डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
सभ्यताओं के जन्म के साथ ही मनुष्य द्वारा जल को महत्व दिए जाने में कमी आने लगी। प्रथम दार्शनिक कहे जाने वाले थेल्स ने सैकड़ों वर्ष ईसा पूर्व कहा था कि जल ही समस्त भौतिक वस्तुओं का कारण और समस्त प्राणी जीवन का आधार है, परंतु अफसोस के साथ कहना होगा कि भारत समेत पूरी दुनिया तब से अब तक इस अमूल्य धरोहर को सहेजने में विफल रही है। इसी वजह से हर साल विश्व जल दिवस मनाया जाता है।
दुनिया को पानी की जरूरत से अवगत कराने के मकसद से संयुक्त राष्ट्र ने विश्व जल दिवस मनाने की शुरुआत की थी। 1992 में रियो डि जेनेरियो में आयोजित पर्यावरण तथा विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में विश्व जल दिवस को मनाने की शुरूआत की गई थी, जिसका आयोजन पहली बार 1993 में 22 मार्च को हुआ था। उत्तराखंड के पहाड़ों से उत्तर भारत की अधिकतर नदियां निकलती हैं, यहां से निकली नदियां कई लोगों की प्यास बुझाती हैं, लेकिन विडंबना है कि देश के एक बड़े हिस्से की प्यास बुझाने वाला उत्तराखंड खासकर गर्मी के मौसम में कई जगहों पर खुद प्यासा रहता है। इन जगहों पर लोगों को पानी का इंतजाम करने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है। पिछले कुछ समय में उत्तराखंड में कई सारी योजनाओं के जरिए इस परेशानी को दूर करने की कोशिश की गई, दरअसल इन योजनाओं के तहत उत्तराखंड के पहाड़ों में कई जगहों पर हैंडपंप लगाए गए और कई जगहों पर पंपिंग स्टेशनों के जरिए नदी या छोटे नालों जैसे जल स्रोतों से पानी पहुंचाया गया। उसके बावजूद भी उत्तराखंड में पहाड़ों का एक बड़ा हिस्सा गर्मी के वक्त काफी परेशान रहता है, कई जलस्रोत सूख जाते हैं और हैंडपंपों में पानी नहीं रहता, ऐसे में उत्तराखंड के पारंपरिक जल स्रोतों धारों और नौलों की बात करनी काफी जरूरी हो जाता है।
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार इस समय भी टिहरी, पौड़ी और अल्मोड़ा जिले के कई हिस्सों में पीने के पानी की समस्या काफी विकराल है। यह समस्या हाल के दिनों में ज्यादा बढ़ी है। दरअसल लंबे समय से उत्तराखंड में लोग पीने के पानी के लिए पारंपरिक जल स्रोतों धारों और नौलों पर आश्रित थे। हाल के समय में कई जगहों पर नल का पानी आने, जंगलों का अनियंत्रित दोहन और निर्माण कार्यों के लिए किए जा रहे ब्लास्टिंग या दूसरे कारणों से उत्तराखंड के आधे धारे और नौले सूख चुके हैं, इनकी हालत काफी खराब हो चुकी है। ऐसे में अब जरूरत है कि उत्तराखंड के इन धारों और नौलों को पुनर्जीवित किया जाए। इसके लिए धारों और नौलों के आसपास वर्षा जल के संचयन और चौड़ी पत्ती वाले पौधे लगाने होंगे। उतीश और बांज जैसे पेड़ पानी बढ़ाते हैं। जहां नौले हैं उसके आसपास बारिश के वक्त पर छोटे.छोटे गड्ढे खोदे जा सकते हैं। इन गड्ढों में बारिश का पानी जमा होने के बाद भूमिगत जल भी रिचार्ज होगा।
