डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड का 70 फीसदी वन क्षेत्र है और इतने बड़े भूभाग में वन विभाग का पूरी तरह नजर रखना भी मुमकिन नहीं है. इसलिए वन विभाग लोगों को जागरुक भी करने का काम करता है और जन समूह या स्थानीय लोगों का भी इसके लिए सहयोग लेने का प्रयास किया जा रहा है. हालांकि इसके अलावा जंगलों में शिकारियों की घुसपैठ को रोकना, लकड़ी माफियाओं से वनों को बचाना, विभिन्न योजनाओं को वन क्षेत्र में अमली जामा पहनाना, इको टूरिज्म को बढ़ावा देने की गतिविधियों को आगे बढ़ाना, जंगल में वन्य जीवों पर नजर रखने जैसी ऐसी कई चुनौतियां हैं. जिस पर हर दिन इन वन कर्मियों को कम करना होता है.वनों में ऐसी कई चुनौतियां है. जिसका हर दिन वनकर्मी सामना करते हैं. फिलहाल जंगलों के लिए वनाग्नि सबसे बड़ी समस्या है. जिसपर हर बार कुछ नया करने की कोशिश तो होती है लेकिन आग लगने की घटनाएं बढ़ने के कारण महकमा सभी के निशाने पर आ जाता है. ऐसे में ये जानना भी बेहद जरूरी है कि आखिरकार वन क्षेत्र में वनकर्मी क्या काम कर रहे हैं और क्या वाकई उनके प्रयासों में कोई कमी है. जिसके कारण विभाग अकसर तमाम वजहों से चर्चाओं में रहता है. तो इन्हीं कुछ सवालों ने राजाजी टाइगर रिजर्व में अप्रैल का महीना शुरू होते ही जंगलों में आग को लेकर खतरा बढ़ने लगता है. हालांकि वन कर्मियों के लिए जंगल में पहले ही ऐसे कई काम होते हैं जिसके लिए दिन-रात उन्हें फील्ड में रहना होता है. लेकिन फायर सीजन वनकर्मियों के लिए एक और नई चुनौती बढ़ा देता है. राजाजी टाइगर रिजर्व का वन क्षेत्र उत्तर प्रदेश से लगा हुआ है. इसकी चिल्लावाली रेंज न केवल इको टूरिज्म के लिहाज से बेहद समृद्ध है. बल्कि यहां वाइल्डलाइफ की भी अच्छी खासी संख्या मौजूद है. पक्षियों की कई प्रजातियां और छोटे जलीय जीवों को भी यहां आसानी से देखा जा सकता है. शायद इन्हीं खूबियों के कारण पर्यटक भी यहां खींचे चले आते हैं. हालांकि इस सब के पीछे वन कर्मियों की कड़ी मेहनत भी है जो दिन-रात एक, दो नहीं बल्कि कई चुनौतियों का सामना करते हैं. : जंगल में आगे बढ़ते हुए हमने देखा कि जंगल में किस तरह सुखी पत्तियां बिखरी पड़ी हैं. संभवत यही सूखी पत्तियां जंगल में आग लगने की सबसे बड़ी वजह भी बनती है. यहां मौजूद हजारों टन सूखी पत्तियों को पूरी तरह से हटाना भी मुमकिन नहीं है. लेकिन इसके बावजूद वनकर्मी हवा फेंकने वाले ब्लोअर उपकरण के साथ पत्तियों को दूर-दूर कर देते हैं. यानी फायर लाइन तैयार करके जंगल में आग लगने की संभावना को कम करने की कोशिश की जाती है. वन क्षेत्र में वन कर्मियों के सामने कई चुनौतियां होती है. न केवल शिकार के इरादे से जंगलों पर नजर रखने वाले शिकारियों को दूर रखना होता है. बल्कि रेगुलर गश्त करते हुए चप्पे चप्पे पर बहुमूल्य वन संपदा को भी बचाना होता है. इस बीच फायर सीजन आने के बाद जंगलों में आग की घटनाओं को लेकर निगरानी करने की भी इनके सामने बड़ी चुनौती होती है. इन्हें मोबाइल भी प्रोवाइड कराया जाता है जो एक विशेष सॉफ्टवेयर वाला होता है. जिसमें गश्त का पूरा ट्रैक उपलब्ध होता है. यानी वनकर्मी इसके जरिए न केवल रास्तों की पहचान कर सकता है. बल्कि उसने कहां-कहां गश्त की. इसका पूरा ब्यौरा भी इस मोबाइल पर उपलब्ध होता है. इस दौरान गश्त में दिखने वाले वन्यजीवों या उनके पग चिन्हों की भी इन कर्मियों को मोबाइल पर जानकारी दर्ज करनी होती है. ये वन कर्मी जंगल में ही मौजूद चौकियों में रहते हैं और घर से दूर रहकर जंगलों और वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए