डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
सर्पगन्धा एपोसाइनेसी परिवार का द्विबीजपत्री, बहुवर्षीय झाड़ीदार सपुष्पक और महत्वपूर्ण औषधीय पौधा है सर्पगंधा। एक अंत्यत उपयोगी पौधा है, जोकि कई चीजों में काम में आता है, भारतवर्ष में समतल एवं पर्वतीय प्रदेशों में इसकी खेती होती है। पश्चिम बंगाल एवं बांग्लादेश में सभी जगह स्वाभाविक रूप से सर्पगन्धा के पौधे उगते हैं। सर्पगंधा द्बीजपत्री औषधीय पौधा है। सर्पगंधा भारत और चीन में एक प्रमुख औषधि है।
सर्पगंधा के पौधे की ऊंचाई मुख्यता 6 इंच से लेकर 2 फुट तक होती है। इसका तना एक मोटी खाल से ढका रहता है और यह गुच्छों में पाए जाते हैं। इसके फूल मुख्य रूप से गुलाबी और सफेद रंग के ही होते हैं। अगर आपको किसी भी रूप से सर्प काट जाए तो यह पौधा काफी उपयोगी होता है, क्योंकि जहां भी सर्प या बिच्छू ने आपको काटा है तो उस स्थान पर इसे लगाने से राहत मिल जाती है। इस पौधे की जड़, तना और पत्ती से कई चीजों का निर्माण होता है। इस पर अप्रैल से लेकर नंवबर तक लाल फूल लगते है। इसकी जड़े सर्पीली तथा 0.5 और 2.5 सेमी तक के व्यास की होती है। सर्पगंधा की जड़ों में काफी ज्यादा एक्ससाईड पाया जाता है, जिनका प्रयोग रक्तचाप, अनिद्रा, उन्माद आदि रोगों में होता है। यह कुल 18 माह की फसल होती है। इसे दोमट मिट्टी से लेकर कुल काली मिट्टी में उगाया जाता है। सर्पगंधा के औषधीय गुण मुख्यतः पौधे की जड़ों में पाये जाते हैं। सर्पगंधा की जड़ में 55 से भी ज्यादा क्षार पाये जाते हैं। लगभग 80 प्रतिशत क्षार जड़ों की छाल में केन्द्रित होते हैं। पौधे की जड़ों में सम्पूर्ण क्षार की मात्रा 0.8-1.3 प्रतिशत तक रहती है। सर्पगंधा के क्षारों को दो समूहों में बाँटा गया है।
एजमेलीन समूह तथा सर्पेन्टीन समूह। एजमेलीन समूह के अन्तर्गत एजमेलीन, एजमेलेलिनीन तथा एजमेलीसीन आते हैं। जबकि सर्पेन्टीन समूह के अन्तर्गत सर्पेन्टीन तथा सर्पेन्टीनीन आते हैं। अन्य में रेसर्पीन, रेसीनामीन योहीमबीन सर्पाजीन तथा रूकाफ्रीसीन जैसे क्षार आते हैं जिसमें सबसे महत्वपूर्ण रेसर्पीन होता है। अतः अब सर्पगंधा के क्षारों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। गहरे.पीत वर्ण के चतुर्थक एनहाइड्रोनियम समाक्षार मध्य प्रबल इण्डोलीन क्षार तथा कमजोर समाक्षारीय इण्डोल क्षार अंत की दो श्रेणियां वर्णहीन होती हैं। सर्पगंधा के पौधे की जड़ों में उपस्थित अजमेलीन, सर्पेन्टीन तथा सर्पेन्टीनीन क्षार केन्द्रीय वात नाड़ी संस्थान को उत्तेजित करते हैं। इसमें सर्पेन्टीन अधिक प्रभावशाली होता है।
उक्त तीन क्षारों सहित अन्य सभी क्षार तथा मद्यसारीय सत्व में शामक तथा निद्राकर गुण होते हैं। कुछ क्षार हृदय, रक्तवाहिनी तथा रक्तवाहिनी नियंत्रक केन्द्र के लिए अवसादक होते हैं। रेसर्पीन क्षार औरों की अपेक्षा अधिक कार्यकारी होता है। यह नाड़ी कन्दों में अवरोध उत्पन्न नहीं करता वरन् ऐसा आभास होता है कि रक्तचाप को कम करने का इसका प्रभाव कुछ अंश में स्वतन्त्र नाड़ी संस्थान के केन्द्रीय निरोध के कारण होता