डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
देशभर में घास की 1235 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें 185 उत्तराखंड के मैदानी क्षेत्र से लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्रों तक मिलती हैं। इनमें कई ऐसी भी हैं, जो विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुकी है। पहाड़ी क्षेत्रों में चट्टानों पर उगने वाली एक लटनुमा घास की प्रजाति है। चट्टानों पर उगने के कारण इसको हासिल करना भी जोखिमपूर्ण कार्य है। इसके पत्ते गोल, लगभग चीड़ की पत्तियों की शक्ल में काफी लम्बे व नुकीले होते हैं। इतने नुकीले कि हाथ से पकड़ने में असावधानी बरती तो हाथ को भी लहुलूहान करते देती हैं। नुकीले होने के कारण मवेशी भी इसे खाना पसन्द नहीं करते, लेकिन पहाड़ के पहाड़ जैसे हौसले वाले लोगों ने सर्वथा अनुपयोगी बुकिल को भी आग जलाने के लिए जहां उपयोगी साबित कर दिया, वहीं भापड़ को भी बहु.उपयोगी बनाने में अपने कौशल का प्रदर्शन कर दिखाया।
बुकिल पहाड़ के जंगलों में बहुतायत से पाया जाने वाला पौधा है, जिसमें सफेद रंग के फूल आते हैं। न तो इसकी पत्तियों को जानवर खाते हैं और न इस के फूल लोगों को आकर्षित कर पाते हैं, लेकिन इस पौधे को कूटकर इसकी लुग्दी डांसी पत्थरों के परस्पर घर्षण से उत्पन्न चिंगारी को आग के रूप में सुलगाने में सहायक होती है। जब दियासलाई का आविष्कार नहीं हुआ था तो पहाड़ों में आग इसी तरह सुलगाई जाती थी। पहाड़ के गांव के घरों के बाहर छत के बांसों बल्लियों में लटाकार झुकी हुई बाबिल के मूठों को सजाये आपने कभी अवश्य देखा होगा। बरसात के पानी से बचाने के लिए इसे छतों के नीचे रखा जाता है, ताकि वक्त.वेवक्त इसे काम में लाया जा सके। मवेशी भले ही इसकी घास को नहीं खाते, लेकिन रोजमर्रा की जिन्दगी में इसके एक नहीं अनेकों उपयोग हैं।
पहाड़ में मुख्य रूप से बाबिल या बाबड़ का उपयोग कूची बनाने के लिए किया जाता है। कूची बनाने के लिए बाबिल के एक मूठे को एक.दो घण्टे पानी में डुबो दिया जाता है, ताकि यह मुलायम हो जाय और हाथ से पकड़ने पर कटने की समस्या न हो। फिर इस घास की जड़ के हिस्सों को बराबर करके बीचों.बीच में 6 या 8 इंच का मोटा डण्डा फंसाकर बाबिल के साथ कसकर बांध दिया जाता है। डण्डा कूची के सपोर्ट के लिए बांधा जाता है, अन्यथा केवल बाबिल के मूठे को भी कसकर बांध सकते हैं। इसके बाद बांधे गये मूठे को नीचे की ओर करके चारों ओर बाबिल की ऊपरी छोर की घास को झुका दिया जाता है। इस प्रकार की आपके द्वारा बांधी गयी गांठ अन्दर की ओर चली जाय। अब बटी गयी बाबिल की डोरियों से नीचे से दो इंच छोड़कर बांधते जाते हैं। डोरी इतनी लम्बी हो कि एक ही डोरी से हर दो इंच की दूरी पर बांधते चले जायें। इस प्रकार एक कूची में लम्बाई के अनुसार चार पांच गांठ तक कस कर दें। गांठें जितनी नजदीक होंगी, कूची उतनी ही टिकाऊ होगी। अन्तिम गांठ के बाद कूची में 3-4 इंच खुला छोड़कर घास के सिरों को बराबर में किसी धारदार वसूले अथवा दराती से नीचे लकड़ी का आधार लेकर काट दें। आपकी कूची तैयार हो गयी। पहाड़ के गांवों में घर की साफ.