शंकर सिंह भाटिया
जम्मू कश्मीर में धारा 370 के कुछ प्रावधान हटाने के दौरान सदन में गृह मंत्री अमित शाह ने जम्मू कश्मीर के विकास को सबसे बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश की थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी देश के नाम अपने संबोधन में जम्मू कश्मीर और लद्दाख के विकास पर सबसे अधिक फोकस किया। जम्मू कश्मीर से अलग कर लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाने के अपने निर्णय को सरकार ने 72 सालों से उपेक्षित इस पर्वतीय क्षेत्र के लिए नए युग की शुरूआत बताया। संसद में इस पर चर्चा के दौरान लद्दाख के सांसद जामवांग सेरिंग ने अब तक जम्मू कश्मीर राज्य में लद्दाख के साथ हुए सौतेले व्यवहार का आरोप लगाया तो उन्हें सदन में जबरदस्त समर्थन मिला। जब उन्होंने कहा कि छोटे-छोटे फंड और एक-एक योजना के लिए लद्दाख को तरसाया गया, तो उनकी बात में सच्चाई भी दिखी। केंद्र शासित प्रदेश घोषित होने की खुशी में पूरे लद्दाख में इस समय हो रहे जलसे इस पहाड़ी क्षेत्र की मुक्ति की दास्तां बयां कर देते हैं। तो क्या जम्मू कश्मीर राज्य में लद्दाख के उत्पीड़न का मामला उत्तराखंड के पहाड़ों के साथ पहले उत्तर प्रदेश और अब उत्तराखंड राज्य द्वारा किया जा उत्पीड़न जैसा नहीं है?
उत्तराखंड राज्य बने दो दशक पूरे होने जा रहे हैं। विशाल उत्तर प्रदेश में जिस पहाड़ के विकास की मांग के लिए आंदोलन किया गया, लड़ाई लड़ी गई, वह पहाड़ इन दो दशकों में और भी कितना पीछे चला गया है, यह किसी से छिपा नहीं है। पहाड़ में सड़कों का जाल जरूर बिछा है, लेकिन इसका लाभ मिलने के बजाय हानि ज्यादा हुई है। ये सड़कें पहाड़ में विकास के पथ बनने के बजाय पलायन की वाहक बने हैं। जहां-जहां सड़कें बनी हैं, वहां पलायन बड़ा है। पहाड़ों की शिक्षा व्यवस्था इस कदर बदहाल हुई है कि इस दौरान सरकार को तीन हजार स्कूल बंद करने पड़ रहे हैं। चिकित्सा व्यवस्था पूरी तरह चरमरा चुकी है। पहाड़ का बड़ा से बड़ा अस्पलात सिर्फ रेफर सेंटर बन गया है। पहाड़ में सिर्फ एक एनआईटी श्रीनगर, गढ़वाल में खुला, उसे मैदान में लाने के लिए किस तरह के षडयंत्र नहीं किए गए, छात्रों को भड़काया गया। सारे हथकंडे अपनाने के बाद श्रीनगर के जागरूक नागरिकों ने जब इसे प्रतिष्ठा का विषय बना दिया, नेताओं की नाक पर बन आई, तब उसी सुमाड़ी में इसे बनाने की मंजूरी मिल पाई, जिसे न जाने किन-किन षडयंत्रों में फंसाकर पहले रिजेक्ट कर दिया गया था। 85 प्रतिशत पर्वतीय भूभाग वाले इस राज्य की राजधानी को पहाड़ में स्थापित करने के मामले को सत्ताधारी पार्टियों ने इस कदर उलझा दिया है कि मामला ग्रीष्मकालीन राजधानी पर आकर अटक गया है।
लोक सभा में अनुच्छेद 370 पर बहस के दौरान लद्दाख के भाजपा सांसद जामवांग सेरिंग ने जिस तरह चहकते हुए अपनी बात रखी, वह आम लद्दाखी की प्रतिक्रिया थी। एक लाख वर्ग किमी से भी अधिक क्षेत्र में फैले भूभाग की पिछले 72 सालों से जिस तरह उपेक्षा होती रही, अब वहां के लोगों में आस जगी है कि केंद्र शासित प्रदेश बनकर लद्दाख की उपेक्षा के दिन अब शायद खत्म हो जाएंगे।