इस संबंध में विश्व जल दिवस के अवसर पर देश में एक अभियान चलाया जा रहा है। कैच द रेन नाम का यह अभियान प्रधानमंत्री की ओर से शुरू किया जा रहा है। राज्य को भी इस अभियान का फायदा उठाना चाहिए और अपने पारंपरिक जल स्रोतों धारों और नौलो को एक बार फिर से पुनर्जीवित करना चाहिए, नहीं तो आधे भारत की प्यास बुझाने वाले उत्तराखंड के पहाड़ों की प्यास बुझाने में काफी परेशानी आएगी और यह बढ़ते ही जाएगी। पानी बचाना कितना जरूरी है, ये हमारा मूलभूत संसाधन है, इससे कई काम संचालित होते हैं और इसकी कमी से ज्यातार क्रिया कलाप ठप हो सकते हैं। अस्तित्व पर संकट गहरा सकता है। हर किसी को मालूम है कि जल ही जीवन हैए लेकिन इसके संचय और संरक्षण के प्रति गंभीर नहीं होने के कारण जल के श्जीवनश् पर संकट बढ़ता जा रहा है। जल स्रोत लगातार सूख रहे हैं और भूजल का स्तर गिरता जा रहा है। हर साल विश्व जल दिवस पर तमाम संस्थाएं और सरकारी महकमे गहराती जा रही इस समस्या पर चिंतन.मनन तो करते हैंए योजनाओं का खाका भी खींचा जाता है। बसए धरातल पर जरूरी प्रयास नजर नहीं आते। नतीजा यह कि जल संरक्षण की मुहिम कहीं सिर्फ कागजों में तो कहीं सीमित क्षेत्र तक सिमट जाती है। अब समय आ गया है कि सिर्फ प्राकृतिक स्रोतों और भूजल के भरोसे न रहकर रेन वाटर हार्वेस्टिंग बारिश के पानी का संचय को व्यवहार में लाया जाए। बारिश के पानी का संचय कर हम प्राकृतिक जल स्रोतों पर पड़ रहे भार को काफी हद तक कम कर सकते हैं। वैसे तो उत्तराखंड में करीब 2.6 लाख प्राकृतिक जल स्रोत हैं। प्रदेश में तकरीबन 90 फीसद पेयजल आपूर्ति इन्हीं जल स्रोतों से होती है। मगर, पर्याप्त रीचार्ज नहीं मिल पाने के कारण इन जल स्रोतों में साल दर साल पानी की उपलब्धता घटती जा रही है। इसके अलावा भूजल ;भूमिगत जलद्ध का उपयोग और अनियोजित दोहन भी लगातार बढ़ रहा है। इन वजहों से प्रदेश में जल संकट की स्थिति उत्पन्न होने लगी है। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि वर्तमान में 30 फीसद ग्रामीण और 50 फीसद शहरी इलाके जल संकट से जूझ रहे हैं। सबसे ज्यादा किल्लत पर्वतीय क्षेत्रों में है। नीति आयोग की वाटर मैनेजमेंट इंडेक्स.2018 में भी जल प्रबंधन के मामले में उत्तराखंड का प्रदर्शन निराशाजनक रहा। नीति आयोग के मुताबिक हिमालय क्षेत्र के प्राकृतिक जल स्रोत जिनमें मुख्यतरू जलधाराएं और झरने हैं सूख रहे हैं। 150 वर्ष में 60 फीसद प्राकृतिक जल स्रोत सूखने का दावा किया गया है। हालांकिए वर्ष 2019 में जल नीति बनने के बाद अब राज्य में इस दिशा में सुधार की उम्मीद की जा रही है। उत्तराखंड में पूरे देश में होने वाली औसत वर्षा से ज्यादा बारिश होती रही है। देश में जहां औसतन 1100 मिमी बारिश होती है, वहीं उत्तराखंड में यह आंकड़ा 1400 मिमी के आसपास रहता है। हालांकि, अब इस दिशा में भी उत्तराखंड की चिंताएं बढ़ रही हैं। साल दर साल यहां बारिश में कमी आ रही है। पिछले तीन साल में बारिश में प्रदेश में 10 से 20 फीसद की कमी आई है। एशियाई विकास बैंक के अनुसार, भारत में 2030 तक 50ः पानी की कमी होगी। नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक भारत, इतिहास में अपने सबसे खराब जल संकट का सामना कर रहा है। गर्मियों में नल सूख गए हैं, जिससे अभूतपूर्व जल संकट पैदा हो गया हैण् पानी की वार्षिक प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1951 में लगभग 5ए177 क्यूबिक मीटर से घटकर 2019 में लगभग 1,720 क्यूबिक मीटर रह गई है। दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद सहित 21 शहरों में भूजल का स्तर बहुत नीचे आ गया हैए जिससे 10करोड़ लोग प्रभावित हुए हैं। सुरक्षित पानी की अपर्याप्त पहुंच के कारण हर साल लगभग दो लाख लोगों की मृत्यु हो जाती है। इसके अलावा लगभग तीन.चौथाई घरों में पीने का पानी नहीं पहुंचता है और लगभग 70 प्रतिशत पानी दूषित होता है।