डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
भारतीय संस्कृति की आत्मा पर्व त्योहारों से बसती है। यहां की बहुरंगी बहुभाषी सांस्कृतिक विरासत की छटा देश के विभिन्न भागों में एक ही त्यौहार को अलग-अलग नामों रूपों से मनाए जाने में दिखाई देती है। लगभग प्रतिदिन देश के किसी न किसी भाग में कोई न कोई पर्व होता है इसीलिए कहा जाता है कि ‘सात वार और नौ त्यौहार’। अनंत त्योहारों की इस श्रृंखला में होली जैसे पर्व शिरोमणि है।फाल्गुन पूर्णिमा को मनाये जाने वाले रंगोत्सव की पूर्व संध्या पर होलिका दहन किया जाता है। वैसे वसंत पंचमी जो माघ मास के शुक्ल पक्ष की पाँचवीं तिथि को पड़ती है से ही होली का प्रारंभ हो जाता है। हर गाँव, क़स्बे, शहर में एक निश्चित स्थान पर वसंत पंचमी के दिन होली की स्थापना की जाती है। चालीस दिनों तक लोग वहाँ पर लकड़ियाँ डालते हैं। होलिका दहन के दिन उचित मुहूर्त में उसे अग्नि से प्रज्वलित कर दिया जाता है। विशेष यह कि भद्रा नक्षत्र में होलिका दहन वर्जित है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है. होली के पर्व से अनेक कहानियों प्रचलित हैं परंतु सबसे प्रसिद्ध कहानी स्वयं को ईश्वर मानने वाले हिरण्यकशिप और उसके ईश्वर भक्त पुत्र प्रह्लाद की है, जिसे होलिका अपनी गोद में लेकर आग में बैठती है लेकिन प्रभु कृपा से होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद का बाल भी बांका न हुआ। एक अन्य कथा राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ी है। माना जाता है कि श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खुशी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला करते हुए रंग खेला था।होली का वर्णन, जैमिनी के पूर्व मीमांसा -सूत्र और कथा गार्ह्यसूत्र, नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी मिलता है। होली में हँसीँ-ठिठोली का मूल च्अभिगर अपगर संवादज् नामक ग्रंथ में मिलता है। साहित्य संस्कृति की पिचकारी से एक-दूसरे पर आक्षेप-प्रत्याक्षेप करते हुए हास-परिहास करने और विभिन्न प्रकार की बोलियाँ बोलने की बहुत समृद्ध परंपरा रही है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं।प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में रंग नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली, तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही वसन्तोत्सव को अर्पित है। भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर पद लिखे हैं। तो चंद बरदाई रचित महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में भी होली का वर्णन है।अनेक कवियों ने लौकिक नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, तो वहीं राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार प्रेम का चिंत्रण किया है ।वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा।भारत में होली का उत्सव अलग -अलग प्रदेशों में भिन्नता के साथ मनाया जाता है। ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लठमार होली, काफी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। मथुरा और वृंदावन में भी एक पखवाड़े होली मनाई जाती है।कुमाऊँ की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर की धुनाई की प्रथा है। बंगाल की दोल जात्रा चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में होती है जहां समूह में नाचना गाना बजाना होता है। महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेलते हैं तो गोवा में शोभायात्रा और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। पंजाब का होला मोहल्ला सिक्ख गुरुओं द्वारा आरंभ की गई परम्पराओं की यादें ताजा करता हैं। विशेष रूप से आनंद साहिब का होला मोहल्ला जहां अनेक प्रकार के करतब और शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है।तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है जबकि मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया जो होली का ही एक रूप है। बिहार की होली विशेष है। बिहार पुत्र आज देश-विदेश में फैल चुके हें अतः वे जहां भी रहते हैं जमकर होली मनाते है। फगुआ गान से मालपुए जैसे पकवान उनकी पहचान हैं।