शंकर सिंह भाटिया
उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में गांवों की जब भी बसासत हुई होगी, बाखली इन बसासतों का आधार बन गया। बाखली का मतलब है कि एक साथ, एक के बाद एक जुड़े हुए घरों की श्रृंखला। एक से एक जुड़े घर, पठालों का संयुक्त आंगन और घर के आगे पीछे सब्जी आदि बोने के लिए सग्वाड़े।
एक गांव में कई बाखलियां होती थी। यह सामूहिक तौर पर रहने और सहकारिता की भावना का एक उन्मुक्त प्रयोग दिखाई देता है। लोग सामूहिक तौर पर क्यों रहते थे? इस तरह की सहकारिता की भावना के पीछे क्या वजह थी? इस क्षेत्र में आक्रांताओं का बहुत अधिक भय नहीं था। सिर्फ गोरखाओं का आक्रमण इस क्षेत्र में हुआ था और कुमाऊं गढ़वाल के राजाओं के बीच अक्सर युद्ध होते रहते थे। यह बाखली निर्माण की वजह नहीं लगते। घने जंगलों के बीच बसे गांवों के निवासियों को जंगली हिंसक जानवरों से सुरक्षा देने की भावना इसके पीछे हो सकती है।
लेकिन यह सहकार, यह सामूहिकता की भावना अब विलुप्त होती चली जा रही है। अब इन बाखलियों में कोई नहीं रहना चाहता है। तीस-तीस घरों की बाखलियों में अब एक या दो परिवार रह रहे हैं, जो इनमें रह रहे हैं, उन्होंने भी अपने घरों को मोडिफाई कर लिया है। इसलिए बाखलियां अब खंडहर में तब्दील होती चली जा रही हैं। गांवों से अधिकांश लोग पलायन कर चुके हैं, जिन्होंने पलायन नहीं किया है, उन्होंने गांव में सड़क के किनारे या फिर दूसरी एकांत जगहों पर घर बनाने शुरू कर दिए हैं। इसलिए बाखलियां अब खंडहर बनने के लिए छोड़ दी गई हैं।
पिथौरागढ़ जिले के डीडीहाट तहसील के अंतर्गत लीमा गांव की यह तिमंजली बाखली देखिए। कितनी हसरतों से सौ साल से भी पहले यह बाखली बनाई गई होगी। बताया जाता है कि इन घरों में कुछ खास डिजाइन बनाने के लिए मीलों दूर से कटाई वाले पत्थर लागए गए थे। इन पत्थरों को जोड़ने के लिए लगने वाले गारे के रूप में उड़द की दाल का प्रयोग किया गया। इन घरों को टिकाए रखने के लिए आज जिस तरह बीम लगाए जाते हैं, उसकी जगह पर उस दौर में भरान रखे जाते थे। जो शाल या फिर जामुन जैसी मजबूत लकड़ियों के होते थे। बताया जाता है कि भरान के लिए मुवानी के रजबार से शाल के पेड़ मांगे गए। गांव वाले उबड़-खाबड़ 25-30 मील दूर से जंगली रास्तों से इन भरानों को रथों से बांधकर उठाकर लाए। जिन घरों को इतनी कठिनाइयों और जतन से बनाया गया था, जिनकी बनावट और डिजाइन पर कभी नाज से सीना चौड़ा हो जाता था, आज वही घर खंडहर बनने के लिए छोड़ दिए गए हैं।
इसी गांव की यह मिलौरी बाखली है। जो एक लंबी 25 घरों की बाखली है। इस बाखली के एक कौने में अब सिर्फ एक परिवार रहता है। बाखली के जिन घरों को पहले छोड़ दिया गया, वे पूरी तरह खंडहर हो गए हैं। जो बाद में छोड़े गए वे धीरे-धीरे टूट रहे हैं। बाखली के कुछ घर अभी अच्छी स्थिति में हैं, लेकिन उनमें कोई नहीं रहता। वह भी जल्दी ही खंडहर में तब्दील हो जाएंगे। गांव की दूसरी बाखलियां भी खंडहर में बदल गई हैं।
कुमाऊं की सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन का अभिन्न हिस्सा थी कभी बाखली जो अब हमें सिर्फ खंडहरों में ही दिखाई देती है। कुछ सालों बाद ये खंडहर भी मटियामेट हो जाएंगे और एक समृद्ध संस्कृति कहीं विलीन हो जाएगी।