डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पहाड़ अपनी सुन्दरता के लिये ही नहीं जाने जाते, बल्कि यहां की चाय ने विदेशों में भी अपनी महक बिखेरी है। उतराखंड सौंदर्य का जीवन्त प्रतीक है, सरलता एवं गरिमा का अभिषेक है और सभ्यता एवं संस्कृति इसकी विशिष्ट पहचान है। यहाँ प्रकृति और जीवन के बीच ऐसा सामंजस्य हैं उत्तराखंड की पहाड़ियां चाय बागानों के लिए अनुकूल हैं। दार्जिलिग के टक्कर की चाय होने के कारण इसकी डिमांड भी काफी है। यहां सभी चाय के बागान में पौधों के क्लोन दार्जिलिग से ही लाए गए हैं। इसकी खेती 12 सौ से दो हजार मीटर की ऊंचाई पर यह आसानी से हो जाती हैं। उत्तराखंड के चाय की महक राज्य के लोग ही नही बल्कि इंग्लैंड और अमेरिका के लोग भी ले रहे हैं।
राज्य की चार फैक्ट्रियों में प्रतिवर्ष करीब 57 हजार किलो चाय का उत्पादन होता है। इन चाय बागानों से चार हजार काश्तकार सीधे जुडे़ हुए है। साथ ही करीब 1200 हेक्टेयर से अधिक भूमि पर नए चाय बागान विकसित करने की तैयारी भी हो रही है। उत्तराखंड की चाय दार्जिलिग की तरह ही रोजगार का प्रमुख साधन बन सकती है। वर्तमान में राज्य में 1381 हेक्टेयर में चाय का उत्पादन किया जा रहा हैं। उत्तराखंड टी नाम से यह चाय अभी अमेरिका को सीधे निर्यात की जा रही है। इसके अलावा इंग्लैंड, दक्षिण अफ्रीका व इराक में भी इस चाय की डिमांड है। इन देशों में कोलकाता से चाय का निर्यात किया जाता है। ब्लैक.टी और ग्रीन.टी की कीमत 1400 रुपया प्रति किलो है। इस बार 7 करोड 98 लाख की चाय का उत्पादन हुआ है।
हाल में सरकार ने एक हजार हेक्टेयर भूमि का चयन चाय बागानों को विकसित करने के लिए किया है। इसके अलावा 260 हेक्टेयर भूमि उद्यान विभाग की है। जहां पर कोई कार्य नही हो रहा हैं। उसका भी अधिग्रहण चाय बागानों के लिए किया जाना है। अगर यह हो गया तो चाय का उत्पादन और बढ़ेगा। अप्रैल में चाय के पौधों में पत्तियां तैयार हो गई थी। शासन से अनुमति लेने के बाद टी बोर्ड ने लाकडाउन में बागानों और फैक्ट्रियों में काम शुरु कर दिया था। बोर्ड के अधीन चार हजार श्रमिक कार्य करते हैं। लाकडाउन अवधि में 3200 श्रमिकों से एक दिन छोड़कर कार्य लिया जा रहा था। प्रतिदिन 1600-1600 श्रमिकों को कार्य पर लगाया गया। चाय उत्पादन और मुनाफे को देखते हुए सरकार ने कुमाऊं मंडल विकास निगम केएमवीएन और गढ़वाल मंडल विकास निगम जीएमवीएन से इस कारोबार को हटाकर 2004 में उत्तराखंड चाय विकास बोर्ड का गठन किया। जिसका मुख्यालय अल्मोड़ा में बनाया गया। 2013 तक बोर्ड ने 211 हेक्टेयर भूमि में चाय का उत्पादन कर 2.50 लाख किलो कच्ची पत्तियां फैक्ट्री को उपलब्ध कराई।
बागेश्वर जिले के कौसानी में 14 सालों तक रिकार्ड तोड़ उत्पादन करने वाली चाय फैक्ट्री 2014 में बंद हो गई। 1994-95 में यहां करीब 10 किलोमीटर के दायरे में 211 हेक्टेयर जमीन का चयन चाय के बागान के लिए किया। संसाधनों की कम उपलब्धता के कारण उस समय केवल 50 हेक्टेयर जमीन पर ही प्रकोष्ठ ने चाय बागान विकसित किये, जो कि 2001 के आते.आते पूरी तरह से व्यवसायिक चाय बनाने के लिये तैयार हो गये थे। चाय की अच्छी फसल को देखते हुए 2001 में एक निजी कंपनी गिरीराज को कौसानी में चाय की फैक्ट्री लगाने के लिये आमंत्रित किया। अनुबंध को पूरा नहीं कर पाने के कारण यह फैक्ट्री बंद हो गई।
चार जिलों में हैं चाय फैक्ट्रियां जिला उत्पादन श्यामखेत नैनीताल 3000 किलो, हरि नगरी बागेश्वर 38000 किलो बडोली चमोली 7000 किलो, चंपावत 7000 किलो वर्जन चाय के उत्पादन को लगातार बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है। इसके लिए प्रयास किए जा रहे हैं।मशहूर उत्तराखंड की चाय को पुनर्जीवित करने की कोशिशें हैं। उत्तराखंड में जल्द चार नई चाय फैक्ट्रियां अस्तित्व में आएंगी। सरकार का प्लान है इसके तहत प्रवासी मजदूर जो बेरोजगार हैं, उनको मनरेगा के तहत इसमें काम दिया जाए और 42 लाख पौधे की नई नर्सरी बनाई जाए। इससे करीब 3 हजार प्रवासियों को रोजगार मिलने की उम्मीद है। यदि बागवानी रोजगार से जोड़े तो अगर ढांचागत अवस्थापना के साथ बेरोजगारी उन्मूलन की नीति बनती है तो यह पलायन रोकने में कारगर होगी।
उत्तराखण्ड हिमालय राज्य होने के कारण बहुत सारे बहुमूल्य उत्पाद जिनकी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अत्यधिक मांग रहती हैं। राज्य में 80ः ढलानदार जमीन है। जहाँ चाय की खेती बड़ी मात्रा में होकर एक सशक्त आर्थिकी का हथियार बन सकती है। सवाल इच्छा शक्ति का है। जो पहाड़ चढ़नी बाकी है। पहाड़ का पानी और जवानी अब सिर्फ जुमला बन कर ना रहे, हकीकत मेे इसमे अब अमल हो यही उम्मीद सरकार से है।