डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
पौराणिक काल का हिमवंत प्रदेश जो आज उत्तराखंड के नाम से अपनी अलौकिक सुंदरता को समेटे हुए देश-विदेश के सैलानियों को अपनी ओर आकर्षित करते आ रहा है, वह वर्तमान में पर्यावरण की दृष्टि से भीषण खतरे में है। इस भीषण खतरे का प्रमुख कारण यहां की धरातलीय पारिस्थितिकीय तंत्र से छेड़छाड़ करना रहा है। हम जिन विकास की योजनाओं की तलाश में यहां की सुंदर नदी घाटियों में विचरण कर इनके शरीर को नोच रहे हैं, उनका वास्तव में हमने अभी तक अपनी उत्तराखंडी रीति रिवाज और धार्मिक तीज-त्योहारों के आधार पर न तो अध्ययन ही किया है और न ही इस धरती के संरक्षण में इनकी पूजा पद्धति क्या है पर ध्यान दिया।
इस धरती के लोगों की अपनी धरा के प्रति इस प्रकार की पवित्र भावना रही है। यह पवित्र अवधारणा यहां के पूर्वजों की प्रकृति के गुणों की असली पहचान के आधार पर प्रकृति को ही देवी-देवताओं का रूप मानकर प्रकृति का संरक्षण और संवद्र्धन करना यथेष्ट रहा है, परंतु आज जिस तरह से यहां की धरती पर विकास की संभावनाएं तलाश करने के लिए प्रकृति का दोहन हो रहा है इसे देख कर लगता है कि इन सुंदर वादियों का अस्तित्व कुछ ही समय के लिए बचा है। हमने आज से 40 वर्ष पूर्व जिस तरह से इस धरती का रूप सौंदर्य देखा था, वह हरी-भरी धरती का रूप सौंदर्य अब कहीं भी नजर नहीं आता है। यहां की धरती पर जलवायु परिवर्तन का विषम हो जाना, अब तक यहां पर प्राकृतिक आपदाएं अपने विकराल रूप में यहां के जन मानस को जन-धन की हानि के कई उदाहरण दे चुका है, फिर भी मनुष्य न जाने इन आपदाओं से सबक क्यों नहीं ले पा रहा है। हम वर्ष 2013 के दिनांक 16 एवं 17 तारीख के उस महा प्रलय को कभी नहीं भूल सकते हैं जिसने केदार घाटी में महा जल प्रलय को जन्म दिया था। आज हम उस घटना को मानो एक सपने की तरह भूल चुके हैं। आज फिर इस घाटी में बहुमंजिला होटलों और रेस्टोरेंटों को देखकर ऐसा लगता है मानों 2013 में जैसे कुछ हुआ ही नहीं। जिस धरा को धार्मिक आस्था के रूप में धरती का स्वर्ग कहा जाता है, जहां ध्यान धारण से अलौकिक शक्ति की प्राप्ति होती है, जहां की जलवायु में प्राकृतिक गुणों से परिपूर्ण हमें एक अलग ही पहचान देती आई है, उस धरती पर पर्यावरण प्रदूषण के कारण प्राकृतिक आपदाओं का निरंतर विकराल रूप धारण करना अब अच्छा संकेत नहीं है। फिर भी मानव द्वारा विकास के नाम पर यहां की प्राकृतिक संरचना के साथ छेड़छाड़ करना यहां के जीव जगत के साथ घोर अन्याय ही कहा जा सकता है। हिमालय की उच्च श्रृंखलाएं पृथ्वी का तापमान संतुलित बनाए रखने में तथा धरती पर अनेकों जीव-जंतुओं की उत्पत्ति और संरक्षण में अग्रणी भूमिका निभाते आया है, परंतु हिमालय के बहुत से स्थानों पर मनुष्यों का आवागमन हिमालयी क्षेत्र के लिए दिन प्रतिदिन संकट पैदा करने वाला बनता जा रहा है जो हिमालयी क्षेत्र कभी गाड़ियों से निकलने वाले धुएं से बहुत दूर हुआ करता था, आज हजारों नहीं लाखों गाड़ियों के आवागमन से निकलने वाला धुंआ यहां की वनस्पतियों को नष्ट कर रहा है।