उत्तराखंड के पहाड़ों की उपेक्षा भी लेह लद्दाख से कम नहीं है, यह भी पिछले 72 सालों से हो रही है। पिछले उन्नीस सालों से यह ज्यादा बढ़ गई, जब उत्तराखंड को राज्य बनाया गया है। यह तय है कि साल दर साल इन पहाड़ों की हालत और खराब होती चली जाएगी। उत्तराखंड को मिलने वाला समस्त लाभ सिर्फ मैदान हड़प रहा है। यह प्रति व्यक्ति आय हो, जीडीपी ग्रोथ रेट हो, ऋण-जमा अनुपात हो या फिर विकास के दूसरे सभी मानक, सभी में पहाड़ के हक मारे जा रहे हैं। पलायन की हालत यह है कि पिछले सात-आठ साल में ही एक हजार से अधिक गांव खाली हो गए हैं। पहाड़ी गांवों के खाली होने की यह रफ्तार लगातार बढ़ती जा रही है। अब तक किसी भी सरकार ने पलायन को थामने के लिए कोई प्रयास नहीं किए। वर्तमान सरकार ने एक पलायन आयोग बनाकर इस पर कारगर पहल करने की कोशिश की, लेकिन जिस पलायन आयोग का मुख्यालय पौड़ी बनाया गया, वह खुद पलायन कर देहरादून के कैंप कार्यालय में आ गया। इन हालात में पलायन आयोग से पलायन रोकने के लिए किसी सार्थक पहल की उम्मीद की जा सकती है?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2017 के उत्तराखंड विधानसभा चुनावों में भाजपा के पक्ष में प्रचार करते हुए केंद्र तथा राज्य में भाजपा को जिताकर डबल इंजिन की सरकार बनाने की अपील की थी। उत्तराखंड की जनता ने इस अपील को स्वीकार करते हुए भाजपा को राज्य में प्रचंड बहुमत दिया था, लेकिन डबल इंजिन सरकार का भी कोई फायदा उत्तराखंड के पहाड़ों को नहीं मिला। इसी दौरान उन्होंने पहाड़ के पानी तथा पहाड़ की जवानी को थामने का भी आश्वासन दिया था, लेकिन पहाड़ के पानी तथा पहाड़ की जवानी को थामने की एक भी कोशिश होते हुए कहीं दिखाई नहीं देती।
जम्मू कश्मीर में इस समय जो घटित हुआ है, उसका परिप्रेक्ष बहुत विस्तृत है। उसके राष्टीय अंर्तराष्टीय निहितार्थ हैं। एक राज्य का विशेष दर्जा छीनने की राजनीति है। हम यहां पर इस पूरे घटनाक्रम पर जाने के बजाय सिर्फ लद्दाख को 72 साल बाद मिले न्याय पर केंद्रित होना चाहते हैं। लद्दाख के सांसद जामवांग सेरिंग के शब्दों में इस उत्साह को समझा जा सकता है। युवा सांसद के शब्दों में इस विस्तृत, तिरस्कृत पहाड़ की पीढ़ा को पढ़ा जा सकता है। केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद लद्दाख में उम्मीद की नई किरण दिखने लगी है। अब तक प्रशासनिक ढांचे तथा सरकारी नौकरियों, योजनाओं से दरनिकार किए गए इस भूखंड में रहने वाले वाशिंदों में देश की मुख्य धारा से जुड़ने की उम्मीद जगी है। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में उपेक्षित लद्दाख में पर्यटन, जड़ी-बूटी, सौर उर्जा समेत तमाम संभावनाओं से भरे भविष्य पर नजरें डाली। जिससे पूरे लद्दाख में उत्साह का माहौल है।
अप्रत्याशित रूप से सन् 2000 में जब उत्तराखंड राज्य की घोषणा की गई थी, पूरे उत्तराखंड में भी ऐसा ही उत्साह था। लेकिन 19 साल होते-होते मैदान ने पहाड़ के पूरे विकास को खींच लिया। पहाड़ राज्य बनने के दिन जिस स्थिति में था, इन उन्नीस सालों में सौ साल पीछे चले गया है। यह किस तरह हो रहा है, इसका एक उदाहरण यहां पर काफी होगा। सन् 2013 की आपदा में पहाड़ के पांच जिले बुरी तरह से प्रभावित हुए थे। अन्य पहाड़ी जिलों तथा मैदान में इस आपदा का कहीं कोई खास प्रभाव नहीं देखा गया था। लेकिन आपदा के बाद जब केंद्रीय सहायता पाने की बारी आई तो तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने प्रदेश के सभी 13 जिलों को आपदा प्रभावित घोषित कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि आपदा से सबसे अधिक बुरी तरह प्रभावित रुद्रप्रयाग जिले से अधिक आपदा राहत राशि हरिद्वार जिले को मिली, जबकि हरिद्वार सबसे कम आपदा प्रभावित जिला था। हरिद्वार के जनप्रतिनिधि अपनी ताकत के बल पर पहाड़ के बुरी तरह प्रभावित जिलों का पैसा खींचने में सफल रहे। पहाड़ के प्रतिनिधि हमेशा की तरह मुंह ताकते रहे। यही नहीं मुख्यमंत्री के इस आदेश की वजह से रुद्रप्रयाग तथा पिथौरागढ़ जैसे प्रभावित जिलों के लिए आई धनराशि हरिद्वार तथा देहरादून जिलों में खींच लाकर खर्च की गई। केंद्र सरकार ने 13 हजार करोड़ रुपये के आपदा पैकेज देने की घोषणा की थी। जिससे आपदा में टूटे हुए झूला पुल, मोटर पुल, स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र तथा लोगों के निजी घर बनाए जाने थे। आपदा में सबसे अधिक प्रभावित मंदाकिनी घाटी के पुल, झूला पुल जा तक नहीं बने। स्कूली बच्चे तक तारों के सहारे नदी पार कर जान जोखिम में डाल रहे हैं। लेकिन आपदा के पैसे से देहरादून की रिस्पना नदी समेत हरिद्वार तथा उधमसिंह नगर में दर्जनों पुल बन गए।
