डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला :
देश में आज 5 जी इंटरनेट की टैस्टिंग पर जोर दिया जा रहा है। लेकिन इस इंटरनेट की दुनिया में कुछ गाँव ऐसे भी है जो नेटवर्क कनेक्टिविटी जैसी मूलभत सुविधा से भी वंचित है। यहाँ नेटवर्क के लिए ग्रामीणों व स्कूली बच्चों ऊँचे स्थानों में जाकर मोबाइल से बात व ऑनलाइन क्लास लेती पड़ती है। पिछले लाकडाउन से बन्द पड़े स्कूलों के कारण ऑनलाइन क्लास के लिए बच्चें आज भी नेटवर्क की राह देख रहे है।
जो आज भी मोबाइल नेटवर्क की समस्या से जूझ रहे है। यहाँ इंटरनेट तो दूर की बात है। एक कॉल लगाने के लिए भी ऊँचे स्थानों में जाकर नेटवर्क ढूढना पड़ता है। ऐसा नहीं है कि यहाँ के ग्रामीणों ने नेटवर्क कम्पनियों से नेटवर्क स्थापित करने की मांग न कि हो। ग्रामीण व क्षेत्रीय जनप्रतिनिधि कई बार शासन, प्रशासन व नेटवर्क कम्पनियों के एजेंटों से यहाँ टावर लगाने की मांग कर चुके है। लेकिन अब तक ग्रामीणों की समस्या का समाधान नहीं हुआ।
जिस कारण आज भी ग्रामीण नेटवर्क की समस्या से जूझ रहे है।ग्रामीणों को नेटवर्क की सबसे ज्यादा समस्या पिछले वर्ष कोरोना महामारी के कारण हुए लाकडाउन में आई। लेकिन इन आनलाइन क्लासों का फायदा हर किसी क्षेत्र के बच्चें नहीं उठा पाए। क्योंकि वहाँ नेटवर्क उपलब्ध नहीं था। ऐसे में बच्चें पहाड़ो की ऊंची चोटियों में जाकर नेटवर्क ढूढ कर पढ़ते नज़र आए। इस बात को एक वर्ष बीत गया। लेकिन बच्चों व ग्रामीणों की समस्या अबतक हल नहीं हुई।
संचार क्रांति के इस दौर में जब भारत में आज 5जी इंटरनेट की टेस्टिंग पर जोर दिया जा रहा है तो वहीं इंटरनेट की इस दुनिया में कुछ गांव ऐसे भी हैं जो नेटवर्क कनेक्टिविटी जैसी मूलभत सुविधा से वंचित हैं. ग्रामीणों को मोबाइल फोन पर बात करने के लिए के लिए 5 से 7 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. एक तरफ जहां लॉकडाउन के समय देश के बच्चे ऑनलाइन क्लास ज्वाइन कर रहे हैं तो वहीं गंगी गांव के बच्चे इंटरनेट से कोसों दूर हैं. भारत तिब्बत सीमा से सटे सीमांत गांव उत्तराखंड के कई गांव संचार सुविधा से महरूम हैं. जहां के ग्रामीणों और छात्रों को मोबाइल नेटवर्क नहीं होने से भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. जो आज भी मोबाइल नेटवर्क की समस्या से जूझ रहे हैं. आपदा की दृष्टि से भी ये क्षेत्र संवेदनशील है, इसके बावजूद यहां पर नेटवर्क की समस्या बनी है.
ऐसा नहीं है कि यहां के ग्रामीणों ने शासन प्रशासन से नेटवर्क स्थापित करने की मांग ना की हो लेकिन अब तक ग्रामीणों की समस्या का समाधान नहीं हुआ है. ग्रामीणों का कहना है कि उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है, वहीं डीएम का कहना है कि मोबाइल नेटवर्क सेवा के लिए मोबाइल कंपनी के अधिकारियों से वार्ता की जा रही है. नेपाल सीमा से लगे उत्तराखंड के सैकड़ों निवासियों की पूरी जानकारी नेपाल सरकार के पास है। इन इलाकों में कौन सेना में नौकरी करता है और कौन बीएसएफ में यह जानकारी भी नेपाल के पास है। चीन से ताजा तनाव के बाद इस तल्खी के माहौल में यह कहना मुश्किल है कि नेपाल से यह जानकारी किसी और एजेंसी को नहीं मिली होगी। कहा तो यह भी जा रहा है कि सामरिक नजिरये से यह संवेदनशील भी हो सकता है। दरअसल इन इलाकों में नेपाल की सरकारी संचार एजेंसी स्काई इंसेट का ही दबदबा है।
ज्यादातर लोग बेहतर नेटवर्क के कारण नेपाली सिम का ही प्रयोग करते हैं और इसको हासिल करने में उनका आधार कार्ड और पहचान पत्र भी लगता है।चीन के साथ सबंधो में तल्खी के बाद भारत के लिए दूसरी बड़ी समस्या बनते जा रहे नेपाल का संचार नेटवर्क सीमा से लगे उत्तराखंड में भारतीय कंपनियों से बहुत बेहतर है। नेपाल की सरकारी संचार एजेंसी स्काई इंसेट के टावर के सिग्नल इन इलाकों में काफी मजबूत हैं। नेपाली नेटवर्क भारत के 40 किलोमीटर अंदर तक काम करता है। ऐसे में यहां के लोग नेपाली सिम को ही पसंद करते हैं। मीडिया रिपोर्ट की मानें तो नेपाली सिम पर भारत के मुकाबले ज्यादा सस्ता ऑफर पर मिलता है।
