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हिमालय में प्रकृति की नेमत है देवदार का वृक्ष

09/07/20
in उत्तराखंड, संस्कृति
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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
आसमान छूते हुए पहाड़, हरे.भरे जंगल और पहाड़ों से गिरते हुए झरने, घूमने के लिए है बेहतरीन जगह जंगल के देवदार वैज्ञानिक नाम सेडरस डेओडारा, अंग्रेज़ी डेओडार उर्दु देओदार, संस्कृत देवदारु एक सीधे तने वाला ऊँचा शंकुधारी पेड़ है, जिसके पत्ते लंबे और कुछ गोलाई लिये होते हैं तथा जिसकी लकड़ी मजबूत किन्तु हल्की और सुगंधित होती है। इनके शंकु का आकार सनोबर फ़र से काफी मिलता.जुलता होता है।
इनका मूलस्थान पश्चिमी हिमालय के पर्वतों तथा भूमध्यसागरीय क्षेत्र में है, १५००-३२०० मीटर तक हिमालय में तथा १०००-२००० मीटर तक भूमध्य सागरीय क्षेत्र में। यह इमारतों में काम आती है। यह पश्चिमी हिमालय, पूर्वी अफगानिस्ताउत्तरी पाकिस्तान, उत्तर-मध्यभारत के हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू एवं कश्मीर तथा दक्षिण.पश्चिमी तिब्बत एवं पश्चिमी नेपाल में १५००-३२०० मीटर की ऊंचाई पर पाया जाता है। यह एक शंकुधारी वृक्ष होता है, जिसकी ऊंचाई ४०-५० मीण् तक और कभी.कभार ६० मीण् तक होती है। इसके तने २ मीटर तक और खास वृक्षों में ३ मीटर तक के होते हैं। इसकी कुछ प्रजातियों को स्निग्धदारु और काष्ठदारु के नाम से भी जाना जाता है। स्निग्ध देवदारु की लकड़ी और तेल दवा बनाने के काम में भी आते हैं। इसके अन्य नामों में देवदारु प्रसिद्ध है। यह निचले पहाड़ी क्षेत्रों में पाया जाता है।
पहाड़ी संस्कृति का अभिन्न अंग देवदार का वृक्ष सदा से कवियों तथा लेखकों का प्रेरणा स्रोत रहा है। देवदार के पत्ते हरे रंग के और कुछ लाली लिए हुए होते है। देवदार तीखा तेज स्वाद और कर्कश सुगंन्ध वाला होता है। इसकी तासीर गर्म होती है इस कारण अधिक मात्रा में उपयोग फ़ेफ़ड़ों के लिए हानिकारक होता है। देवदार के दोषों को कतीरा और बादाम का तेल नष्ट करता है। इसकी तुलना अधाख से की जा सकती है। इसे अनेक दोषों को नष्ट करनेवाला कहा गया है। यह सूजन को पचाता है, सर्दी से उत्पन्न होने वाली पीड़ा को शांत करता है, पथरी को तोड़ता है और इसकी लकड़ी के गुनगुने काढ़े में बैठने से गुदा के सभी प्रकार के घाव नष्ट हो जाते है उत्तराखंड के पहाड़ वैसे तो जड़ी.बूटी और पेड़ों से पटे हुए हैं परंतु देवदार के पेड़ों की शान ही निराली है। अगर आप देवदार के जंगलों में पहुंच जाएंगे तो यह पेड़ शीतलता और सुगंध से आपका स्वागत करता है, थकान मिटाने के साथ साथ अद्भुत शांति भी प्रदान करता है।
देवदार का वैज्ञानिक नाम सैंडरस डियोडारा है। यह 6000 से 8000 फुट की ऊंचाई पर मिलता है। इसे कश्मीरी के लोग दिआर और हिमाचल वाले कैलोन कह कर बुलाते हैंण् ये अपनी बनावट मे शंकुधारी होते हैं ण् गोलाकार और ऊपर से नुकीलेए इनके पत्ते लंबे और थोड़ा सा गोलाई लिए होते हैंण् देवदार के पेड 50से लेकर 80 मीटर तक ऊंचे होते हैं और पत्तियां 2ण्5 से 8 सेंटीमीटर लंबीण् वृक्ष उत्तराखंड का हो और औषधीय न हो ऐसा कैसे हो सकता हैण् इसकी लकड़ी की छीलन और बुरादे से ढाई से 4 प्रतिशत तक वाष्पशील तेल प्राप्त होता है जो सुगंध के रूप में श्हिमालयी सिड्रसवुड तेलश् नाम से जाना जाता है। स्थानीय लोग इस पेड़ की टहनियों व फालतू लकड़ी को जलाने के काम में भी लाते हैं।