है। सर्पगंधा की जड़ों में क्षारों के अतिरिक्त ओलियोरेसिन, स्टेराल सर्पोस्टेराल, असंतृप्त एलकोहल्स, ओलिक एसिड, फ्यूमेरिक एसिड, ग्लूकोज, सुकरोज, आक्सीमीथाइलएन्थ्राक्यूनोन एवं खनिज लवण भी पाये जाते हैं। इन सब मंि ओलियोरेसिन कार्यिकी रूप से सक्रिय होता है तथा औषधि के शामक कार्रवाई के लिए उत्तरदायी होता है। सर्पगंधा की घटती जनसंख्या के बहुत से कारण है जिनमें अतिशोषण, कमजोर पुनर्जनन क्षमता, बढ़ती जनसंख्या के कारण कृषि क्षेत्रफल में विस्तार, वनविनाश, कीटनाशकों तथा खर.पतवारनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग तथा शहरीकरण प्रमुख हैं।
औषधीय तथा वाणिज्यिक उपयोग हेतु अतिशोषण सर्पगंधा की घटती जनसंख्या का प्रमुख कारण है। चूंकि सर्पगंधा के औषधीय गुण जड़ों में मौजूद होते हैं इसलिए जड़ों की प्राप्ति हेतु सम्पूर्ण पौधे को नष्ट करना पड़ता है क्योंकि पौधे को बगैर नष्ट किए जड़ों की प्राप्ति नहीं की जा सकती है। यही कमजोरी सर्पगंधा की निरन्तर गिरती जनसंख्या का एक प्रमुख कारण है। बढ़ती मानव जनसंख्या के कारण कृषि क्षेत्रफल में विस्तार के फलस्वरुप सर्पगंधा के प्राकृतिक आवास नष्ट हो कर कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित हो गये हैं। इसी प्रकार शहरीकरण के परिणामस्वरुप भी सर्पगंधा के प्राकृतिक आवास को क्षति पहुँची है जिसके कारण इस औषधीय महत्व के पौधे की जनसंख्या में गिरावट आयी है। आधुनिक कृषि में खर.पतवारनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग के कारण वांछित खर.पतवारों के साथ.साथ सर्पगंधा के भी पौधे नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रकार कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग के कारण परागण को बढ़ावा देने वाले उपयोगी कीट भी नष्ट हो जाते हैं जिससे परागण की प्रक्रिया प्रभावित होती है परिणामस्वरुप इस कीट परागित पौधे की प्रजनन क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
पारंपरिक रूप से उप.हिमालय क्षेत्र के वन सर्पगंधा वनस्पति के भण्डार रहे हैं लेकिन इन क्षेत्रों में वृहद पैमाने पर वनों की कटाई के कारण वन क्षेत्रफल में अभूतपूर्व कमी आयी है जिससे सर्पगंधा भी प्रभावित हुआ है। चूंकि सर्पगंधा एक महत्वपूर्ण औषधीय वनस्पति है अतः इसका संरक्षण आज समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यथास्थल संरक्षण तथा बहिः स्थल संरक्षण विधियों को अपनाकर देश में संकटग्रस्त सर्पगंधा को संरक्षण प्रदान किया जा सकता हैं। यथास्थल संरक्षण में सर्पगंधा के प्राकृतिक आवास का संरक्षण अति आवश्यक है, जिससे इसके प्राकृतिक आवास को सिकुड़ने से रोका जा सके। सर्पगंधा के प्राकृतिक आवासों को जीन अभयारण्य में परिवर्तित करने की आवश्यकता है। प्राकृतिक आवास का संरक्षण तथा उद्धार सर्पगंधा को स्वतः ही संरक्षण प्रदान करेगा। बहिः स्थल संरक्षण के अन्तर्गत सर्पगंधा को उसके प्राकृतिक आवास के बाहर सुरक्षित स्थान पर मानव सुरक्षा में वृहद पैमाने पर उगाने की आवश्यकता है जिससे पौधे को विस्तार तथा संरक्षण मिल सके। बहिःस्थल संरक्षण के तहत सर्पगंधा का संरक्षण जीन बैंक में जननद्रव्य के रूप में भी आवश्यक है।