सफाई के लिए झाड़ू के रूप में तो इसका आम उपयोग होता ही है। साथ ही घर की पोताई करने में भी इसका इस्तेमाल बखूबी किया जाता है। इससे बनी रस्सी भीमल की रस्सी से ज्यादा मजबूत बतायी जाती है। बशर्ते कि पानी से उसका बचाव हो। इस रस्सी का उपयोग जंगल से घास, लकड़ी लाने के साथ ही चारपाई के निवाड़ के रूप में भी किया जाता है।
पहाड़ के गांवों में शवयात्रा के समय शव को बांधने में भी कई लोग बाबिल की डोरियों का इस्तेमाल करते हैं। इस कारण कई लोग बाबिल की रस्सियों का ऐब भी मानते हैं। कुमाऊं में भाबर का इलाका घास और मैदानों चौड़ के लिए जाना जाता था। जहां भाबड़ नामक इयोलालियोप्सिस बिनाटा घास काफी मिलती थी। इसका उल्लेख ब्रिटिशकाल में 1927 में जंगलात के हल्द्वानी वर्किंग प्लान में अंग्रेजों ने उल्लेख बैब भाबड़ नाम से किया है। इस घास की लंबाई और मजबूती के चलते रस्सी बनाई जाती थी, जिसका मैदान में चारपाई बनाने में इस्तेमाल होता था। इतिहासकार कहते हैं कि एक किवदंती के अनुसार इसी भाबड़ घास से ही भाबर का नाम पड़ा था।
वीकपीडिया में भी इसी तरह की जानकारी मिलती हैए पर इस घास के बारे में जंगलात के अधिकांश अधिकारियों को जानकारी नहीं है। फील्ड से लेकर रिसर्च से जुड़े अधिकारियों को वर्तमान में कुमाऊं में यह घास किस जगह पर है, कितना एरिया कम या ज्यादा हुआ है आदि के बारे में पुष्ट जानकारी नहीं है। पंतनगर विवि के खरपत निवारण परियोजना के अनुसार बीते 20 सालों में ऐसे कोई घास उनकी जानकारी में नहीं आई है। बहरहाल, इसके बारे में और जानकारी जुटाई जाएगी। कुमाऊं के जंगल में भाबड़ नामक घास मौजूद है, लेकिन वन महकमे से यह गायब है। एक अनुमान के मुताबिक जिस घास के नाम से इलाके का नाम भाबर पड़ने की संभावना जताई जाती हैए उस घास के बारे में ही जंगलात के अधिकांश वनाधिकारियों को पता नहीं हैए जबकि यह घास न केवल हल्द्वानी के आसपास मौजूद है बाबिल की घास से श्झाऊणश् ;झाड़ूद्ध बनता थाण् यह एक असाधारण कला थीण् हर कोई झाऊण नहीं बना सकता थाण् रात से बाबिल को जहाँ पानी की गगरी रखी रहती थी वहीं नीचे या बाल्टी में भिगो देती थेण् पारिस्थितिकी के संरक्षण में अहम भूमिका निभाने वाली घास प्रजातियों को महफूज रखने की दिशा सर्वोत्तम होती हैं। सबको देखते हुए घास की प्रजातियों के संरक्षण का निर्णय लिया गया। का संरक्षण किया जाएगा। कोशिश ये है कि यहां पाई जाने वाली घास की सभी प्रजातियां सुरक्षित रहें, ताकि भविष्य में ये किसी क्षेत्र से विलुप्त भी हो गई तो इन्हें फिर से वहां लौटाया जा सके। का संरक्षण किया जाएगा। कोशिश ये है कि यहां पाई जाने वाली घास की सभी प्रजातियां सुरक्षित रहें, ताकि भविष्य में ये किसी क्षेत्र से विलुप्त भी हो गई तो इन्हें फिर से वहां लौटाया जा सके। सरकार की ओर से इस विषय पर ठोस सकारात्मक पहल करनी होगी। हमें अपनी परम्पराओं तथा संस्कृति से भावी पीढ़ी को जोड़ना होगा।