंग की 2 से 5 उंगुलियाँ पाई जाती हैं। स्वाद में इसकी जड़ें हल्की मीठी होती हैं। इसके पुष्प लगभग 1.5 सेंटीमीटर लम्बे होते हैं जो इसके 5 से 15 सेंटीमीटर पुष्पगुच्छ पर घनी संख्या में लगे रहते हैं। इसकी जड़ें कामोत्तजक, पोषक, तंत्रिका तंत्र को सुदृढ़ बनाने वाली तथा शक्तिवर्धक गुणों से भरपूर होती हैं।
जड़ों से प्राप्त म्यूसिलेज जेली को निर्जलीकरण, दस्त तथा लम्बे समय से चल रहे बुखार के इलाज में प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसे पैरालिसिस के प्रभाव को कम करने में भी प्रयोग किया जाता है। यूनानी चिकित्सा पद्धति में इसे शीघ्र पतन, शुक्राणुओं की कमी, सेक्सुअल कमजोरी, स्त्रियों में डिलीवरी के बाद होने वाली शारीरिक कमजोरी, निर्जलीकरण तथा घावों के इलाज में इस्तेमाल किया जाता है। स्थानीय लोगों द्वारा इसे पेट दर्द, दस्त, खाँसी, त्वचा के जलने तथा कटने.फटने, फ्रैक्चर आदि अनेक समस्याओं तथा बीमारियों में प्रयोग किया जाता है।
विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं में सालम पंजे के अनेक पारम्परिक प्रयोग प्रचलन में हैं जो नीचे दिये गये हैं, हालांकि इनकी प्रामाणिकता का कोई ठोस वैज्ञानिक अध्ययन प्रकाशित नहीं है। अतः इस जानकारी को पढ़कर इनका इस्तेमाल करना हानिकारक भी हो सकता है। डॉक्टर की सलाह के बिना इनका प्रयोग न करें क्योंकि औषधियों का असर अनेक बातों पर निर्भर करता है और एक ही औषधि एक व्यक्ति के लिये अमृत और दूसरे के लिये जहर सिद्ध हो सकती है। सालम पंजे की अधिक माँग तथा कम उपलब्धता के कारण मिलावट के रूप में कई अन्य पौधों को इसके नाम पर बाजार में बेचा जाता है, जैसे अार्किस मेस्कुला तथा अार्किस लेक्सिलोरा की जड़ों को सालेप के नाम से बाहर से आयात कर भारत के बाजारों में बेचा जाता है। अार्किड प्रजाति का होने के नाते इस पौधे का प्रजनन धीमा होता है। अतः इसकी खेती तथा उत्पादन में थोड़ी कठिनाइयाँ आती हैं। इस कारण से यह पौधा संरक्षण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इसके प्राकृतिक स्रोतों से जितनी तेजी से इसका खनन किया जाता है उतनी तेजी से इसका पुनरुत्पादन नहीं हो पाता है। चूँकि इसके बीज बहुत छोटे तथा कम अंकुरण क्षमता वाले होते हैं बीजों द्वारा इसकी बुआई मे काफी कठिनाई आती है। इसकी प्राकृतिक अवस्था में इसके बीजों की अंकुरण क्षमता 20 से 30 प्रतिशत तक ही पायी गई है। इसलिये इसकी बुआई इसकी जड़ों द्वारा ही की जाती है।
अक्टूबर महीने में इस पौधे की बढ़वार समाप्त हो जाती है, पौधे का वानस्पतिक भाग सूख जाता है तथा जड़ें खुदाई के लिये तैयार हो जाती हैं। बाजार में बेचने के लिये खुदाई के बाद इसकी पंजेनुमा जड़ों को पानी में अच्छे से रगड़कर साफ किया जाता है ताकि इसका मूल सफेद रंग उभर कर आ जाए। उसके बाद इसे धूप में सुखाकर पैक किया जाता है। जम्मू और कश्मीर के श्रीनगर, ऊधमपुर तथा किश्तवाड़ मेंए हिमाचल प्रदेश के चम्बा तथा कुल्लू में, उत्तराखण्ड के रामनगर तथा टनकपुर आदि शहरों में इसकी खरीद फरोख्त की जाती है। भारत में इसकी खेती द्वारा उत्पादन में कमी के कारण इसे अफगानिस्तान, ईरान, टर्की, नेपाल आदि देशों से आयात किया जाता है। दिल्ली स्थित खारी बावली में इसका सबसे ज्यादा व्यापार होता है। इसकी प्रति किलोग्राम सूखी जड़ों का बाजार भाव लगभग 4.5 हजार रुपए होता है।
सालम पंजे की जड़ों में एक ग्लूकोसाइड लोरोग्लोसिन, एक कड़ुआ पदार्थ, स्टार्च, फॉस्फेट, क्लोराइड, म्यूसिलेज, एल्ब्यूमिन, शुगर बेहद अल्प मात्रा में, एक उड़नशील तेल पाया जाता है। प्रमुख क्रियाशील तत्वों में डेक्टायलोरिन.ए से लेकर डेक्टायलोरिन.ई तक, डेक्टायलोसेस.ए तथा बी एवं लिपिड्स आदि पाये जाते हैं। अनुसन्धान परीक्षणों द्वारा इसके फार्माकोलॉजिकल गुणों का भी अध्ययन किया गया है। तदनुसार इसकी जड़ों के एक्सट्रैक्ट में सभी ग्राम.निगेटिव तथा ग्राम.पॉजिटिव बैक्टीरिया के विपरीत प्रतिरोधक क्षमता पाई गई है। इसके अतिरिक्त इसके वायवीय भाग में भी कुछ चुनिन्दा बैक्टीरिया के विपरीत प्रतिरोधक क्षमता देखने में आई है। इस पौधे का एक्सट्रैक्ट ई। कोलाइ बैक्टीरिया, जो संश्लेषित दवाइयों के प्रति प्रतिरोधक है, को नियंत्रित करने में अत्यन्त कारगर पाया गया है। अतः इस पौधे के एक्सट्रैक्ट को दस्त उत्पन्न करने वाले बैक्टीरीया ईण्कोलाई को नियंत्रित करने वाली एंटी.