देवेंद्र कुमार बुडाकोटी
एक भारत नेता या अभिनेता बनने का सपना देखता हैए तो दूसरा मंत्री या संतरी बनने की होड़ में है। लेकिन शायद अंततः दोनों की चाहत एक जैसी है, चार पी पावर सत्ता, प्रेस्टिज प्रतिष्ठा, पैसा और पहचान।
राजनीतिक विचारक थॉमस हॉब्स ने सत्ता की इच्छा को एक लगातार चलने वाली, बेचैन चाह बताया जो आत्म.संरक्षण की प्रवृत्ति से प्रेरित होती है। उनके अनुसार, यह इच्छा सभी के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा करती है, जिसे केवल एक सर्वोच्च, अटूट सत्ता के ज़रिये ही नियंत्रित किया जा सकता है। वही सत्ता जो कानून, नैतिकता और न्याय को परिभाषित करे और समाज में शांति बनाए रखे।
लेकिन लोकतंत्र में यह शक्ति चुनावी प्रक्रिया के ज़रिये हासिल की जाती है। राजनीतिक दलों और नेताओं को चुनाव जीतकर ही राज्य की सत्ता तक पहुंचना होता है। इसके लिए चुनावी घोषणापत्र जारी किए जाते हैं, जिनमें तरह.तरह के वादे किए जाते हैं। कई बार हद से ज़्यादा।
आज के दौर में सत्ता में आने का दबाव इतना बढ़ गया है कि राजनीतिक दल अवास्तविक वादे करने लगे हैं। जैसे कि हर परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने का भरोसा। सरकार के कुछ विभागों में थोड़ी-बहुत भर्तियाँ होती हैं और उनके नियुक्ति.पत्र मंत्रियों के हाथों मीडिया के सामने सौंपे जाते हैं। जैसे कोई ऐतिहासिक कार्य हुआ हो। जनता ऐसे आयोजनों से प्रभावित होती है और इसे सरकार की बड़ी उपलब्धि मान बैठती है।
लेकिन सच तो यह है कि सरकार को चाहिए था कि वह विशेषज्ञों और नागरिक संगठनों के साथ मिलकर शिक्षा, स्वास्थ्य, आजीविका, ग्रामीण विकास और सहकारिता जैसे नीतिगत मुद्दों पर ठोस योजनाएं बनाती।
आज सोशल मीडिया के कारण वैकल्पिक विचार और तर्क लोगों तक पहुँच पा रहे हैं। हाल ही में हुई परीक्षाओं में पेपर लीक और उसके खिलाफ बेरोज़गार युवाओं का आक्रोश इतना व्यापक हुआ कि सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा। सीबीआई जांच और परीक्षाओं के पुनर्निर्धारण की घोषणा की गई। और यह भी एक उपलब्धि की तरह पेश किया गया।
मान लें कि आगे सब कुछ सही तरीके से होता है, लेकिन क्या तब भी सरकार बेरोज़गार युवाओं के केवल 8 से 10 प्रतिशत को नौकरी दे पाएगी?
हमें अब दीर्घकालिक समाधान की ओर बढ़ना होगा। नई शिक्षा नीति में कौशल विकास पर ज़ोर दिया गया है। उसे ज़मीन पर उतारने की ज़रूरत है। जो छात्र उच्च शिक्षा या पेशेवर पाठ्यक्रमों में जाना चाहते हैं, उनके लिए छात्रवृत्ति और रिसर्च फेलोशिप की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए।
अगर भविष्य की राजनीति सिर्फ सरकारी नौकरियों और पीएसयू में भर्तियों के वादों पर ही टिकी रही। राशन और पेंशन की योजनाओं की तरह, तो क्या हम वास्तव में 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बना पाएंगे?
लेखक एक समाजशास्त्री हैं और चार दशकों से विकास क्षेत्र में सक्रिय हैं।