डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
अल्मोड़ा की बाल मिठाई सिर्फ स्वाद के लिए ही नहीं जानी जाती। बल्कि यह अल्मोड़ा के समाज, संस्कृति की एक झलक भी दिखाती है। कहा जाता है कि 1865 के आस-पास लाला बाजार में सबसे पहले बाल मिठाई ईजाद हुई थी। इसका श्रेय जोगा साह को जाता हैअंग्रेजों को भी इसका स्वाद खूब भाता था। ब्रिटिश राज में गर्मियों में गोरे पहाड़ पर छुट्टी मनाने आते तो इसका स्वाद लेते थे। आजादी के बाद अल्मोड़ा की बाल मिठाई यहां के लोगों की पहचान बन गई। बाल मिठाई, दुकान में बेचे जाने वाले व्यापारी तक ही सीमित नहीं रह गई थी। बल्कि इससे आस-पास के गांवों के लोगों का रोजगार भी जुड़ा हुआ था। पशुपालक अधिक मात्रा में दुग्ध उत्पादन करने लगे। जिससे आस-पास की आर्थिकी को भी मजबूत करने का काम किया। तीन दशक पहले तक लोग पशुपालन की ओर बहुत अधिक ध्यान देते थे। लेकिन धीरे-धीरे वह सिमटने लगा। अल्मोड़ा पहुंचते ही आपको बाल मिठाई की महक आने लगेगी। मुख्यालय में ही करीब 200 से अधिक बाल मिठाई की दुकानें होंगी। उत्तराखंड में एक जिला एक उत्पाद में भी बाल मिठाई को ही जगह दी गई है। राज्य सरकार ने स्थानीय उत्पादों से रोजगार सृजन व आर्थिकी को बढ़ावा देने के लिए एक जिला दो उत्पाद योजना शुरू की। इसमें अल्मोड़ा की बाल मिठाई ने अपनी जगह बनाई। इसका उद्देश्य लोगों को पशुपालन से जोड़ना ताकि स्वरोजगार कर आर्थिक रूप से सक्षम हो सकें। पहले पहाड़ी गाय, भैंस से निकलने वाले दूध से जो खोया बनता था। उससे बाल मिठाई बनाई जाती थी। खोए को तब तक घोंटा जाता है जब तक वह कत्थई रंग न ले ले। इसके बाद दाने जिसे बालदाना कहा जाता है उसे चिपका देते हैं। जिसका स्वाद एक बार लेने वाला बार-बार इसे ही मांगता है। अब पहाड़ में दुग्ध उत्पादन कम होने से बाहर से आए खाेये से ही अब बाल मिठाई निर्मित की जाती है। कुछ दुकानदार जरुर स्थानीय दुग्ध उत्पादों का प्रयोग करते हैं। अल्मोड़ा की बाल मिठाई का डिब्बा भी स्थानीय स्तर पर बनाया जाता है। उसका रंग, आकार, डिजाइन ऐसा होता है कि एक बार देखने वाला ही बता देता है कि यह अल्मोड़ा की बाल मिठाई है।बाल मिठाई विक्रेता व निर्माता अमर सिंह ने कहा कि दूर-दराज के क्षेत्रों में बाल मिठाई जाती है। अन्य जिलों व प्रदेशों से भी लोग आकर ले जाते हैं। वैसे तो अन्य जिले में भी यह बनने लगी है पर अल्मोड़ा की मिठाई का स्वाद ही अलग है। वर्तमान में यह तथ्य सर्वमान्य रूप से माना जाता है कि सबसे पहले 1865 में बाल मिठाई अल्मोड़े के जोगा लाल शाह ने बनाई. जोगा लाल शाह की पांचवी पीड़ी आज भी बाल मिठाई का काम करती है. वर्तमान में अल्मोड़ा में ज्यादा बाल मिठाई की दुकानें हैं. लोकप्रियता की बात की जाय तो जोगा शाह की बाल मिठाई दूसरा खीम सिंह मोहन सिंह की बाल मिठाई का नाम देश दुनिया जानती है. अल्मोड़ा और बाल मिठाई तो जैसे एक दूजे के पर्याय हैं. इधर अपने बाल मिठाई कहा उधर अल्मोड़ा ख़ुद-ब-ख़ुद इससे जुड़ जाता है. अल्मोड़ा और बाल मिठाई की यह जोड़ी बीते दिन दुनिया भर में चर्चा का विषय रही जब थॉमस कप जीतने के बाद प्रधानमंत्री ने बैडमिंटन खिलाड़ी लक्ष्य सेन से अल्मोड़ा की बाल मिठाई खिलाने को कहा. फिर क्या था अपनी अगली ही मुलाक़ात में लक्ष्य सेन ने प्रधानमंत्री को अल्मोड़े बाल मिठाई भेंट कर दी. उत्तराखंड के गठन ने इसे एक प्रतिष्ठित दर्जा दिया—इसे दूध मेवा कहा जाता था। खसखस की जगह अब चीनी की गोलियाँ (होम्योपैथिक दवाओं में सबसे ज़्यादा देखी जाती हैं) ने ले ली है, शायद लागत कम करने के लिए।