काम करते हैं. सुबह नाश्ता करने के बाद एक पूरे क्षेत्र की गश्त करना और फिर लंच करने के बाद फिर से अन्य इलाकों में जाकर देखना इनकी ड्यूटी होती है. इस दौरान वन विभाग से जुड़े दूसरे कामों को भी यह वनकर्मी अमलीजामा पहनाए हैं. उत्तराखंड में इंसान ही नहीं वन्यजीवों के सामने भी डॉक्टरों का टोटा है. आलम ये है कि पूरे प्रदेश में केवल 8 पशु डॉक्टर ही मौजूद हैं. जबकि, वित्त विभाग के आदेश के बाद अब इनमें से भी 4 डॉक्टरों की प्रतिनियुक्ति खतरे में दिखाई दे रही है. बड़ी बात ये है कि वन विभाग में वन्यजीवों के लिए पशु डॉक्टरों के ढांचे का अपना कोई प्रावधान ही नहीं है. इसने वन्यजीवों के स्वास्थ्य और बधियाकरण जैसी योजनाओं पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं.उत्तराखंड में वन्यजीवों के उपचार और बंदरों का बधियाकरण (नसबंदी) जैसी योजनाओं पर नई चिंता खड़ी हो गई है. दरअसल, वन विभाग के पास जहां पशु डॉक्टरों की भारी कमी है, तो वहीं वित्त विभाग के आदेश ने प्रतिनियुक्ति पर मौजूद डॉक्टरों को लेकर भी संशय की स्थिति पैदा कर दी है. खास बात ये है वन विभाग के पास अपना कोई वेटरनरी चिकित्सकों (पशु डॉक्टरों) का ढांचा ही नहीं है. ऐसे में वन्यजीवों को लेकर वन विभाग को पूरी तरह पशुपालन विभाग पर ही निर्भर रहना पड़ता है. मानव वन्यजीव संघर्ष के बढ़ते मामलों के बीच वन विभाग में पशु डॉक्टरों की जरूरत भी बढ़ रही है. हैरानी की बात ये है कि इन बातों को जानते हुए भी वन विभाग ने अपना पशु डॉक्टर या वाइल्डलाइफ एक्सपर्ट चिकित्सक के रूप में नियुक्ति का कोई ढांचा नहीं बनाया है. जबकि, पशुपालन विभाग की ओर से वन विभाग के लिए प्रतिनियुक्ति के रूप में स्वीकृत ढांचा 5 पशु डॉक्टरों का ही रखा गया है. हालांकि, इसके बावजूद पशुपालन विभाग ने अपने 8 पशु डॉक्टर वन विभाग को प्रतिनियुक्ति पर दिए हैं. इतना ही नहीं मानव वन्यजीव संघर्ष और कई बार वन्यजीवों के जंगलों में घायल होने की स्थिति में भी पशु डॉक्टरों की आवश्यकता होती है. इस तरह कई पशु डॉक्टरों की जरूरत होने के बावजूद भी वन विभाग को पशु डॉक्टर नहीं मिल पा रहे हैं. दरअसल, किसी एक क्षेत्र के वर्किंग प्लान को तैयार करने के लिए वर्किंग प्लान ऑफिसर के अलावा दो SDO, चार रेंजर और 12 फॉरेस्टर्स की तैनाती की जाती है. हैरत की बात यह है कि 2023 दिसंबर से शुरू हुए वर्किंग प्लान में 2025 तक भी इन अधिकारियों और कर्मचारियों की तैनाती नहीं की गई है. ढाई साल में वर्किंग प्लान की समय सीमा में अब केवल 8 से 9 महीने के वक्त में न केवल सर्वे का काम किया जाना है, बल्कि वर्किंग प्लान को लिखकर तैयार भी करना है. वर्किंग प्लान को बनाना बेहद मेहनत का काम है, क्योंकि इसमें फील्ड वर्क से लेकर लिखित दस्तावेज तैयार करने की भी जिम्मेदारी होती है. हैरत की बात यह है कि वन विभाग के लिए बेहद जरूरी इस काम से वन विभाग के अधिकारी और कर्मचारी जुड़ना ही नहीं चाहते. वनों की सेहत वर्किंग प्लान पर निर्भर करती है. लिहाजा जिस तरह विभिन्न क्षेत्रों में वर्किंग प्लान समय से नहीं तैयार हो रहे हैं, उसका सीधा असर वनों की सेहत पर भी पड़ सकता है. ऐसे में वर्किंग प्लान के काम से परहेज करने वाले कर्मचारियों और अधिकारियों को सख्ती के साथ इस काम से जोड़ने की जरूरत है. साथ ही मुख्यालय स्तर पर वर्किंग प्लान के कामों को प्राथमिकता देते हुए, इसके लिए अलग से अधिकारियों और कर्मचारियों की तैनाती करना भी बेहद जरूरी है. *लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*