डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
आर्थिक क्षेत्र में भारत को एक नया मॉडल अपनाने की आवश्यकता है। यह मॉडल अपनी प्रकृति में देशज और स्थानिक होगा। यह सत्य है कि कोरोना संकट ने भारत के सामने अपनी अर्थव्यवस्था के व्यापक विकास और अंतरराष्ट्रीय विस्तार का ऐतिहासिक अवसर उपलब्ध कराया है। इस संकट के फलस्वरूप विश्व बिरादरी में चीन की साख में जबरदस्त गिरावट आई है। अमेरिका से लेकर यूरोपीय और अफ्रीकी देशों में भारत की विश्वसनीयता बढ़ी है। यह बढ़ी हुई विश्वसनीयता कोरोना संकट से निपटने में भारत द्वारा प्रदर्शित अभूतपूर्व क्षमता और अंतरराष्ट्रीय सहयोग और समन्वय के लिए की गई उसकी पहल की परिणति है। इस समय भारत को भौतिक विकास की जगह वैकल्पिक सभ्यता के विकास को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।
भारतीय संस्कृति भौतिकतावादी कभी नहीं रही। वास्तव में वह मानव मूल्यवादी आध्यात्मिक संस्कृति है। भारत को फिर से अपनी जड़ों की ओर लौटते हुए विकास का एक वैकल्पिक मॉडल विश्व के सामने रखना चाहिए। इस वैकल्पिक मॉडल में ग्लोबलाइजेशन के बरक्स लोकलाइजेशन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। विगत माह पंचायती राज दिवस के अवसर पर अपने एक महत्वपूर्ण संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ग्राम स्वराज की स्थापना पर बल दिया था। उन्होंने भविष्य में मेक इन इंडिया को भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार बनाने का संकल्प भी व्यक्त किया है। इस ध्येय वाक्य को और सटीक और सार्थक बनाने के लिए ष्मेक इन रूरल इंडियाष् करने की आवश्यकता है। गांवों को आत्मनिर्भर बनाकर ही भारत को आत्मनिर्भर बनाने की शुरुआत हो सकती है। आज भारत के गांव शहरी जीवन.शैली और जीवन.मूल्यों के कूड़ाघर बन गए हैं। गांव से आत्मनिर्भरता, सामुदायिकता और मानवीय मूल्यों का लोप हो गया है। ग्रामीण जीवन के इन आधारमूल्यों का अपहरण आधुनिक औद्योगिक सभ्यता ने किया है। आज गांव ईष्र्या-द्वेष और क्लेश के अखाड़े हैं। वे विकृति, विद्रूप और व्यक्तिवाद के नवोदित महाद्वीप हैं। नशाखोरी और एकाकीपन वहां की नई जीवन.चर्या है।
अब ग्राम्य.संस्कृति की पहचान रहे प्राचीनतम मूल्यों की घरवापसी का स्वर्णिम अवसर है। संतुलित और सतत विकासए सीमित उत्पादन और संयमित उपभोग ही भविष्य का रास्ता है। भारत को विकास को परिभाषित करते समय पश्चिमी देशों का मुंह ताकना बंद करना चाहिए। भारत में ग्राम आधारित कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित करके और छोटे एवं मझोले उद्योग.धंधों को मजबूती प्रदान करके ही भुखमरी, बेरोजगारी तथा अपराध जैसी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। इन उद्योगों की मजबूती ही खुशहाली का प्रवेशद्वार है। इसी से अंत्योदय भी संभव होगा। हाशिये पर खड़े अंतिम जन की चिंता करके ही आधुनिक राज्य अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकता है उत्तराखंड के युवाओं का जीवन स्तर सुधारने और आर्थिक रूप से मजबूत करने में राज्य सरकार की नई उद्योग नीति बहुत सहायक हो सकती है। युवा चाहें तो सूक्ष्म, लघु व मध्यम श्रेणी उद्यमों के विकास की नीति से अपने साथ.साथ प्रदेश के हालात बदल सकते हैं।नई उद्योग नीति का लाभ पर्वतीय इलाकों में उठाया जा सकता है। इससे बेरोजगार युवा स्वरोजगार के साथ.साथ दूसरों को भी रोजगार देने वाले बन सकते हैं। रोजगार को शुरू करने के लिए बहुत कम पूंजी लगाकर अधिकतम फायदा उठाया जा सकता है। ज्यादा फायदा उठाने और रोजगार को सुचारु रूप से चलाने के लिए जरूरी है कि उद्यम शुरू करने से पहले समूची नीति को अच्छी तरह समझा जाए है। राज्य की नई उद्योग नीति के संबंध में स्वरोजगार शुरू करने के लिए यह सुनहरा मौका है। वित्तीय प्रोत्साहनों, अनुदान सहायता के लिए हरित व नारंगी क्षेत्र तय हैं। बेरोजगार युवा मिल्क प्रोसेसिंग, बटर, चीज व अन्य डेयरी उत्पाद में भाग्य आजमा सकते हैं। मुर्गी पालन, होटल, अवकाश कालीन खेल तथा रोप वे में उद्यम चालू किया जा सकता है। होटल मैनेजमेंट, कैटरिंग एंड फूड क्रॉफ्ट, डाइंग प्लांट, गैर परंपरागत ऊर्जा उत्पादन आदि सेक्टरों में स्वरोजगार की शुरुआत की जा सकती है। इसमें निवेश प्रोत्साहन योजना तथा ब्याज उपादान योजना शामिल है। स्टांप शुल्क में भी छूट है। विद्युत बिलों की भी प्रति पूर्ति हो सकती है। कम.