सन् 2003-04 में उत्तराखंड को औद्योगिक पैकेज मिला, एक भी उद्योग पहाड़ों में नहीं लगा। पहाड़ों के लाभ नहीं मिला इसलिए 2007-08 में पहाड़ों में उद्योग लगाने के लिए अलग से औद्योगिक नीति बनाई गई, इसका भी कोई लाभ पहाड़ों को नहीं मिला। अब जबकि पहाड़ों की जमीन बचाने की आवाज चारों तरफ से उठ रही है, निवेश बढ़ाने के नाम पर भू अध्यादेश को दरकिनार कर जमीन लेने की खुली छूट दे दी गई, लेकिन पहाड़ों में कहीं से भी पूंजीनिवेश होने की सूचना नहीं आई है। यह साबित करता है कि सरकारों की नीतियां पहाड़ों में विकास नहीं ला सकती, सिर्फ विनाश कर सकती हैं। लद्दाख की तरह उत्तराखंड में पर्यटन, जड़ीबूटी, सौर उर्जा, जल विद्युत उर्जा की अपार संभावना है। अब तक की कोई भी सरकार पहाड़ के अनुकूल इन नीतियों का लाभ लोगों तक पहुंचा पाने में सफल नहीं हो सकी है। अब तो हालत यह है कि जड़ी-बूटी प्रदेश का दावा करने वाली सरकार ने किसानों के कृषिकरण से पैदा होने वाली उपज के दाम तय करने के बजाय जड़ी-बूटी के सबसे बड़े खरीददार स्वामी रामदेव की पतंजलि को मूल्य तय करने का अधिकार दे दिया है।
जो हालात आज उत्तराखंड के हो गए हैं, उनमें पहाड़ों के बच पाने की कोई उम्मीद दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती है। इसके लिए उत्तराखंड के राजनीतिक नेतृत्व की सोच और प्रदेश में सरकार चाहे भाजपा की हो या कांग्रेस की, केंद्र के हाथ में सरकार की लगाम होना, सबसे अधिक जिम्मेदार है। हालात दिन प्रतिदिन और खराब होते जा रहे हैं, दो दशक में जर्जर हो चुका पहाड़ अगले एक और दशक में रसातल में जा चुका होगा। 2026 में जब देश में संसदीय तथा विधानसभा सीटों का अगला परिसीमन होगा, पहाड़ का प्रतिनिधित्व तब पूरी तरह से सिमट चुका होगा। तब पहले से ही कमजोर पहाड़ की आवाज खामोश हो चुकी होगी।
इन हालातों से पहाड़ को बचाने के लिए दो रास्ते बचते हैं। एक उत्तराखंड में हिमाचल प्रदेश की तरह कोई डा. वाईएस परमार पैदा हो जाए। जिसकी संभावनाएं फिलहाल न के बराबर है। उत्तराखंड में क्षेत्रीय दलों का नेतृत्व मर चुका है। दिल्ली की छत्रछाया में पलने वाला राष्टीय दलों का राज्य स्तरीय नेतृत्व वाईएस परमार जैसा पहाड़ समर्पित नहीं हो सकता। यह बात अलग है कि परमार भी तब कांग्रेस पार्टी से ही थे। यहां सिर्फ चमचे ही पैदा हो सकते हैं, जो यहां की जरूरतों के बजाय दिल्ली के आंकाओं का हुक्म बजाने में जुटे रहते हैं। दूसरा रास्ता पहाड़ों को केंद्र शासित प्रदेश बनाने का है। लद्दाख की तरह उत्तराखंड भी दो देशों की सीमा से लगा हुआ है। सीमांत गांवों को जनशून्य होने से बचाने के लिए सिर्फ यही एक मात्र रास्ता बचता है। क्या सिर्फ देश को आंखें दिखाने वालों के लिए किसी राज्य का पुनर्गठन होगा? एक पूरे मध्य हिमालयी क्षेत्र को बर्बाद होने से बचाने के लिए यह कदम नहीं उठाया जाना चाहिए? पहाड़ के हालात बेहतर होने पर मैदान के साथ उसका पुनर्गठन भी किया जा सकता है। इसलिए मोदीजी उत्तराखंड के मामले में अपना वायदा निभाने का यह वक्त आ गया है। कल्पना कीजिये यदि उत्तराखंड के संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र को लद्दाख की तरह केंद्र शासित प्रदेश बना दिया जाए, तो स्थिति क्या होगी?