देहरादून, रविवार, 21 अप्रैल, 2024। दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र की ओर से आज शाम संस्थान के सभागार में हिमालय के सुपरिचित लेखक, इतिहासकार और सामाजिक विचारक प्रोफे. शेखर पाठक द्वारा अस्कोट-आराकोट अभियान के संदर्भ में व्याख्यान और दृश्य प्रस्तुति का एक कार्यक्रम दिया गया। अस्कोट-अराकोट अभियान वस्तुतः यात्राओं से उपजे अनुभव से हिमालय को समझने की एक सामूहिक पहल है। वर्ष 1974 व उसके बाद से हर दस साल के अंतराल में हिमालयी क्षेत्र में यह यात्रा होती रहीं है। वर्ष 1974,1984,1994,2004 व 2014 में यह यात्राएं सम्पन्न हुईं। इसके बाद अब इस वर्ष 2024 में इसी अस्कोट-आराकोट अभियान के तहत यात्राएं की जाएंगी। पिछले दशकों (वर्ष 1974 से 2014 तक) के अस्कोट आराकोट अभियान यात्रा के अनुभवों का सार बताते हुए प्रोफे. शेखर पाठक ने 2024 वर्ष में आयोजित होने वाले छठें अस्कोट आराकोट अभियान यात्रा के विविध पक्षों व संदर्भ पर भी सम्यक प्रकाश डाला।
प्रोफे.शेखर पाठक ने कहा 1974 में श्री सुन्दरलाल बहुगुणा ने नये-नये बने कुमाऊं व गढ़वाल विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को अस्कोट से आराकोट यात्रा को प्रोत्साहित किया। जिसे 1984 में ‘पहाड‘ संस्था़ द्वारा विस्तृत रूप देकर यात्रा के नये क्षेत्रों को जोड़ा गया और अन्य अनेक मार्गों में भी यात्राएं सम्पन्न हुईं। अस्कोट-आराकोट अभियान 1974 से हमने हिमालय को पढ़ना और जानना शुरू किया था. जिसे 1984, 1994, 2004 और 2014 के अभियानों में अधिक गहराई मिलती गई। इस क्रम में भारतीय हिमालय के अन्य हिस्सों के साथ नेपाल ,भूटान और तिब्बत की यात्रायें की गई। इनमें भी जानने और सीखने की ललक अस्कोट-आराकोट अभियान जैसी ही थी। इन यात्राओं ने हमें हिमालय की प्राकृतिक जैविक सामाजिक सांस्कृतिक तथा पारिस्थितिक विविधता तथा हैसियत को भारतीय तथा एशियाई परिप्रेक्ष्य में समझने का मौका दिया।
2014 के अभियान यात्रा में हिस्सेदारी की अधिकता के वजह से अनेक उपदल भी बनाये गये थे। इससे कई नये इलाकों और गांवों में जाने का मौका मिला। पांगू अस्कोट आराकोट अभियान में देश के अनेक प्रान्तों और विदेशों के 200 अधिक यात्रियों ने प्रमुख रूप से ग्रामीण जन शिक्षक ,विद्यार्थी, पत्रकार ,वैज्ञानिक, लेखक, शोधार्थी, सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने शिरकत की इसमें साठ से अधिक महिलाएं थी। यह यात्रा नदी घाटी जनजातीय क्षेत्रों, तीर्थयात्रा मार्गों, 20 से अधिक विधानसभा क्षेत्रों व 2013 की आपदा से त्रस्त इ से इलाकों से गुजरी इस यात्रा का शुभारम्भ 25 मई 2014 को श्रीदेव सुमन के जन्म दिन पर पांगू (पिथौरागढ़) में श्री चंडी प्रसाद भट्ट द्वारा किया गया। 45 दिनों में सात जिलों के 350 से अधिक गांवों का स्पर्श कर 150 किमी लंबे अभियान का समापन 8 जुलाई 2014 को आराकोट (उत्तरकाशी) में हुआ। तीन अन्य सहयोगी समूहों ने रामगंगा, सरयू व मन्दाकिनी घाटी तथा देहरादून में स्वतंत्र यात्राएं की।
अभियान में के दौरान आये अनेक तथ्यों को शानदार दृश्य चित्रों के माध्यम से रखते हुए प्रोफे.शेखर पाठक ने कहा कि प्रदेश में शिक्षा के प्रति लड़कियों में बढ़ता रुझान आशा की किरण रही तो दूरस्थ शिक्षा के बाजारीकरण के लक्षण दिखाई देना चिंता का विषय रहा। पहाड़ों में स्वास्थ्य सुविधा तो भगवान भरोसे है। महिलाओं के उपर जिम्मेदारियों का भार बढ़ रहा है। 2013 की महाआपदा के एक साल बाद भी प्रभावित क्षेत्र त्रासदी से जूझ रहे थे। पलायन से पहाड़ का कोई भी क्षेत्र मुक्त नहीं है। परंपरागत यात्रा मार्ग, ऐतिहासिक व पुरातात्विक स्थल उपेक्षा झेल रहे हैं। अनेक सीमान्त गांव मोटर रोड से 20-25 किमी दूर हैं तथा पैदल मार्ग उपेक्षित है। नदियों में पुल नहीं है। सीमांत क्षेत्र या तो संचार सुविधा से वंचित है या हिमांचल और नेपाल पर निर्भर है। कुछ क्षेत्रों में कीड़ा जड़ी (यारसागम्बू) नया आर्थिक स्रोत बनी है. लेकिन दोहन की कोई नीति नहीं है। अनेक स्थानों में ग्रामीणों ने अपने उद्यम व आन्दोलनों के जरिये अनेक महत्व के काम किये हैं।