उत्तराखंड के प्राकृतिक स्वरुप का निर्माण करने में बर्फ, पानी, चट्टान और वनों की भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण रही है। जहां बर्फ ने ऊंचाइयों में चौरस मैदान बना दिए थे वहीं बर्फ से जन्मी नदियों ने पूरे उत्तराखंड को आड़े तिरछे रूप में विभाजित कर सुन्दर घाटियों को जन्म दिया। ऊंचे बुग्याली क्षेत्र यहां के पशुपालकों के लिए वरदान सिद्ध थे तथा घाटियों में कृषि उत्पादन का कार्य यहां की आजीविका का प्रमुख साधन था। आज स्थिति यह है कि न हमारे पास पशुपालन है और न ही कृषि उत्पादन। आज इन प्रमुख साधनों के स्थान पर संपूर्ण नदी घाटी और बुग्याली क्षेत्र पर्यटकों के लिए सैर-सपाटा वाले स्थान बनते जा रहे हैं। जिन स्थानों को हमने मौज-मस्ती और सैर-सपाटा के लिए चुनकर अपनी प्रमुख आजीविका का साधन मान लिया है वह स्थान कभी धार्मिक आस्था के स्वरुप प्रदूषित न हो यहां पर हर किसी का आवागमन न हो वर्जित था। क्योंकि जैव विविधता पर किसी प्रकार का दुष्प्रभाव न पड़े, यहां के जन मानस ने प्रकृति का संतुलन निरंतर बना रखा। अपने अनुभवों के आधार पर कुछ विशेष प्राकृतिक गुणों वाले और आपदा की दृष्टि से अति संवेदनशील स्थानों पर आना जाना यहां के लोगों ने वर्जित किया था जैसे :- बुग्याली क्षेत्रों में पशुपालक ही जा सकते हैं, क्योंकि उनके पास भौगोलिक स्थिति के अनुसार आवागमन और पशुओं चुगान का अच्छा खासा अनुभव रहता थ,ा ऐसे स्थान पर बच्चों के लिए और कमजोर शरीर वालों के लिए अत्यंत वर्जित था, क्योंकि फूल फुल्यारी के समय (वसंत ऋतु, शरद ऋतु के समय) समूचे घनी वनस्पति वाले स्थान तो बच्चों और युवा-युवतियों के लिए विशेष रुप में वर्जित था, क्योंकि फूलों की सुगंध नई-नई जड़ी-बूटियों की सुगंध शरीर में प्रवेश करती थी तो बेहोशी का डर रहता था। साथ ही ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं में आक्सीजन की कमी का भंयकर डर सता देना होता था। इसलिए ऐसे स्थानों पर एड़ी आछरियों और बणद्यो (वन देवताओं) का भय दिया जाता था। वर्षा ऋतु में तो आवागमन बिल्कुल निषिद्ध कर दिया जाता था। इसके लिए भूत-पिशाच एवं शमशान का भय देकर प्रतिबंध लगाया जाना सब मानते थे। ऐसे कई प्रकार के प्रतिबंध उत्तराखंड की धरती पर निवास करने वाली विभिन्न मानव समुदाय के बीच यह प्रथा प्रचलित थी। उत्तराखंड की धरती की बनावट की अच्छी खासी जानकारी रखने वाले यहां के लोग भूस्खलन, भूकंप, अतिवृष्टि वाले क्षेत्र एवं ग्लेशियरों का पिघलकर नीचे आने वाले स्थानों पर कब रहना है और कब छोड़ना है, इसकी जानकारी सभी लोगों थी और इसी के आधार पर कृषि कार्य और पशुपालन चरण वध तरीके से करते थे, इसका ज्वलंत स्वरुप उदाहरण आप नदी घाटियों के आर-पार और ऊपरी स्थानों पर बने खेतों