डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
देश में बाघों के लिए सबसे मुफीद माना जाने वाला कॉर्बेट टाइगर रिजर्व अब अपनी धारण क्षमता के अंतिम छोर पर पहुंच गया है. कभी जंगल के राजा टाइगर की सल्तनत कहे जाने वाले इस रिजर्व में अब उनकी मौजूदगी खतरे की घंटी बनती जा रही है. भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा कराए जा रहे अध्ययन के शुरुआती निष्कर्षों ने साफ कर दिया है कि कॉर्बेट अब और बाघों का भार सहन करने की स्थिति में नहीं है.दरअसल, कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में बाघों की बढ़ती संख्या और उनके लिए सीमित हो रहे क्षेत्रफल के चलते कॉर्बेट और आसपास के वन्य क्षेत्रों में वन्य जीव-मानव संघर्ष की घटनाएं भी तेजी से बढ़ी हैं. इतना ही नहीं, अब इन बाघों को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए पहाड़ी इलाकों तक पलायन करना पड़ रहा है, जहां कभी उनकी मौजूदगी न के बराबर हुआ करती थी. कॉर्बेट टाइगर रिजर्व देश में बाघों के घनत्व के लिहाज से सबसे समृद्ध टाइगर रिजर्व माना जाता है. वर्ष 2022 में जारी अखिल भारतीय बाघ गणना के अनुसार उत्तराखंड में कुल 560 बाघ हैं, जिनमें से करीब 260 बाघ अकेले कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में मौजूद हैं. यह संख्या कॉर्बेट की धारण क्षमता से काफी अधिक मानी जा रही है. कॉर्बेट का कुल क्षेत्रफल 1288.34 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें कोर जोन 520.8 वर्ग किलोमीटर और बफर जोन 797.7 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है. इसके बावजूद बाघों को पर्याप्त विचरण क्षेत्र नहीं मिल पा रहा है. आंकड़ों के अनुसार कई बाघ महज 5 से 6 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में सिमटकर रहने को मजबूर हैं, जबकि आमतौर पर एक वयस्क नर बाघ को लगभग 15 से 50 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की आवश्यकता होती है. जब हम ‘शहीद’ शब्द सुनते हैं तो हमारी आंखों के सामने एक फौजी की तस्वीर उभरती है. जो देश की सीमा पर खड़ा है. बंदूक हाथ में और वर्दी तन पर, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे जंगलों की सीमाओं पर भी कुछ ऐसे सिपाही हैं, जो बिना बंदूक, बिना हेलमेट, बिना बुलेटप्रूफ जैकेट. हर दिन जान हथेली पर लेकर डटे रहते हैं? देश के सबसे पुराने राष्ट्रीय उद्यान कॉर्बेट टाइगर रिजर्व की. जहां पिछले चार दशकों में 35 से ज्यादा वनकर्मी जंगल और वन्यजीवों की रक्षा करते हुए शहीद हो चुके हैं. बाघों की दहाड़ और जंगल की खामोशी के बीच जो आवाज अक्सर अनसुनी रह जाती है, वो है वन रक्षकों के बलिदान की. साल 1982 से 2025 तक कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में 35 से ज्यादा वनकर्मी बाघ, हाथी और गुलदार जैसे जंगली जानवरों के हमले में मारे गए हैं. ये वो वीर हैं, जो हर दिन जंगलों की निगरानी करते हैं. न सिर्फ अवैध शिकारियों से बल्कि, प्राकृतिक खतरों से भी खेलते हैं. कॉर्बेट के धनगढ़ी इंटरप्रिटेशन सेंटर में इन वीरों की याद में एक विशेष स्मारक बनाया गया है. जहां हर पत्थर पर एक नाम, एक कहानी और एक शहादत लिखा है. जो ये बताती है कि जंगल सिर्फ पेड़ों से नहीं, उनकी रक्षा करने वालों के बलिदान से भी जिंदा हैं. सरकार ने शहीदों के परिवारों को विभाग में नौकरी जरूर दी है, लेकिन सम्मान और सुरक्षा की जो गारंटी होनी चाहिए, वो अभी भी अधूरी है. जंगल की रक्षा करना देश की आंतरिक सुरक्षा का ही हिस्सा है.जब कोई वनरक्षक शहीद होता है तो सिर्फ एक परिवार नहीं, पूरा जंगल अनाथ हो जाता है. शहीद सिर्फ बॉर्डर पर नहीं होते, हर वो जगह जहां कोई वर्दी में अपने फर्ज के लिए जान देता है, वो जमीन शहीदों की है. कॉर्बेट के इन गुमनाम वीरों को सलाम उनकी कुर्बानी को सिर्फ पत्थर पर नाम न बनने दें. बल्कि, हर दिल में इज्जत और हर नीति में सुरक्षा का स्थान दें. हमारे वनकर्मी दिन-रात जंगलों में गश्त करते हैं. टाइगर, हाथी, लेपर्ड जैसे खतरनाक जानवरों से सीधा सामना करते हैं. कई बार ये टकराव जानलेवा साबित होता है, लेकिन इनका जज्बा कम नहीं होता. ये हर मौसम, हर खतरे के बीच डटे रहते हैं.” ऐसा विकास भला किस काम का, जो अबोलों की एक आबाद दुनिया को उजाड़ कर दूसरी दुनिया बसाई जाये।. *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*