अस्कोट-आराकोट अभियान का क्रम मूलतः उत्तराखंड केन्द्रित रहा है। अतः इन्हें उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में देखना ही उचित होगा। इन यात्राओं के साथ 1974 में चिपको आन्दोलन, 1984 में नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन 1994 में उत्तराखंड राज्य आन्दोलन तथा 2004 में गैरसैण राजधानी स्थापना के आन्दोलन को देखना उत्तराखंड के समकालीन सामाजिक आन्दोलनों की समझ देता है। नये राज्य के 14 साल अंतिम दो यात्राओं ने देखे है। अतः उत्तर प्रदेश में उत्तराखंड तथा उत्तराखंड में उत्तराखंड को देखने और तुलना करने का मौका भी इस अभियान ने दिया।
कुल मिलाकर यह यात्राएं भूगोल, भूगर्भ, इतिहास-समाज, भाषा-संस्कृति, पर्यावरण-विकास, आपदा के विविध स्वरूपों, पलायन और आर्थिकी के अनेक पक्षों को प्रत्यक्ष समझने का मौका देती हैं। दशक वार परिवर्तन के मिजाज से ठहराव के अंश समझे जा सकते हैं। परिवर्तन को व्यक्ति, गांव, घाटी, समुदाय, संस्था या विकास कार्य के प्रतिकूल भी देखा जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन यात्राओं के हिस्सेदारों ने इन यात्राओं से वह सब जाना और सीखा, जो वे किताबों से नहीं सीख सके थे। कागज की लेखी और आंखन की देखी का अन्तर समझने के साथ यात्री दल एक मौलिक नजर से पहाड़ों को देखने-विश्लेषित करने का विवेक अर्जिज कर सके। बहुत से साथियों ने अपने कार्य को इन यात्राओं से दिशा भी दी।
उल्लेखनीय है कि प्रोफे.शेखर पाठक कुमाऊं विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे हैं। हिमालय तथा उत्तराखंड के इतिहास पर कार्य किया और कर रहे हैं- विशेष रूप से औपनिवेशिक युग पर। कुली बेगार प्रथा, जंगलात आन्दोलन, राष्ट्रीय संग्राम, पत्रकारिता, व्यक्तित्व, समाज-संस्कृति तथा भौगोलिक अन्वेषण पर उनका शोध कार्य सराहनीय है। आपको हिमालय के सतत यात्री और अध्येता के रूप में मान्यता मिली। वर्तमान में आप पहाड़ संस्था के सहयोगी होने के साथ ही पहाड़ पत्रिका के संपादक भी हैं। आप भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला तथा नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय, दिल्ली के पूर्व फैलो रहे हैं।
कार्यक्रम के आरंभ में दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के निदेशक श्री एन. रवि शंकर ने उपस्थित लोगों और प्रो.शेखर पाठक का स्वागत किया और दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के कार्यक्रमों का परिचय दिया।
आज के इस कार्यक्रम में पूर्व मुख्य सचिव एन एस नपलच्याल प्रसिद्ध छायाकार पद्मश्री अनूप साह इतिहासकार डॉ.योगेश धस्माना, पर्यावरण विद पद्मश्री कल्याण सिंह रावत ‘मैती’, गीता गैरोला,हिमांशु आहूजा, उत्तरा पत्रिका की संपादक उमा भट्ट, विजय भट्ट, रमाकान्त बेंजवाल भूमेश भारती , सुरेंद्र सजवाण, पद्मश्री बसन्ती बिष्ट निकोलस हॉफ़लैंड,बीजू नेगी, दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के प्रोगाम समन्वयक चंद्रशेखर तिवारी, सुंदर सिंह बिष्ट सहित अनेक सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक विषयों से जुड़े अध्येता, साहित्यकार, इतिहासकार ,लेखक, पत्रकार तथा युवा पाठक उपस्थित रहे।