नेपाली सिम रिचार्ज की शुरुआत पांच से छह भारतीय रुपए में होती है और इतना ही नहीं इतने कम रुपए में ही 100 मिनट तक का टॉक-टाइम दिया जा रहा है।वहीं इंटरनेट सेवा के लिए बीस रूपए में कूपन दिये जा रहे हैं। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तराखंड में नेपाल सीमा पर पहाड़ों पर बीएसएनएल के टावर लगे हुए है। नेपाल से सीमा सटी होने की वजह से इनकी क्षमता बहुत कम रखी गई है. ऐसे में भारत के गांवों तक बीएसएनएल का सिग्नल पहुंच नहीं पाता है, क्योंकि ये गांव घाटियों के बीच बसे हैं। इतना ही नहीं सरकार ने इस भारतीय संचार कंपनी का नेटवर्क मजबूत करने की कोशिशें भी नहीं की।
ऐसे में स्थिति ये है कि बात करने के लिए और नेटवर्क रेंज में आने के लिए ऊंचे स्थान पर आना पड़ता है। इन दुर्गम इलाकों में भारत की संचार सुविधा लचर है। खासकर उत्तराखंड में नेपाल से लगे सीमावर्ती गांवों में बीएसएनएल के सिग्नल बहुत कमजोर हैं। स्थिति ये है कि भारत का नेटवर्क अक्सर घंटों काम नहीं करता है. ऐसे में सीमावर्ती गांवों के भारतीय लोग अभी भी नेपाली संचार सुविधा पर ही निर्भर हैं।जानकारी के मुताबिक, नेपाल की सरकारी संचार एजेंसी स्काई इंसेट के टावर के सिग्नल इन इलाकों में काफी मजबूत हैं। नेपाली नेटवर्क भारत के 40 किलोमीटर अंदर तक काम करता है। ऐसे में इन क्षेत्र के गांवों के लोग नेपाली सिम का इस्तेमाल करते हैं। इन इलाकों में नेपाली सिम की अवैध रूप से खरीद-फरोख्त भी होती है। कहा जा रहा है कि नेपाल की तीन संचार कंपनियों के सिम भारत में अवैध रूप से मिलते हैं।\
नेपाल में संचार कंपनियों को सिम का टारगेट दिया जाता है और सीमावर्ती क्षेत्रों में मांग होने के कारण इन्हें आसानी से यहां ग्राहक मिल जाते हैं।ये नागरिकों से पहचान पत्र और पूरी जानकारी फार्म में भरकर ले लेते हैं। ये स्थिति कोई आज की नहीं है। ऐसा सालों से चला आ रहा है पर चीन से ताजा विवाद के बाद नेपाल जिस तरह भारत विरोधी नजरिया दिखा रहा है उससे मामला संवेदनशील हो जाता है। कहा तो यह भी जा रहा है कि यहां तक कि सीमा पर सक्रिय भारत विरोधी तत्व भी नेपाली मोबाइल कंपनियों का ही प्रयोग करते हैं। इससे उनकी गतिविधियों की जानकारी प्रशासन व सुरक्षा एजेंसियों को नहीं मिल पाती है।
सेना की मध्य कमान के जनरल आफिसर इन कमांड (जीओसी) लेफ्टिनेंट जनरल ने सीमांत क्षेत्रों में स्थानीय अभिसूचना तंत्र को मजबूत करने की पैरवी की। पर्वतीय जनजीवन की खुशहाली के लिए कुछ भी ठोस दिशा नीति तय नहीं की गई. चूंकि उत्तराखंड उत्तर प्रदेश के पर्वतीय हिस्सों को अलग करके एक पर्वतीय राज्य बनाया गया लेकिन व्यावहारिक तौर पर पर्वतीय प्रदेश की जीवन पद्धति के हिसाब से विकास का आधारभूत ढांचा बनाने के बारे में सिर्फ जुबानी जमा खर्च होता रहा.असल में अतीत से ही इस संवेदनशील पर्वतीय अंचल की समस्याएं बाकी उत्तर प्रदेश से एकदम जुदा थीं.
लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि राज्य बनने के बाद यहां बदला कुछ भी ज्यादा नहीं. देहरादून में राजधानी उत्तर प्रदेश की राजधानी के एक्सटेंशन कांउटर की तरह काम कर रही है. पर्वतीय लोगों की पहचान को संरक्षित करने, रोजगार, शिक्षा व स्वास्थ्य और विकास का मॉडल यहां के भौगोलिक परिवेश की तर्ज पर ढालना ही पर्वतीय राज्य के आंदोलन और राज्य बनाने के मकसद की मूल अवधारणा थी. लेकिन सालों में इस राज्य की सरकारों ने इन लक्ष्यों को पाने के लिए कैसे काम किया, पलायन आयोग की रिपोर्ट उसी नाकामी का दस्तावेज है.