के बंजर आकार आज भी देख सकते हैं। उत्तराखंड में भवन निर्माण कृषि कार्य के औजार और अन्य कई प्रकार की शिल्पकला के कार्यों का अनुभवी शिल्पकार समाज द्वारा उत्तराखंड के अस्तित्व की पहचान में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह समाज अति प्राचीन काल से इस धरती पर मूल निवासी समाज रहा है। शिल्पकार जाति मानव शास्त्रीय अध्ययन के आधार पर वर्तमान समाज की संरचना में कोल, मुंड, किरात, हुण, मंगोल, खस, शक, द्रविड़, आभीर, गुर्जर आदि जातियों की यह सहकार जाति रही है, परंतु अछूत नहीं थी, यह प्रथा बाद के कालखंडों में आगमनकारियों की घृणित गुलाम गिरी की धारणा ने जन्म दिया है। यह जाति जो कि कोल मुंड वंशज से निकली हुई वर्तमान शिल्पकार जाति है यही यहां की गढ़वाली और कुमांऊनी बोली के सृजनकर्ता भी रहे हैं। इस समाज की शिल्पकला यहां की धरातलीय पारिस्थितिकीय तंत्र पर आधारित रही है।उत्तराखंड की धरती पर अनादि काल से निवास करने वाली जाति ने यहां की भौगोलिक बनावट के आधार पर अपने रहन-सहन, खान-पान और व्यवसाय के रूप में क्या अपनाया जाना उचित है एक अच्छा खासा अनुभव यहां के लोगों में था, क्योंकि यहां के लोगों में पशु चारण और कृषि उत्पादन ने महारत हासिल थी। उत्तराखंड के भूगोल ने यहां के निवासियों की मानसिक और शारीरिक रचना को अपने अनुकूल बनाया है। यहां एक ओर धरती का प्राकृतिक रूप में सर्वाधिक सुंदर और आकर्षित होना पाया जाता रहा है, तो दूसरी ओर यहां के लोगों का जीवन प्रारंभ से ही कष्ट और संघर्षशील होने के बावजूद भी इनमें संतोष करने वाला जीवन रहा है, फिर भी यहां के लोगों में धैर्य और साहस के साथ-साथ अपने कार्यों के प्रति ईमानदारी कूट-कूट कर भरी हुई है जो आज भी यथावत है।साल 2025 उत्तराखंड के लिए एक कड़ी चेतावनी है। 2013 की त्रासदी से सीखने के बावजूद यदि राज्य फिर से इतनी बड़ी आपदा से जूझ रहा है, तो यह स्पष्ट है कि हमें अपनी विकास नीतियों और आपदा प्रबंधन रणनीतियों पर गहन पुनर्विचार करना होगा।उत्तराखंड केवल एक राज्य नहीं है, बल्कि यह पूरे देश की आस्था और प्राकृतिक धरोहर का प्रतीक है। यदि समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए गए तो आने वाली पीढ़ियों को इसका खामियाजा और भी गंभीर रूप में भुगतना पड़ सकता है।आपदा का असर राजनीतिक स्तर पर भी देखा जा रहा है। विपक्ष लगातार सरकार पर आरोप लगा रहा है कि आपदा से निपटने की तैयारियां पर्याप्त नहीं थीं। वहीं, सरकार का कहना है कि उसने हर संभव प्रयास किया और भविष्य में बेहतर रणनीति बनाई जाएगी।सामाजिक स्तर पर भी आपदा ने गहरी चोट दी है। हजारों परिवार बेघर हो गए हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं ठप हो गई हैं। बच्चों की पढ़ाई बाधित हुई है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पूरी तरह हिल गई हैं, *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*