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उत्तराखंड में सबसे ज्यादा दिख रहा जलवायु परिवर्तन का असर

23/11/25
in उत्तराखंड, देहरादून
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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है. बदलता मौसम, अनियमित वर्षा और तापमान में उतार-चढ़ाव के कारण राज्य की जैव विविधता गंभीर रूप से प्रभावित हो रही है. हिमालयी क्षेत्र में स्थित होने के कारण उत्तराखंड का पर्यावरण हमेशा संवेदनशील रहा है लेकिन हाल के वर्षों में यहां प्राकृतिक संतुलन तेजी से बिगड़ रहा है. उत्तराखंड के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे नदियों के जलस्तर में अस्थिरता देखने को मिल रही है. यह न सिर्फ पानी की उपलब्धता को प्रभावित कर रहा है बल्कि इससे अचानक बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं भी बढ़ रही हैं.जलवायु परिवर्तन पर रिसर्च करने वाली कंपनी ट्राई इंपेक्ट ग्लोबल के सीईओ ने बताया कि उत्तराखंड के ग्लेशियर के पास होने के कारण यहां क्लाइमेट चेंज का सबसे ज्यादा असर पड़ रहा है. गंगोत्री और पिंडारी ग्लेशियरों के आकार में तेजी से कमी आ रही है, जो भविष्य में जल संकट का संकेत दे रही है. राज्य में जलवायु परिवर्तन का असर खेती पर भी दिख रहा है. पारंपरिक फसलें जैसे- झंगोरा, चौलाई और मंडुवा का उत्पादन घट रहा है. वहीं सेब और अन्य फलों की फसलें भी प्रभावित हो रही हैं, जिससे किसानों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ रहा है. प्राकृतिक जल स्रोतों का जलस्तर भी गिर रहा है, जिससे स्थानीय लोगों को पानी की समस्या का सामना करना पड़ रहा है. हिमालय की गोद दिन प्रतिदिन बढ़ती दैवीय आपदाओं के कारण असुरक्षित होती जा रही है। पहाड़ी क्षेत्रों में भयंकर भूकंप, भूस्खलन की संभावना रहती है। इसके अतिरिक्त प्रदेश पर बाढ़, जंगल की आग, ओलावृष्टि, आकाशीय बिजली, सड़क दुर्घटना आदि आपदाओं का खतरा मंडराता रहता है। इन आपदाओं से मानव जीवन, बुनियादी ढांचे, संपत्ति और अन्य संसाधनों को भारी नुकसान पहुंचता है। जलवायु परिवर्तन से उपजी पर्यावरणीय चुनौतियाँ आज मानव सभ्यता के अस्तित्व तक को प्रभावित कर रही हैं। जलवायु परिवर्तन अब कोई दूर का वैज्ञानिक विचार नहीं, बल्कि तत्काल अनुभव किया जाने वाला यथार्थ है, जिसकी भयावहता का प्रमाण सीएसई और डाउन टू अर्थ की क्लाइमेट इंडिया 2025 की रिपोर्ट में स्पष्ट दिखाई देता है। जनवरी से सितंबर 2025 तक भारत ने अपने 99 प्रतिशत दिनों में किसी न किसी चरम मौसमी घटना-बाढ़, सूखा, भारी बारिश, तूफान, ठंड-लहर, अथवा भीषण गर्मी का सामना किया। इसी अवधि में 4,064 लोगों की मौत, 9.47 मिलियन हेक्टेयर फसल का नष्ट होना, लगभग 58,982 जानवरों की मृत्यु और 99,533 घरों का ढहना इस संकट की गहराई को दर्शाते हैं। कृषि क्षेत्र इन घटनाओं का सबसे बड़ा शिकार बना, क्योंकि जलवायु असंतुलन ने खेतों, मौसम चक्र और पैदावार को सीधे प्रभावित किया। बढ़ते तापमान और असामान्य वर्षा ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुंचाई है। दुनिया के सबसे बड़ी आबादी वाले देश के सामने ये मुश्किलें सबसे बड़ी हैं। हिमाचल प्रदेश में 257 दिनों का चरम मौसम, मध्य प्रदेश में 532 मौतें और महाराष्ट्र में 84 लाख हेक्टेयर फसल का नुकसान बताता है कि यह सिर्फ पर्यावरणीय विषय नहीं, बल्कि मानव जीवन, स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था का संकट है।