डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
चिनोपोडीएसी कुल का बथुआ एक प्रकार का बहुपयोगी खरपतवार है, जो आमतौर पर गेंहूए चना एवं शीत ऋतु की अन्य फसलों के साथ स्वतः उगता है। जाड़े की पत्तीदार सब्जियों में बथुआ का प्रमुख स्थान है। प्रारंभिक अवस्था में इसके सम्पूर्ण पौधे एवं बाद में पत्तियों व मुलायम टहनियों को साग के रूप में प्रयोग किया जाता है। इससे विविध प्रकार के व्यंजन जैसे बथुआ पराठा एवं रोटी, बथुआ साग, रायता एवं पकोड़ी आदि तैयार किये जाते है।
पोषकमान की दृष्टि से बथुए में प्रोटीन और खनिज तत्व पालक एवं पत्ता गोभी से भी अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। इसकी प्रति 100 ग्राम खाने योग्य पत्तियों में 89.6 ग्राम पानी, 3.7 ग्राम प्रोटीन, 0.4 ग्राम वसा, कार्बोहाईड्रेटस 2.9 ग्राम, कैल्शियम 150 मिग्राण्, फॉस्फोरस 80 मिग्राण्, कैरोटीन 3660 माइक्रोग्राम, थाइमिन 0.03 मिग्राण् राइबोफ्लेविन 0.06 मिग्राण्नियासिन 0.2 मिग्राण् एवं विटामिन सी 12 मिग्राण् पाई जाती है।
बथुआ के तने वाले भाग में नाइट्रेट, नाइट्राईट एवं ओक्जिलेट अधिक मात्रा में होता है, जिसे सब्जी के रूप में प्रयोग करते समय अलग कर देना चाहिए। बथुआ की पत्तियों का औषधीय महत्त्व अधिक है। यह रेचक, कृमि नाशी एवं ह्रदयवर्धक होती है। इसके सेवन से पेट के गोल एवं हुक वर्म नष्ट हो जाते हैं। इसके साग को नियमित खाने से कई रोगों को जड़ से समाप्त किया जा सकता है। पथरी, गैस, पेट में दर्द और कब्ज की समस्या को दूर करने की बथुआ रामबाण औषधि है। इसकी पत्तियों का जूस जलने से उत्पन्न घाव को ठीक करता है। बथुआ का बीज भी गुणकारी होता है और चावल जैसे उबाल कर दाल के साथ खाया जाता है। बथुआ का बीज कुट्टू टाऊ की तुलना में अधिक पौष्टिक होता है।
कुदरत ने उत्तराखंड को कुछ ऐसे अनमोल तोहफे दिए हैं, जिनमें अद्भुत गुणों की भरमार है। इस बीच हैरानी की बात तो ये भी है कि आधुनिकता की इस दौड़ में हम लगातार इन अनमोल संपदाओं को भूलते जा रहे हैं ।