इस बहुमूल्य वनस्पति को विस्तारित करने के लिए जैव.प्रौद्योगिकी के अन्तर्गत ऊतक संवर्द्धन जैसी आधुनिक तकनीक का उपयोग सर्पगंधा के संरक्षण हेतु समय की आवश्यकता है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में सर्पगंधा की खेती हेतु किसानों को प्रेरित तथा प्रोत्साहित करने की भी आवश्यकता है। सर्पगंधा की खेती से न सिर्फ इसके संरक्षण में सहायता मिलेगी अपितु किसान इससे आर्थिक लाभ भी कमा सकेंगे। सपगधा के एक एकड़ से ७.६ क्विटल शुष्क जड़ा आसानी से प्राप्त हो जाता हैसूखा जड़ा का बाजार भाव लगभग १५ भाव लगभग १५० रूपये किलो होता है। चूंकि जंगलों में यह विलुप्त हो रही है और तेजी से इसका प्रयोग बढ़ता ही जा रहा है। अतः आने वाले समय में इसके बाजार भाव में तेजी से हो रही है। सर्पगंधा की खेती में प्रति एकड़ 75 हजार खर्च करके कमाएं लाखों रूपये यदि किसान पारंपरिक फसलों की खेती के साथ औषधीय पौधों की खेती ठीक से करे तो वह काफी बढ़िया मुनाफा कमा सकता है। बिहार के पूर्णिया जिले के जलालगढ़ प्रखंड के किसान जितेंद्र कुशवाहा आज खुशहाली की जिंदगी जी रहे हैंण् उत्तराखंड राज्य में कृषिकरण को बढावा देने के लिए 28 प्रजातियों का चयन किया गया हैए जिनमें अतीसए कुटकीए सतवा, कूठ, जम्बू, गन्धरायण, तेजपात, सर्पगंधा, सतावर, तुलसी और बड़ी इलायची प्रजातियां मुख्य हैं। इनके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य भी घोषित करने का निर्णय लिया गया है राज्य सरकार को जड़ी बूटी खेती को प्रोत्साहन देने के लिए ठोस एवं कारगर नीति तैयार करनी चाहिए।
काश्तकारों की समस्याओं को समझते हुए उसका समाधान करना होगा। पद्मश्री प्रोफ़ेसर एएन पुरोहित ने कहा कि उत्तराखण्ड में जड़ी बूटी खेती की अपार संभावनाएं है। इसके लिए राज्य सरकार को ठोस कार्ययोजना तैयार करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि काश्तकारों को उनकी उपज का सही मूल्य उनके घर के पास ही मिलना चाहिए, इसके लिए विपणन हेतु बेहतर प्रबंधन करना होगा। गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दिया जाना होगा। साथ ही राज्य सरकार अपना लैंड बैंक तैयार करे उत्तराखंड में 40 हजार किसानों से परंपरागत खेती को छोड़ कर सगंध और जड़ी.बूटी की खेती को अपनाया है। इससे वर्तमान में प्रदेश में एरोमा और हर्बल का 120 करोड़ रुपये का कारोबार हो गया है। अब प्रदेश सरकार का बंजर भूमि पर एरोमा व जड़ी.बूटी का कृषिकरण करने पर फोकस है। इससे लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। सरकार का मानना है कि बंदरों और जंगली जानवरों की समस्या को देखते हुए परंपरागत खेती में बदलाव करने की जरूरत है। ताकि किसानों की आमदनी बढ़ सके। प्रदेश में सगंध पौध और जड़ी.बूटी की खेती करने के लिए अनुकूल वातावरण है। लंबे समय से इस दिशा में पहल की जा रही है। इसके बावजूद भी संभावनाओं के सापेक्ष सगंध और जड़ी.बूटी के उत्पादन को व्यावसायिक स्वरूप नहीं मिला है। प्रदेश में लघु और सीमांत किसानों की संख्या करीब 10 लाख है। वर्तमान में 40 हजार किसानों ने हर्बल खेती को अपनाया है।