इसका उपयोग डायबिटीज को कंट्रोल करनेवाले अपनी दवाएं मे तरीक़े-तरीक़े से करते हैं। देवदार की छाल पतली और हरी होती है जो बाद मे भूरी हो जाती है फिर इसमें दरारें पड़ जाती हैं। गढ़वाल के गाँवों लोग इसे पीस कर माथे पर इसका लेपन करते हैं और कठिन से कठिन सिरदर्द छूमंतर हो जाता है। इसके तेल की दो बूंद नाक में डाल और कान में डालने से भी दर्द में राहत मिलती हैं। पेट में होने वाले अल्सर में भी इसका प्रयोग किया जाता है। देवदार के पेड़ की उम्र दो सौ साल तक की होती है, इसकी लकड़ी हल्की खुशबूदार और बेहद मजबूत होती है। इसका प्रयोग इमारती लकड़ी के तौर पर भी होता रहा है। पहाड़ी इलाकों में इसकी लकड़ी के छोटे.छोटे मंदिर, जो कि स्थानीय बढ़इयों द्वारा बनाये जाते हैं, घरों में पूजा के स्थान पर रखे जाते हैं। घर भर इसकी सुगंध से महक उठता है। इसकी लकड़ी आम आदमी को आसानी से हासिल नहीं हो पाती थी, अतः भवन निर्माण में इसका प्रयोग मंदिरों में और महलों में ही अधिकतर देखने को मिलता है। मजबूती खुशबू और खूबसूरत दिखने के कारण पुराने जमाने के रसूखदार लोगों ने इसे बहुतायत में प्रयोग किया। उत्तराखंड में आज भी पहाड़ों पर लकड़ी के घर मिल जाएंगे, ये मकान 4 से 5 मंजिला होते हैं। हर मंजिल की अपनी खासियत होती है। सबसे बड़ी बात ये है कि कई सौ साल पहले बने ये मकान भूकंपरोधी है। उत्तराखंड के कई गांव है जहां इस तरह के भवन है। लेकिन अब इन को बनाने वाले कारीगरों की कमी हो गयी है। लकड़ी मिलना मुश्किल हो रहा है, इसलिए अब लोग ऐसे भवन नहीं बना रहे हैं। देवदार की लकड़ी का इस्तेमाल आयुर्वेदिक औषधियों में भी होता है। इसके पत्तों में अल्प वाष्पशील तेल के साथ-साथ एस्कॉर्बिक अम्ल भी पाया जाता है। देवदार के वनों में कई तरह के वन्य प्राणी जैसे बाघ, भालू, हिरण, मौनाल, टै्रगोपान, बर्फानी फीजेंट इत्यादि मिलते हैं। सुंदर देवदार पेड़ों के नीचे विचरते ये वन्य प्राणी पर्यावरण के सौंदर्य में चार चांद लगाते हैं।
एक खासियत यह भी है कि इनके नए पौधे अनुकूल जलवायु में वयस्क पेड़ों के नीचे स्वतः उग आते हैं। अलबत्ता कठिन खाली स्थानों को भरने के लिए प्रांतीय वन विभाग इसकी पौध पालिथीन की थैलियों में उगाते हैं जिन्हें नर्सरी पौधे कहा जाता है। ये नर्सरी पौधे जब दो साल के हो जाते हैं तो खाली क्षेत्रों में रोप दिए जाते हैं। पर्यावरण को सौहार्द बनाने तथा देश की समृद्धि हेतु वनों को बढ़ाने के लिए ये पौधे रियायती दर पर उपलब्ध कराए जाते हैं। देवदार के अनेक उपयोगों को ध्यान में रखते हुए हमें इसके वनों के संरक्षण में ज्यादा से ज्यादा योगदान देना चाहिए और खाली क्षेत्रों में देवदार के पौधे ज्यादा से ज्यादा लगाने चाहिए।इस कामना में प्रकृति व मानव के सह अस्तित्व और प्रकृति संरक्षण की दिशा में उन्मुख एक समृद्ध विचारधारा भी साफ तौर पर परिलक्षित होती दिखायी देती है। आखिर प्रकृति के इसी ऋतु परिवर्तन एवं पेड़.पौंधों, जीव.जन्तु, धरती, आकाश से मिलकर बने पर्यावरण से ही तो सम्पूर्ण जगत में व्याप्त मानव व अन्य प्राणियों का जीवन चक्र निर्भर है देश में 50 लाख पेड़ लगाकर मशहूर होने वाले वृक्षमानव विश्वेश्वर दत्त सकलानी का 96 साल की उम्र में निधन हो गया। उनको राजकीय सम्मान के साथ ऋषिकेश के श्मशान घाट में मुखाग्नि दी गयीण् उन्होंने 50 लाख से अधिक पेड़ लगाकर अपना पूरा जीवन प्रकृति को समर्पित कर दिया था। छह-सात दशक पहले यह पूरा इलाका वृक्ष विहीन था। धीरे.धीरे उन्होंने बांज, बुरांश, सेमल, भीमल और देवदार के पौधे लगाना शुरू किए और इसके बाद पुजार गांव में बांज, बुरांश का मिश्रित सघन जंगल खड़ा हो गया। ये जंगल आज भी उनके परिश्रम की कहानी को बयां कर रहे हैं। देवदारों में आस्था होने का लोगों के पास जो भी तर्क हो, लेकिन देवदार में श्रद्धा होने की वजह से लोग इनका संरक्षण करेंगे।
चीड़ की तुलना में देवदार की लकड़ी अधिक कीमती होती है और उपयोगी भी। प्रदेश में देवदार की वनियों की संख्या और बढ़ाई जाएगी। छोटे जंगलों को वनिया नाम दिया गया है। एक वनिया में दो हजार से लेकर पांच हजार तक पेड़ होते हैं। वनिया दो से सात हेक्टेयर तक की होती हैं। चीड़ की लकड़ी सात.आठ हजार रुपए घन मीटर बिकती हैए वहीं देवदार की लकड़ी 50 हजार रुपए घन मीटर के हिसाब से बिकती है। किंतु कुछ समय से उत्तराखंड के इन वृक्षों को लकड़ी तस्करों ने समाप्त कर रहे है ण् स्वतंत्रता के 73 वर्ष बाद भी उनकी यह बात प्रासंगिक है। इसलिए भारत का इलाज करने के लिए लाइलाज होते गांवों के इलाज को प्राथमिकता देनी होगी।

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