माइक्रोबियल औषधि के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। वर्ष 2007 में किए गए एक वैज्ञानिक अध्ययन में यह पाया गया है कि यह सेक्सुअल क्षमता बढ़ाने में भी कारगर है। चूहों पर किए गए परीक्षण इस बात के भी पर्याप्त वैज्ञानिक संकेत देते हैं कि यह प्रौढ़ चूहों में टेस्टोस्टिरॉन नाम हॉर्मोन्स के स्तर में वृद्धि करता है। इसकी जड़ों की 1 किलोग्राम मात्रा एकत्रित करने के लिये लगभग 100 पौधों को जड़ से उखाड़ा जाता है जिसके कारण जिस क्षेत्र में खनन किया जाता है वहाँ इसकी संख्या अत्यन्त कम रह जाती है। बची संख्या स्थानीय पशुओं के चराने के दौरान जानवरों के खुरों द्वारा नष्ट हो जाती है। पौधा सूखने के बाद इसकी जड़ जमीन में ही दबी रह जाती है। जमीन में बस 1.2 इंच ही दबी होने के कारण पशुओं के खुरों से आसानी से नष्ट हो जाती है। इस पौधे को बचाने के लिये स्थानीय लोगों में गुड कलेक्शन एंड कंजर्वेशन प्रैक्टिसेज का प्रचार एवं प्रसार करना अत्यन्त आवश्यक है। गुड कलेक्शन एंड कंजर्वेशन प्रैक्टिसेज के अनुसार जंगल से किसी भी पौधे को एकत्रित करने तथा उखाड़ते समय कुछ महत्त्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना जरूरी होता हैए जैसे एक बार में समस्त पौधों को नहीं उखाड़ें और भविष्य में पुनः उत्पादन के लिये कुछ पौधों को छोड़ दें वरना उस स्थान से वह पौधा हमेशा के लिये समाप्त हो जाएगा। यदि किसी स्थान पर एक.दो ही पौधे हैं तो उन्हें तब तक न उखाड़े जब तक उनकी संख्या बढ़ न जाए। जिन पौधों की सिर्फ जड़ए कन्द या राइजोम को ही प्रयोग में लाया जाता है उन पौधों की सिर्फ जड़ कन्द या राइजोम को आंशिक रूप से निकाल लें तथा समूचे पौधे को न उखाड़ें। जागरूकता के अभाव में लोग अमूल्य औषधियों को नष्ट कर रहे हैं। इनको बचाने के लिए केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय औषधीय वनस्पति समिति का गठन किया। लेकिन इसकी सार्थकता अभी तक सामने नहीं आ सकी है। ऐसे में अमूल्य वनस्पतियों को बचाने का संकट खड़ा हो गया है। बुंदेलखंड क्षेत्र का ललितपुर जिला अनादिकाल से औषधीय वनस्पतियों के लिए विख्यात रहा है। इन्हीं गुणों के चलते च्यवन ऋषि ने यहां आश्रम बनाकर इन्हें विश्वभर में प्रचलित किया।
यहां विभिन्न प्रकार के गुणों से युक्त जड़ी.बूटियों का भंडारण है। यहां अश्वगंधा, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, सफेद मूसली समेत कई अन्य अमूल्य औषधियां मिलती हैं। वर्तमान आंकड़ों के तहत मूसली, अश्वगंधा, प्लाश, शंखपुष्पी, भूमि आंवला, खेर के बीज, गांद, कसीटा, धावड़ा, कमरकस जड़ी.बूटी विलुप्त हो गई हैं। केंद्र सरकार ने औषधीय पौधों सफेद मूसली, लेमन, मेंथा, पाल्मारोजा, अश्वगंधा जैसी औषधियों को बचाने के लिए औषधीय उद्योगों के मध्य समन्वय की आवश्यकता महसूस की। इसके बाद केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय औषधीय वनस्पति समिति का गठन किया गया। समिति ने 32 औषधियों के विकास को प्राथमिकता में रखा है। इनमें आंवला, अशोक, अश्वगंधा, अतीस, बेल, भूमि अम्लाकी, ब्राह्मी, चंदन, चिराता, गुग्गल, इसबगोल, जटामांसी, कालमेघ, कोकुम, कथ, कुटकी, मुलेठी, सफेद मूसली, पत्थरचुर, पिप्पली, दारुहल्दी, केसर, सर्पगंधा, शतावरी, तुलसी, वत्सनाम, मकोय प्रजाति के विकास की योजना बनाई। इनमें कुछ विशेष प्रकार की जड़ी.बूटियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। हालात यह हैं कि जागरूकता के अभाव में लोग इन औषधीय पेड़.पौधों को नष्ट कर रहे हैं। वर्तमान में अर्जुन के पेड़ों के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा हैं। दरअसल सहरिया आदिवासी लोग अर्जुन के पेड़ की छाल निकाल ले रहे हैं। इससे इन पेड़ों का विकास अवरुद्ध हो रहा है। कई छोटे पेड़ तो छाल निकलने के कुछ समय बाद उखड़ जाते हैं। संरक्षण की दृष्टि से प्रकृति में पेड़.पौधों एवं जीव.जन्तुओं के अस्तित्व पर नजर रखने वाली अन्तरराष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन अाफ नेचर ने इस पौधे को अति संकट ग्रस्त श्रेणी में रखा है।