डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला :
उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है कि यहां पर्वतीय क्षेत्रों में गांव बहुत दूर-दूर हैं। एक कोने में गांव तो दूसरे कोने में ब्लाक अथवा जिला मुख्यालय। ऐसे में स्वास्थ्य सेवाओं को पूरी तरह दुरुस्त नहीं किया जा सका है। आज भी पर्वतीय गांवों से ग्रामीण मरीजों को पालकी अथवा कुर्सी पर बिठा अपने कंधों पर उठाकर मुख्य सड़क तक लाते हैं।
इसके बाद कहीं जाकर मरीज अस्पताल पहुंचता है। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में स्वास्थ्य उपकरण पूरे नहीं हैं। ऐसे में प्रदेश सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों से मरीजों को बड़े अस्पतालों तक लाने के लिए हेली एंबुलेंस चलाने का निर्णय लिया। वर्ष 2016 में एंबुलेंस के लिए केंद्र से स्वीकृति भी मिली। तब कुछ कारणों से इसका संचालन नहीं हो पाया। इसके बाद बीते दो वर्ष से प्रदेश सरकार लगातार नेशनल हेल्थ मिशन से इसकी मांग कर रही है लेकिन केंद्र, प्रदेश के इस प्रस्ताव को नकार रहा है।आपदा की दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड में मानसून का सीजन हमेशा ही भारी पड़ता है। पहाड़ों में भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएं इस सीजन में सबसे अधिक होती हैं।
इस वजह से सैकड़ों गांव खतरे की जद में आ गए हैं। इन गांवों के लिए बरसात का मौसम सबसे डरावना होता है। सरकार इन गांवों की स्थिति से अनजान भी नहीं है। एक सर्वे में सरकार ने 421 ऐसे गांवों को चिह्नित किया, जिन्हें विस्थापित करने की सबसे अधिक जरूरत महसूस हुई। इसके लिए बाकायदा वर्ष 2011 में आपदा पुनर्वास नीति बनाई गई, ताकि इन गांवों को जल्द किसी दूसरी जगह विस्थापित किया जा सके। बावजूद इसके आज तक केवल 43 गांवों के 1086 परिवारों का ही पुनर्वास हो पाया है।
शेष गांवों के लिए अभी तक जमीन नहीं मिल पाई है। ऐसे में इन लोगों को अभी भी हर पल खतरे के साये में जीना पड़ रहा है। इधर कुमाऊं के पिथौरागढ़ में बारिश के बीच पहाड़ी दरकने से कैलास-मानसरोवर मार्ग भी बंद हो गया है। इसके अलावा पिथौरागढ़ जिले में ही टनकपुर-तवाघाट हाईवे पर कनालीछीना के पास बंद है। चम्पावत में धौन के पास और अल्मोड़ा-घाट मार्ग पर भी मलबा आने से यातायात ठप है।मौसम विभाग के अनुसार प्रदेश के पिथौरागढ़, बागेश्वर, रुद्रप्रयाग, देहरादून, चम्पावत, नैनीताल, अल्मोड़ा और टिहरी में भारी बारिश हो सकती है। मैदानी जिलों में बारिश के साथ ही 30 से 40 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से हवा चल सकती है।
गढ़वाल से लेकर कुमाऊं तक बारिश के चलते कई जगह मलबा आने से सड़कें बंद हो गईं। देहरादून के निकट मालदेवता में भूस्खलन के चलते मलबा आने से टिहरी जाने वाला मार्ग बंद हो गया है। मलबा कई घरों में घुस गया और इससे खेतों को भी नुकसान पहुंचा है। उत्तराखंड के सुदूर पहाड़ी क्षेत्रों में बड़े अस्पताल और स्वास्थ्य सुविधाएं नदारद हैं। ऐसे में जिला मुख्यालयों पर अस्पतालों तक मरीजों को पहुंचाना मुश्किल काम है। कुमाऊं में अभी एक मरीज को अस्पताल पहुंचाने में तीन दिन लग गए। एक और मामले में एक मरीज को अस्पताल पहुंचाने के लिए परिजनों को 42 घंटे पैदल चलना पड़ा।
दुर्गम पहाड़ी इलाकों में सैकड़ों गर्भवती महिलाएं स्वास्थ्य सहूलियतों के अभाव में प्रसव के वक्त दम तोड़ देती हैं। ऐसे में एनएचआरएम के तहत अगर एयर एंबुलेंस की सुविधा होती तो न सिर्फ हजारों जाने बचाई जा सकती थीं बल्कि तीन दिन या 42 घंटे पैदल न चलना पड़ता। प्रदेश में वर्तमान में 51 हेलीपैड के साथ ही दो एयरपोर्ट और तीन हवाई पट्टी है। लेकिन कई हेलीपैड पर बुनियादी ढांचे और यात्री सुविधाओं का विकास नहीं हुआ है। स्वास्थ्य के मोर्चे पर उत्तराखंड की स्थिति काफी विकट है। प्रदेश के 13 जिलों में से आठ जिले तो शुद्ध रूप से पहाड़ी हैं। ऐसे में प्रदेश को एयर एंबुलेंस की दरकार है।
उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में राहत एवं बचाव कार्यों के लिए एयर एंबुलेंस की जरूरत की सबसे पहली वजह सड़क हादसे हैं। परिवहन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में हर साल औसतन 951 लोग सड़क हादसों में मारे जाते हैं। प्रति दुर्घटनाओं में 64 लोगों की मौत हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक हैं कि 100 किमी के फासले पर एक ट्रामा सेंटर होना चाहिए ताकि दुर्घटनाओं के शिकार लोगों को तत्काल इलाज देकर उनकी जिंदगी बचाई जा सके।
लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में ट्रामा सेंटर तो छोड़िये अस्पतालों के खराब हालात हैं। उत्तराखंड के पर्वतीय गांवों में महिलाएं रक्त अल्पता की शिकार हैं। पोषक तत्वों के अभाव और कठोर परिश्रम के कारण उनमें रक्तस्राव की समस्या होती है। कई बार इलाज में देरी के कारण उनकी मौत भी हो जाती है। नीति आयोग की हाल ही में जारी एसडीजी इंडेक्स में उत्तराखंड प्रति लाख महिलाओं पर 99 की मौत हो जाती है। जबकि आदर्श मानक प्रति लाख पर 70 मौतों का है।
पहाड़ में हार्ट अटैक और ब्रेन स्ट्रोक के मामलों में इलाज की सुविधाएं ना के बराबर है। ऐसे मामलों में इलाज की तत्काल जरूरत होती है। लोगों के पास देहरादून, हल्द्वानी या रुद्रपुर स्थित अस्पतालों में इलाज कराने के सिवाय कोई चारा नहीं है। पहाड़ के जनमानस के जीवन में शूल की तरह चुभने वाले ये पांच जख्मों का एक ही इलाज है कि या तो सरकार पर्वतीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं को शहरी क्षेत्रों की तरह मजबूत बनाए या फिर रोगियों और दुर्घटनाओं में घायल होने वाले लोगों को तत्काल हायर सेंटर में इलाज कराने के लिए एयर एंबुलेंस की सेवा को शुरू तो जिंदगियों को बचाना संभव है।