पिछले कुछ सालों में सरकार को एरोमा और जड़ी.बूटी के कृषिकरण में सकारात्मक परिणाम मिले हैं। जिससे अब सरकार ने सगंध और जड़ी बूटी खेती को बढ़ावा देने पर फोकस किया है। सगंध और हर्बल कृषि उत्पाद को मार्केटिंग के लिए सरकार ने एमएसएमई नीति में एरोमा इंडस्ट्री लगाने के लिए अन्य उद्योगों से ज्यादा वित्तीय प्रोत्साहन का प्रावधान किया है। प्रदेश में एरोमा उद्योग लगने से सगंध और जड़ी.बूटी की खेती करने वाले किसानों को बाजार मिल सकेगा।मैदानी क्षेत्रों में सर्पगंधाए सतावर का उत्पादन किया जा रहा है। अन्दाजन एक एकड से 7.9 क्विंटल शुष्क जडें प्राप्त हो जाती है। सूखी जड़ों का बाजार भाव लगभग 150 रुपये प्रति किलो है। चूकि यह जगलों से तेजी से विलुप्त हो रही है तथा इसका प्रयोग बढ़ रहा है अतरू इसके बाजार भाव में लगातार तेजी की उम्मीद है। परंपरागत खेती के बजाय जड़ी.बूटी उत्पादन करके सल्ट ब्लॉक के दूरस्थ गांव मिझौड़ा के काश्तकार वीरेंद्र सिंह राणा सालाना दो लाख रुपये तक कमा रहे हैं। राणा बताते हैं कि शुरुआत में मुझे पागल कहने वाले लोग अब स्वयं इसे अपना रहे हैं। जिले के दूरस्थ ब्लॉक सल्ट में वाया बासोट से मछोड़ होते हुए हरड़ा के निकट का गांव है मिझौड़ा। जड़ी बूटियों के प्रति आकर्षण के चलते राणा अपनी बीस नाली जमीन में जड़ी बूटियों की खेती कर रहे हैं। इनमें मुख्य रूप से सतावर, गिलोय, बड़ी इलायची, चंदन, तेजपत्ता और सर्पगंधा आदि शामिल है। राणा साल में डेढ़ से दो लाख रुपये कमा लेते हैं। फसल तैयार होने में दो से ढाई साल भी लग जाता है। वह कहते हैं कि जड़ी बूटी उत्पादन के लिए किसान में धैर्य होना जरूरी है। इस कार्य में उनकी पत्नी माधुली देवी का भी विशेष सहयोग मिलता है। सर्पगंधा पर दे रहे ध्यान राणा का कहना है कि उन्होंने फिलहाल सर्पगंधा पर ध्यान देना शुरू कर दिया है। इसका एक किलो का दाम वर्तमान में सात सौ से एक हजार रुपये तक है। इसका उपयोग ब्लड प्रेशर की दवा में किया जा रहा है। जंगली जानवर भी नही करते नुकसान राणा कहते हैं कि जड़ी बूटियों की खेती के लिए उन्हें जड़ी बूटी शोध संस्थान गोपेश्वर तथा भेषज संघ अल्मोड़ा से मार्गदर्शन और सहयोग भी मिलता है। अब तो गांव के कुछ अन्य लोगों ने भी की खेती शुरू कर दी है। जड़ी.बूटी को जंगली जानवर और बंदर आदि से भी नुकसान नही होता है। भारतीय जलवायु में सफलतापूर्वक उगाये जाने वाले औषधीय पौधों में न केवल औषधि उपयोग बल्कि आर्थिक लाभ एवं वर्तमान मांग की दृष्टि से भी सर्पगंधा कुछ गिने चुने शीर्ष औषधीय पौधों में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। सर्पगंधा की जड़ का उपयोग कई रोगों के इलाज के लिए किया जाता है। जड़ को प्राप्त करने के लिए इस पौधे की कटाई की जाती है। जिससे आज यह औषधि विलुप्त होने के कगार पर है, अतः इसका संरक्षण आज समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।












