डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
बथुआ एक वनस्पति है जो भारत में रवि के फसलों के साथ के उगता है। इसका शाक बनाकर खाने के काम आता है। बथुआ का वैज्ञानिक नाम ( Chenopodium Album ) है, बथुआ संस्कृत भाषा में वास्तुक और क्षारपत्र के नाम से जाना जाता है बथुआ एक ऐसी सब्जी या साग है, जो गुणों की खान होने पर भी बिना किसी विशेष परिश्रम और देखभाल के खेतों में स्वतः ही उग जाता है। एक डेढ़ फुट का यह हराभरा पौधा कितने ही गुणों से भरपूर है।
बथुआ के परांठे और रायता तो लोग चटकारे लगाकर खाते हैं बथुआ का शाक पचने में हल्का, रूचि उत्पन्न करने वाला, शुक्र तथा पुरुषत्व को बढ़ने वाला है। यह तीनों दोषों को शांत करके उनसे उत्पन्न विकारों का शमन करता है। विशेषकर प्लीहा का विकार, रक्तपित, बवासीर तथा कृमियों पर अधिक प्रभावकारी है। औषधीय गुणों से भरपूर बथुआ बथुआ एक ऐसी सब्जी है जिसके गुणों से ज्यादातर लोग अपरिचित हैं। ये छोटा.सा दिखने वाला हराभरा पौधा काफी फायदेमंद है, सर्दियों में इसका सेवन कई बीमारियों को दूर रखने में मदद करता है। बथुए में आयरन प्रचुर मात्रा में होता है, बथुआ न सिर्फ पाचनशक्ति बढ़ाता बल्कि अन्य कई बीमारियों से भी छुटकारा दिलाता है। गुजरात में इसे चील भी कहते है। बथुआ एक ऐसी सब्जी या साग है, जो गुणों की खान होने पर भी बिना किसी विशेष परिश्रम और देखभाल के खेतों में स्वतः ही उग जाता है। एक डेढ़ फुट का यह हराभरा पौधा कितने ही गुणों से भरपूर है। बथुआ के परांठे और रायता तो लोग चटकारे लगाकर खाते हैं, लेकिन वे इसके औषधीय गुणों से ज्यादा परिचित नहीं है, बता रहे हैं वैद्य हरिकृष्ण पाण्डेय हरीश इसकी पत्तियों में सुगंधित तैल, पोटाश तथा अलवयुमिनॉयड पाये जाते हैं। दोष कर्म की दृष्टि से यह त्रिदोष वात, पित, कफ को शांत करने वाला है। आयुर्वेदिक विद्वानों ने बथुआ को भूख बढ़ाने वाला पित्तशामक मलमूत्र को साफ और शुद्ध करने वाला माना है।
यह आंखों के लिए उपयोगी तथा पेट के कीड़ों का नाश करने वाला है। यह पाचनशक्ति बढ़ाने वाला, भोजन में रुचि बढ़ाने वाला पेट की कब्ज मिटाने वाला और स्वर गले को मधुर बनाने वाला है। गुणों में हरे से ज्यादा लाल बथुआ अधिक उपयोगी होता है। इसके सेवन से वातए पित्तए कफ के प्रकोप का नाश होता है और बल.बुद्धि बढ़ती है। लाल बथुआ के सेवन से बूंद.बूंद पेशाब आने की तकलीफ में लाभ होता है। टीबी की खांसी में इसको बादाम के तेल में पकाकर खाने से लाभ होता है। नियमित कब्ज वालों को इसके पत्ते पानी में उबाल कर शक्कर चीनी नहीं मिला कर पीने से बहुत लाभ होता है। यही पानी गुर्दे तथा मसाने के लिए भी लाभकारी है। इस पानी से तिल्ली की सूजन में लाभ होता है। सूजन अधिक हो तो उबले पत्तों को पीसकर तिल्ली पर लेप लगाएं। लाल बथुआ हृदय को बल देने वाला, फोड़े.फुंसी, मिटाकर खून साफ करने में भी मददगार है। बथुआ लीवर के विकारों को मिटा कर पाचन शक्ति बढ़ाकर रक्त बढ़ाता है। शरीर की शिथिलता मिटाता है। लिवर के आसपास की जगह सख्त हो, उसके कारण पीलिया हो गया हो तो छह ग्राम बथुआ के बीज सवेरे शाम पानी से देने से लाभ होता है। बीजों को सिल पर पीस कर उबटन की तरह लगाने से शरीर का मैल साफ होता है, चेहरे के दाग धब्बे दूर होते हैं। तिल्ली की बीमारी और पित्त के प्रकोप में इसका साग खाना उपयोगी है। इसका रस जरा.