2025 में, कम से कम 18 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 2022 के बाद से सबसे अधिक चरम मौसमी दिन दर्ज किए गए। फरवरी से सितंबर 2025 तक, लगातार आठ महीनों तक देश के 30 या उससे अधिक राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में चरम मौसम की घटनाएं रिकॉर्ड की गईं। भारत में जैसे हालात हैं, वही स्थिति पूरे विश्व में भी फैलती जा रही है। वर्ष 2023, 2024 और 2025 दुनिया के सबसे गर्म वर्षों में शामिल रहे। यूरोप की निरंतर हीटवेव, अफ्रीका के साहेल क्षेत्र का अकाल, अमेज़न और ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग, प्रशांत और अटलांटिक महासागरों में उग्र तूफान, और ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने की घटनाएँ यह संकेत दे रही हैं कि पृथ्वी एक खतरनाक मोड़ की ओर बढ़ रही है। मौसम चक्रों का असंतुलन, समुद्र स्तर में वृद्धि, तापमान का अचानक बढ़ना और वर्षा का अनियमित होना, प्राकृतिक आपदाओं को न सिर्फ अधिक सघन बना रहा है बल्कि मानव जीवन को असुरक्षित भी। जलवायु परिवर्तन की सबसे बड़ी वजह मनुष्य की अनियंत्रित गतिविधियाँ हैं-जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता, वनों की कटाई, प्रदूषण, अनियोजित शहरीकरण और अत्यधिक उपभोग ने वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों को खतरनाक स्तर तक बढ़ा दिया है, जिसका परिणाम है पृथ्वी का असामान्य रूप से गर्म होना।इन परिस्थितियों का असर जीवन के हर क्षेत्र पर दिखाई दे रहा है। स्वास्थ्य पर प्रभाव बढ़ रहा है, हीटवेव के कारण मौतें बढ़ रही हैं, नए वायरस और प्रदूषण से उत्पन्न बीमारियों की आवृत्ति बढ़ी है। जल संसाधन खतरे में हैं और कई क्षेत्रों में नदियाँ व भूजल तेजी से सूख रहे हैं। खाद्य संकट गहराता जा रहा है क्योंकि फसलें असफल हो रही हैं, जिससे अनाज और सब्जियों की कीमतें बढ़ रही हैं। प्राकृतिक आपदाओं से आर्थिक ढाँचा भी डगमगा रहा है, लाखों लोग विस्थापित हो रहे हैं और असमानता तेज़ी से बढ़ रही है। यदि दुनिया ने तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का लक्ष्य पूरा नहीं किया, तो आने वाले तीन दशकों में हिमालयी नदियों का प्रवाह अनिश्चित हो जाएगा, तटीय शहर खतरे में पड़ेंगे और मानव जीवन मुश्किल होता चला जाएगा।जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को दर्शाती एक ओर रिपोर्ट पिछले दिनों ‘द लांसेट काउंटडाउन ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज 2025’ के अनुसार पिछले साल जलवायु परिर्वतन के कारकों से कृषि क्षेत्र में 66 फीसदी और निर्माण क्षेत्र में बीस फीसदी का नुकसान हुआ। यह रिपोर्ट इशारा करती है कि अत्यधिक गर्मी के कारण श्रम क्षमता में कमी के कारण 194 अरब डॉलर की संभावित आय का नुकसान हुआ। उल्लेखनीय है कि यह रिपोर्ट विश्व के 71 शैक्षणिक संस्थानों और संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों के 128 अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों ने तैयार की, जिसका कुशल नेतृत्व यूनिवर्सिटी कालेज लंदन ने किया। इस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य के बीच संबंधों का अब तक सबसे व्यापक आकलन किया गया है। रिपोर्ट बताती है कि साल 2020 से 2024 के बीच भारत में औसतन हर साल दस हजार मौतें जंगल की आग से उत्पन्न पीएम 2.5 प्रदूषण से जुड़ी थीं। चिंता की बात यह है कि यह वृद्धि 2003 से 2012 की तुलना में 28 फीसदी अधिक है, जो हमारी गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। विडंबना यह है कि ‘द लांसेट’ की रिपोर्ट में सामने आए गंभीर तथ्यों के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस संकट से मिलकर जूझने की ईमानदार कोशिश होती नजर नहीं आती। यह निर्विवाद तथ्य है कि दुनिया के विकसित देश अपनी जिम्मेदारी से लगातार बचने के प्रयास कर रहे हैं। खासकर हाल के वर्षों में अमेरिकी राष्ट्रपति ने जलवायु परिवर्तन को लेकर जो गैरजिम्मेदाराना रवैया अख्तियार किया है, उससे नहीं लगता कि वैश्विक स्तर पर इस संकट से निपटने की कोई गंभीर साझा पहल निकट भविष्य में सिरे चढ़ेगी। विकसित देश इस दिशा में मानक पेरिस समझौते की संस्तुतियों को नजरअंदाज करते नजर आते हैं। सीएसई और डाउन टू अर्थ की क्लाइमेट इंडिया और द लांसेट काउंटडाउन ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज 2025 रिपोर्टों में उजागर तथ्य हमारी आंख खोलने वाले व सचेतकहैं।