शंकर सिंह भाटिया
सीमांत जिले पिथौरागढ़ में शिक्षकों और किताब की चाहत में चल रहे छात्रों के आंदोलन का नारा है-‘‘हमन की चैं? शिक्षक और किताब’’। मतबल कि महाविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों को क्या चाहिए? शिक्षक और किताब। पढ़ाने वाले शिक्षकों और पढ़ने के लिए किताबों के बिना यदि कोई कालेज सिर्फ डिग्री देने का काम कर रहा है तो यह आज के प्रतियोगी युग में शिक्षा और छात्रों के भविष्य के साथ सबसे बड़ा खिलवाड़ है। पिथौरागढ़ के छात्रों ने इसी के खिलाफ आवाज उठाई है तो पूरे राज्य तथा देश से जहां तक इस आंदोलन की आवाज पहुंच रही है, उन्हें समर्थन मिल रहा है। लेकिन इस आंदोलन पर शक सिर्फ राज्य सरकार में उच्च शिक्षा राज्य मंत्री स्वतंत्र प्रभार धन सिंह रावत को हो रहा है, उनका कहना है कि पर्याप्त शिक्षक और एक लाख से अधिक पुस्तकें होने के बाद भी आंदोलन क्यों किया जा रहा है? उन्होंने सवाल उठाया है कि वास्तव में छात्र ही आंदोलन कर रहे हैं कि कोई बाहरी शक्ति इसके पीछे है?
आंदोलन कर रहे छात्रों का कहना है कि पिथौरागढ़ महाविद्यालय में शिक्षकों के 40 से अधिक पद रिक्त हैं। महाविद्यालय की लाइब्रेरी कबाड़खाना बन गई है। जिसमें 1980 से पहले की छपी किताबें फटे हाल में रखी गई हैं। जिन किताबों का लिखा इतिहास बता रहा है कि अभी सोवियत संघ का विघटन नहीं हुआ है, न ही जर्मनी की दीवार टूटी है। इसी से समझा जा सकता है कि इस प्रतियोगी युग में अपने को अपडेट करने में महाविद्यालय के छात्र अपने को कितना असहाय पा रहे हैं?
करीब 27 दिन से चल रहे इस आंदोलन पर देश भर की नजर है। उत्तराखंड सरकार भी इस आंदोलन से खुद को असहज महसूस कर रही है, इसीलिए उच्च शिक्षा राज्य मंत्री इस तरह के बयान दे रहे हैं। जब आंदोलन के बीच में छात्रों ने पूरे पिथौरागढ़ शहर में मौन जुलूस निकाला था तो जिलाधिकारी ने छात्रों के आंदोलन के करने के अधिकार पर ही सवाल उठा दिए थे। अब जिलाधिकारी खुद अनशन स्थल पर गए हैं। छात्रों की मांगों के समाधान की तरफ उन्होंने कुछ पहल भी की है, लेकिन छात्र इससे संतुष्ट नहीं हुए, इसलिए उनका आंदोलन जारी है।
यदि इस आंदोलन के पीछे राजनीति होती तो आंदोलनरत छात्र सीधे सरकार पर ही आरोप लगाते, लेकिन छात्रों ने इसके बजाय कुलपति से आग्रह किया है कि वे यहां आएं और हालात देखें। यह वाजिब भी है, क्योंकि महाविद्यालय की समस्याओं के लिए पहले प्रिंसिपल जिम्मेदार हैं, यदि मामला और आगे बढ़ता है तो कुलपति इसे देखेंगे। इसके बाद भी नेताओं को आंदोलन के पीछे राजनीति छिपी नजर आ रही है। नेता तो सावन के अंधे हैं, जिन्हें सबकुछ हरा ही हरा दिखाई देता है। उच्च शिक्षा राज्य मंत्री का कहना है कि पिथौरागढ़ महाविद्यालय में 120 शिक्षकों के पदों के सापेक्ष 105 से अधिक पदों पर शिक्षक कार्यरत हैं और महाविद्यालय में एक लाख से अधिक पुस्तकें हैं, फिर पुस्तकों और शिक्षकों के लिए आंदोलन क्यों किया जा रहा है?
मंत्री महोदय या तो आपकी जानकारी अधूरी है, या फिर आप पूरे मामले में लीपापोती करना चाहते हैं। महाविद्यालय में 120 पदों के सापेक्ष सिर्फ 65 पदों पर नियमित तौर पर शिक्षक नियुक्त हैं। महाविद्यालय की लाइब्रेरी में एक लाख से अधिक किताबें हो सकती हैं, लेकिन उनके एडीशन कब के हैं? क्या आपने यह देखने की कोशिश की है? इन लाख किताबों की हालत चिथड़ों जैसी हो गई है, चूंकि ये बहुत पुराने एडीनशन की हैं, इसलिए इन किताबों में नई जानकारी का नितांत अभाव है। इस तरह की पुरानी किताबें आप दस लाख भी भर दो तो क्या फर्क पड़ता है?
मीडिया के एक वर्ग ने इसे रचनात्मक आंदोलन ऐसे ही नहीं कहा है। नेताओं की चिंता अपनी सरकार की नाक बचाने की हो सकती है तो अफसरों की चिंता अपनी नौकरी बचाने की है। अपने-अपने स्वार्थों में डूबे जिम्मेदार लोगों को वास्तविक चिंता नजर ही नहीं आ सकती है। उन्हें छात्रों का भविष्य नजर नहीं आ रहा है।