से.कम 1990 था में उत्तराखंड के जिस ग्राम्यांचल में था, वह साग.सब्जी की आवश्यकता के मामले में आत्मनिर्भर था। अब भी कमोबेश वैसी ही स्थिति की मैं कल्पना करता हूँ। आत्मनिर्भर कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि वहाँ साग.सब्जी का प्रचुर मात्रा में उत्पादन होता था, अपितु यह कि वहाँ के मूल निवासी इस दैनिक आवश्यकता के लिए बाज़ार पर निर्भर न थे, जो थे, वे भी बहुत कम थे। उत्तराखंड के दैनिक आवश्यकता के लिए बाज़ार पर निर्भर न थे, जो थे, वे भी बहुत कम थे। हिमालयी राज्य उत्तराखंड में आज पलायन एक बड़ी समस्या बन चुकी हैण् गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं खेत.खलिहान बंजर हो रहे हैं और आबाद क्षेत्र अब वीरान हो रहे हैं।
पलायन रोकने की कोशिश तो बहुत हो रही लेकिन चुनौतियां प्रयासों पर भारी पड़ती नज़र आ रही हैंण् उत्तराखंड से राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी ने इस दिशा में केंद्र से विशेष सहयोग मांगा है प्रदेश में पोषक तत्वों से भरपूर मोटे अनाजों का रकबा लगातार घटता जा रहा है। हिमालय में ऊर्जा के स्रोत माने जाने वाले इन अनाजां को गरीबों की सेहत के लिए भी मुफीद माना जाता है। आज मंडुवा, रामदाना, रंयास, लोबिया, तिल, तोर, मादिरा, कौंणी, जौ, ज्वार, सिंघाडा आदि पहाड़ी मोटे अनाजों की मांग तो राज्य व प्रदेश से बाहर बहुत है, लेकिन आपूर्ति करने वाले उत्पादक अब गांवों में नहीं रह गए हैं। स्वास्थ्य व स्वाद का पर्याय रहे ये अनाज प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, फास्फोरस व अन्य पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। लेकिन अब ये विलुप्ति की तरफ हैं। यह तब हो रहा है जब केंद्र सरकार द्वारा मोटे अनाज को लोकप्रिय बनाने के लिए वर्ष 2018 को पौष्टिक धान्य वर्ष के रूप में भी मनाया जा चुका है।
कोविड.19 के कारण उत्तराखण्ड वापस लौटे लोगों को स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से शुरू की गई हैण् इससे कुशल और अकुशल दस्तकारए हस्तशिल्पि और बेरोजगार युवा खुद के व्यवसाय के लिए प्रोत्साहित होंगे। राष्ट्रीयकृत बैंकों, अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों और सहकारी बैंकों के माध्यम से ऋण सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी। राज्य सरकार द्वारा रिवर्स पलायन के लिए किए जा रहे प्रयासों में योजना महत्वपूर्ण सिद्ध होगी। सरकार कोई सामाजिक संस्था नहीं है कि वह एक क्षेत्र विशेष में विकास का नमूना पेश करने तक सीमित रहे। उसे तो समूची आबादी के बारे में सोचना चाहिए। ग्रामीण इलाकों को ध्यान में रखकर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा, भारत निर्माण जैसी कई योजनाएं अस्तित्व में हैं।
हालांकि, इनके अमल में बहुत.सी खामियां सामने आती रही हैं, पर इन खामियों को दूर कर योजना का ज्यादा कारगर क्रियान्वयन करने के बजाय ऐसी नीति क्यों अपनाई जा रही है, जिससे बाकी गांव खुद को उपेक्षित महसूस करें, अहम सवाल यह भी है कि सरकार के फैसलों और नीति.निर्धारण में भागीदारी करने वाले हमारे सांसदों को सरकार के फैसलों और नीतियों को अधिक जनपक्षीय बनाने पर जोर देना चाहिए या किसी खास गांव पर अपना ध्यान केंद्रित करने पर दरअसल गांवों को एक हद तक आत्मनिर्भर बनाकर, गांव के लोगों के लिए रोजी.रोजगार के साधन मुहैया कराकर ही गांवों का विकास संभव है। ऐसी व्यवस्था के बगैर गांवों की तस्वीर में कभी कोई मुकम्मल बदलाव नहीं हो सकता। जो भी बदलाव होगा, उसके भी टिकाऊ होने की कल्पना नहीं की जा सकती।