साहित्यकारों की होली का अपना ही रंग होता है। हास्य व्यंग्य की फुहार के बीच मूर्ख सम्मेलन होली के आनंद को सहस्त्र गुणित करते हैं। इन मूर्ख सम्मेलनों में बड़े-बड़े विद्वान स्वयं को मूर्ख शिरोमणि कहलाते हुए गौरवान्वित होते हैं। जरा सी बात पर तनक जाने वाले ऐसे आयोजनों में अटपटी चटपटी उपाधियां पाकर भी फूले नहीं समाते।आज जीवन की मशीनी जिंदगी, भागदौड़ और व्यस्तता के कारण दूर रहने वाले रिश्तेदारों की कौन कहे, दीवार से दीवार वाले पड़ोसियों, मित्रों में मिलना-जुलना कम होता जा रहा है। होली हमें हमारे सामाजिक दायित्वों का स्मरण कराती है। शुभकामनाओ के आदान -प्रदान का अवसर उपलब्ध कराती है ताकि संबंधों की डोर न केवल सलामत रहे बल्कि बहुरंगी मिठास से श्रद्धा और विश्वास कायम रहे। होली प्रकृति के विशिष्ट रंगों और हँसी-खुशी का त्योहार है लेकिन आज प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, ठंडाई के स्थान पर नशा, लोक संगीत के स्थान पर फुहड़ फिल्मी गानों के प्रचलन से होली को बदरंग किया जा रहा है। आवश्यकता है हर मन में यह भाव जगाने की कि ‘बहुत हो ली मन की कलुषताएं, इस होली उन्हें धो ही डोले स्नेह सदभाव की धार से । होलिका दहन के साथ ही समय काल के साथ उपजी सभी समस्त विकृतियों को स्वाह करें । चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बने प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को जीवित करें।सत्य तो यह है कि होली माने जीवन । केवल सांस लेना नही, उल्लास पूर्ण जीवन । निसंदेह जीवन क्षणभंगुर है। यह सदा रहने वाला नहीं है इसलिए जब तक ईश्वर ने सांसे बक्शी है इस जीवन का माधुर्य कायम रहना चाहिए। होली जैसे पर्व इस भाव के संरक्षक है। हमारे चारों ओर बिखरे प्रकृति के रंग ऋतुराज वसंत के अवसर पर अपने यौवन पर होते हैं लेकिन अपनी फसल के संरक्षण में लगे किसान हो या सीमा पर तैनात जवान, परीक्षा के तनाव में जी रहे छात्र हो अथवा घर गृहस्थी की अति व्यस्त चक्की में पिस रही गृहिणी सहित सभी अपनी अपनी दुनिया और तनाव में जी रहे हो तब जोगीरा की लय व ढोलक की थाप जड़ता को तोड़ती है, तन मन की थकान को नष्ट करती है।होली नदी, पहाड़, खेत के सौंदर्य को विस्तारित, प्रसारित कर इसे रंगोत्सव बनाती है। जीवन के अनोखे रंग समेटे हमारे जीवन में रंग भरने वाली हमारी उत्सवधर्मिता की सोच मन में उमंग और उत्साह के नये प्रवाह को जन्म देती है। हमारा मन और जीवन दोनों ही उत्सवधर्मी है। हमारी उत्सवधर्मिता परिवार और समाज को एक सूत्र में बांधती है । संगठित होकर जीना सिखाती है । सहभागिता और आपसी समन्वय की सौगात देती है । हमारे त्योहार, जो हम सबके जीवन को रंगों से सजाते हैं, सामाजिक त्यौहार एक अनूठा मंच प्रदान करते हैं इनमे साथियों के साथ सहयोग करने, मिलने और सामूहीकरण करना, अपनी प्रतिभा दिखाने और विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं के बारे में सिखाने और सीखने की क्षमता होती है। ये कौशल हमारे जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा हैं और अक्सर हमारे जीवन के लगभग सभी पहलुओं के मूल में होते हैं।इसलिए, वर्तमान समय में इनकी प्रासंगिकता का जहां तक प्रश्न है, व्रत -त्यौहारों के दिन हम उक्त देवता को याद करते हैं, व्रत, दान तथा कथा श्रवण करते हैं जिससे व्यक्तिगत उन्नति के साथ सामाजिक समरसता का संदेश भी दिखाई पड़ता है। इसमें भारतीय संस्कृति के बीज छिपे हैं। ’’पर्व त्यौहारों का भारतीय संस्कृति के विकास में अप्रतिम योगदान है। भारतीय संस्कृति में व्रत, पर्व -त्यौहार उत्सव, मेले आदि अपना विशेष महत्व रखते हैं। हिंदुओं के ही सबसे अधिक त्योहार मनाये जाते हैं, कारण हिन्दू ऋषि – मुनियों के रूप में जीवन को सरस और सुन्दर बनाने की योजनाएं रखी है। प्रत्येक पर्व – त्योहार, व्रत, उत्सव, मेले आदि का एक गुप्त महत्व हैं। प्रत्येक के साथ भारतीय संस्कृति जुडी हुई है। वे विशेष विचार अथवा उद्देश्य को सामने रखकर निश्चित किये गये हैं। मूल्यों को पुनः प्रतिष्ठा के लिए मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है। मूल्यपरक शिक्षा आज समय की मांग बन गई है। अतः इसे शीघ्रतिशीघ्र लागू करने की आवश्यकता है। वर्तमान डिजिटल युग में लोग अपनी सभ्यता-संस्कृति को भूलते जा रहे हैं।लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। *लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*