पारखी आपको पारंपरिक बाल मिठाई की कोमलता और कैरेमलाइज़्ड चीनी के स्वाद की याद दिलाएँगे। युवा प्रवासी उत्तराखंडियों को अपने माता-पिता या दादा-दादी की बाल मिठाई से उतना लगाव नहीं है, लेकिन सांस्कृतिक जड़ों की खोज इस क्षेत्र की विशिष्ट मिठाई में रुचि जगा रही है। उत्तराखंड के अल्मोड़ा की बाल मिठाई आज राज्य ही नहीं बल्कि देश-विदेश तक अपनी अलग पहचान बना चुकी है. बाल मिठाई एक बार जो चख लेता है, वो इसका मुरीद हो जाता है ग्राहक भुवन सिंह ने बताया कि वह 35 साल से लाला जोगा साह के वहां से बाल मिठाई ले रहे हैं. इनकी मिठाई सबसे पुरानी है और इन्होंने ही इस मिठाई को सबसे पहले बनाया था. यहां की मिठाई का टेस्ट जैसा पहले था, वह आज भी बरकरार है. अंग्रेज तो चले गए लेकिन इस खास चॉकलेट और बाल मिठाई के दीवानों की यहां कोई कमी अब भी नहीं है. अब चॉकलेट और बाल मिठाई को उसकी प्रमाणिक पहचान दिलाने की तैयारी अल्मोड़ा प्रशासन ने की है. अल्मोड़ा की डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के मुताबिक मिठाई को ज्योग्राफिकल इंडिकेशन यानी GI टैग दिलाने के लिए प्रयास किए जाएंगे. GI एक तरीके का प्रमाण है जो कि किसी प्रोडक्ट के ओरिजिनल जन्म स्थान को दर्शाता है. देशभर में 400 से ज्यादा प्रोडक्ट्स को GI टैग मिला हुआ है. समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के साथ ही उत्तराखंड अपने विशिष्ट उत्पादों के लिए भी पहचान रखता है। इन उत्पादों को राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने के लिए इन्हें भौगोलिक संकेतक यानी जीआई (ज्योग्राफिकल इंडिकेशन) टैग दिलाने की दिशा में कसरत तेज की गई है। जीआइ टैग किसी भी उत्पाद को उसके विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र से जोड़ता है। यह उसके मूल स्थान, प्रतिष्ठा, गुणवत्ता समेत अन्य विशेषताओं को प्रदर्शित करता है। किसी उत्पाद को जीआइ टैग मिलने पर कोई दूसरा उसके नाम का उपयोग नहीं कर सकता। केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के अंतर्गत महानियंत्रक पेटेंट, डिजाइन व ट्रेड मार्क्स हर पहलू से परीक्षण करने के बाद जीआइ टैग प्रदान करता है। पिछले कुछ सालों में अल्मोड़ा की बाल मिठाई के स्वाद में अंतर क्यों है. सीमित शुद्ध पहाड़ी खोये के कारण ही आज भी अल्मोड़ा के प्रतिष्ठित बाल मिठाई की दुकानों में दोपहर तक बाल मिठाई खत्म हो जाती है. उत्तराखंड सरकार को समझना चाहिये कि वह सार्वभौमिक नीतियों के साथ उत्तराखंड का विकास कभी नहीं कर सकती. उत्तराखंड सरकार को चाहिये कि वह अपनी भौगोलिक स्थिति के आधार पर बने समाज को ध्यान में रखकर नीतियों का निर्माण करे. विशिष्ट उत्पादों को जीआई टैग प्राप्त हो। इससे न केवल राज्य की अर्थव्यवस्था को बल मिलेगा, बल्कि पलायन कर रहे हमारे किसान और कारीगरों को अपने गांव में ही सम्मानजनक आजीविका मिल सकेगी।” उन्होंने बताया कि जीआई टैग प्राप्त उत्पादों की ब्रांडिंग और मार्केटिंग के लिए अलग से रणनीति बनाई जा रही है, ताकि ये उत्पाद अमेजन, फ्लिपकार्ट जैसे ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स के साथ-साथ विदेशी बाजारों में भी मजबूती से पहुंच सकें।उत्तराखंड की यह मुहिम देश के अन्य पहाड़ी राज्यों के लिए भी प्रेरणास्रोत बन रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि जीआई टैग से जहां एक ओर जैविक और परंपरागत खेती को बढ़ावा मिलेगा, वहीं दूसरी ओर राज्य की सांस्कृतिक धरोहर भी सुरक्षित रहेगी। आने वाले कुछ वर्षों में उत्तराखंड “जीआई टैग का हब” बनकर उभरेगा, ऐसी उम्मीद जगी है। *लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*