सा नमक मिलाकर दो.दो चम्मच दिन में दो बार पिलाने से पेट के कीड़ों से छुटकारा मिलता है। पत्तों के रस में मिश्री मिला कर पिलाने से पेशाब खुल कर आता है। इसका साग खाने से बवासीर में लाभ होता है। पखाना खुलकर आता है। दर्द में आराम मिलता है। इसके काढ़े से रंगीन तथा रेशमी कपड़े धोने से दाग धब्बे छूट जाते हैं और रंग सुरक्षित रहते हैं। अरुचि, अर्जीण, भूख की कमी, कब्ज, लिवर की बीमारी पीलिया में इसका साग खाना बहुत लाभकारी है। सामान्य दुर्बलता बुखार के बाद की अरुचि और कमजोरी में इसका साग खाना हितकारी है। धातु दुर्बलता में भी बथुए का साग खाना लाभकारी है।
बथुआ की पत्तियों में विटामिन ए की सर्वाधिक मात्रा 11300 IU ( international unit) पाई जाती है। बथुआ में फाइबरए प्रोटीनए कार्बोहाइड्रेट, कई विटामिन, कैल्शियम, पोटाशियम, लोहा, मैग्नीज, मैग्नेशियम, सोडियम, जक, फास्फोरस आदि तत्व मिलते हैं बथुआ एक गेहूं में पाये जाने वाला खर पतवार है। बथुआ की दूसरी प्रजाति का वर्णन हिमालयी चीन में 2500-1900 BC में मिलता है। अतः कह सकते हैं कि बथुआ उत्तराखंड में प्रागैतिहासिक काल से पैदा होता रहा है। यूरोप में इसका अस्तित्व 800 BC में था। वैज्ञानिक बथुआ का जन्मस्थान यूरोप मानते हैं। हिमालय की कई देसों में बथुवा की खेती भी होती है। डा के.पी. सिंह ने लिखा है कि बथुवे का जन्मस्थल पश्चिम एसिया है।
शायद बथुआ का कृषिकरण चीन व भारत .नेपाल याने मध्य हिमालय में शुरू हुआ। अनुमान है कि बथुवा के बीज चालीस साल तक ज़िंदा रह सकते हैं। आयुर्वैदिक साहित्य जैसे भेल संहिता 1650 AD में बथुवे का आयुवैदिक उपयोग का उल्लेख है (K.T Acharya , 1994, Indian Food)। बथुआ का वर्णन भावप्रकाश निघण्टु, राज निघण्टु, मदनपाल में दवाईओं हेतु हुआ है। समरंगना सूत्रधार में बथुआ का उपयोग मकान पोतने हेतु उल्लेख हुआ है। साधारणतया बथुआ का पौधा तीन फीट तक ऊंचा होता है किन्तु 6 फीट ऊंचा बथुआ भी पाया जाता है। प्राचीन काल में बथुआ के बीजों को अन्य अनाजों के साथ मिलाकर आटा बनाया जाता था। बथुआ का औषधि उपयोग बथुआ का पेट दर्द, गठिया, पेचिस, जले आदि में औषधि में उपयोग होता है। फसलों के साथ बथुवा के पौधे कीटनाशक का कार्य भी करते हैं। कई कीड़े गेहूं को छोड़ बथुवा पर लग जाते हैं और गेंहूं कीड़ों की मार से बच जाते हैं। बथुआ का मसाले रूप पितकुट या बेथकुट में उपयोग गढ़वाल में बथुआ सब्जी बनाने, आटा बनाने हेतु ही प्रयोग नहीं होता था अपितु मसला मिश्रण का एक अंग भी होता था। इस लेखक ने पने गाँव में बथुआ को मसाले रूप में प्रयोग होते देखा है और उपयोग भी किय है । बेथकुट या पितकुट बनाने के लिए बेथु के पूर्ण पकी मा बीजों के टहनी उखाड़ कर सुखाया जाता है फिर जड़ तोड़कर मय बीज टहनी को ओखली में कूटा जाता है। बहुत अधिक महीन नहीं कूटा जाता है। फिर इस कूटे मसाले को नमक के साथ पीसकर चटनी बनाई जा सकती है। बेथकुट या पितकुट को पळयो, झुळी में बहुत उपयोग होता था। अन्य सब्जियों में विशेष स्वाद बढ़ाने हेतु सहायक मसाले के रूप में उपयोग होता था। बहुत बार वैद्य किसी विशेष उपचार हेतु मरीज को भोजन में पितकुट या बेथकूट उपयोग की सलाह भी देते थे। हिमाचल व हिमाचल से लगे उत्तराखंड में बथुआ बीजों का उपयोग सुरा घाँटी शराब बनाने हेतु एक अवयव के रूप में उपयोग होता है।
स्त्रोत- कृषि विभाग, भारत सरकार।