इन्हीं चिन्ताजनक रिपोर्टों पर सीएसई की महानिदेशक ने कहा, देश को अब सिर्फ आपदाओं को गिनने की जरूरत नहीं है, बल्कि उस पैमाने को समझने की जरूरत है जिस पर जलवायु परिवर्तन हो रहा है। उन्होंने वैश्विक स्तर पर उत्सर्जन कटौती की तत्काल आवश्यकता पर जोर दिया, क्योंकि इतने बड़े पैमाने की आपदाओं के लिए कोई भी अनुकूलन संभव नहीं होगा। सीएसई के कार्यक्रम निदेशक ने मानसून के दौरान बढ़ते तापमान को चिंताजनक बताया, जो अनियमित और चरम मौसमी घटनाओं को ट्रिगर कर सकता है। डाउन टू अर्थ के प्रबंध संपादक ने कहा कि यह रिपोर्ट एक आवश्यक चेतावनी है और बिना निर्णायक शमन प्रयासों के आज की आपदाएं कल का नया सामान्य बन जाएंगी। ऐसे समय में सिर्फ सरकारों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि हर आम नागरिक को भी पर्यावरण संरक्षण का सहभागी बनना होगा। सबसे पहले जीवनशैली को प्रकृति के अनुकूल बनाना जरूरी है, ऊर्जा की बचत, जल का सीमित और शिक्षा, जागरूकता और जनभागीदारी इस लड़ाई के सबसे महत्वपूर्ण हथियार हैं। स्कूलों और घरों में बच्चों को पर्यावरणीय मूल्यों का प्रशिक्षण देना भविष्य के लिए अत्यंत उपयोगी होगा। जलवायु संकट अपने आप नहीं थमेगा; इसे रोकने के लिए संकल्प, संयुक्त प्रयास और सतत विकास को जीवन की प्राथमिकता बनाना आवश्यक है। पृथ्वी हमारे पास केवल एक है और उसका कोई विकल्प नहीं। समय का यही संदेश है कि यदि हम प्रकृति की चेतावनियों को गंभीरता से नहीं लेंगे, तो आने वाला समय मानवता के लिए और भी कठिन हो जाएगा। लेकिन यदि हर मनुष्य अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभाए, तो जलवायु परिवर्तन की दिशा को बदला जा सकता है और धरती को संतुलन, शांति और स्थायित्व प्रदान किया जा सकता है। बाढ, भूकम्प, भूस्खलन, हिमस्खलन जैसी प्राकृतिक घटनाएं युगों-युगों से होती रही हैं। लेकिन अब इनकी आवृति बढ़ती जा रही है। इनसे बचाव का एक ही रास्ता है कि हम प्रकृति के साथ जीना सीखें। हालांकि इस साल प्रकृति का कहर उत्तराखंड की तुलना में हिमाचल पर अधिक बरसा है लेकिन देखा जाय तो उत्तराखंड की स्थिति कहीं ज्यादा संवेदनशील है। मसूरी और नैनीताल सहित उत्तराखंड का कोई पहाड़ी नगर ऐसा नहीं जो कि भूस्खलन जैसी आपदाओं से सुरक्षित हो। राज्य के 400 से अधिक गांव पहले ही संवेदनशील घोषित किये जा चुके हैं।इसरो और रिमोट सेंसिंग के नवीनतम भूस्खलन संवेदनशीलता एटलस पर गौर करें तो उत्तराखंड की स्थिति बेहद चिन्ताजनक है। भूस्खलन की दृष्टि से देश के सर्वाधिक संवेदनशील जिलों में उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग और टिहरी जिले हैं, जिन्हें नम्बर एक और दो पर रखा गया है। जोशीमठ हमारे सामने शिमला से भी ज्वलंत उदाहरण बन कर सामने आ गया था। इसरो और रिमोट सेंसिंग ऐजेंसी द्वारा इसी साल फरवरी में भूस्खलन की दृष्टि से भारत के जिन 147 जिलों का एटलस जारी किया है उनमें 108 जिले केवल हिमालयी राज्यों के हैं जिनमें सभी 13 जिले उत्तराखंड के तथा 12 में से 10 जिले हिमाचल प्रदेश के हैं। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिए वनों का संरक्षण, जल संसाधनों का प्रबंधन और कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने की जरूरत है. इसके अलावा पारंपरिक खेती को बढ़ावा देकर पर्यावरण अनुकूल कृषि अपनाने पर जोर देना होगा. उत्तराखंड की जैव विविधता और पर्यावरण को बचाने के लिए सरकार और आम जनता दोनों को मिलकर प्रयास करने की जरूरत है. यदि समय रहते कदम नहीं उठाए गए, तो आने वाले वर्षों में यह समस्या और विकराल रूप ले सकती है. । *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं*

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