शंकर सिंह भाटिया
अपना घर अपना घर होता है, कोरोनाकाल ने हम सबको इसकी याद दिलाई है। काम के लिए घर छोड़कर जाने वालों को इस कोरोना संकटकाल में अपने घर की सबसे अधिक याद आ रही है। लोग किसी भी सूरत में अपने घर जाना चाहते हैं। अपने घर पहुंचने के लिए कई लोगों ने तो 500, 700, 1000 किमी तक का पैदल सफर किया है। जिन लोगों को लाकडाउन को फोलो करने के लिए रास्ते में रोक दिया गया था, वे अक्सर भीड़ के रूप में एकत्र हो जाते हैं। वह एक ही रट लगाए हुए हैं कि उन्हें घर भेज दिया जाए। यही वजह है कि केंद्र सरकार को बीच लाकडाउन में ऐसे लोगों को घर भेजने के लिए राज्यों को कहना पड़ा है।
मैं उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले का रहने वाला हूं। वहां से पलायन कर देहरादून आ गया हूं। लेकिन मैं अपने गांव से पूरी तरह कटा नहीं हूं। मैंने वहां पर अपने लिए कुछ ऐसी चीजें छोड़ी हैं, जिसके लिए मुझे अक्सर वहां जाना पड़ता है। इसलिए हमेशा अपनी मातृभूमि से जुड़ा हुआ हूं।
मैंने बहुत करीब से देखा है कि किस तरह हम लोग अपने घरों को बेरहमी के साथ छोड़कर पलायन कर जाते हैं। पहाड़ के गांवों में घर खंडहरों में तब्दील हो रहे हैं, गांव के गांव खाली हो रहे हैं। लेकिन कोरोना काल में अपने घरों को छोड़कर आने वालों को घर की याद आ रही है। लोग किसी तरह घर पहुंचना चाहते हैं।
जहां तक उत्तराखंड के दस पर्वतीय जिलों का सवाल है, राज्य के पलायन आयोग ने आंकड़े दिए हैं कि करीब 60 हजार लोग कोरोनाकाल में पहाड़ों की ओर लौटे हैं। इतना ही नहीं हजारों लोग रास्तों में अटके हुए हैं। वे किसी भी तरह घर पहुंचना चाहते हैं। पहाड़ों में अपने घर पहुंचने की इतनी बेसब्री इससे पहले कभी नहीं देखी गई। लेकिन कोरोना महामारी ने हम सभी को एहसास कराया है कि अपना घर अपना घर होता है। वही सबसे बड़ा शरणदाता है। मुझे अच्छी तरह याद है, जब हम पहाड़ों में अपनी गाय, बैल, बकरी आदि पालतू जानवरों को जंगल में चरने के लिए ले जाते हैं, तो शाम होते-होते उनके कदम अपने घरों की तरफ स्वतः ही बढ़ने लगते हैं। यदि जानवरों की यह हालत होती है तो हम तो मनुष्य हैं। ईश्वर ने हमको सबसे अधिक सोचने, विचारने वाला दिमाग दिया है। अपने निहित स्वार्थों के लिए हमने अपने घर के एहसास को बिसरा दिया था, लेकिन संकटकाल में घर की महत्ता बहुत अधिक बढ़ गई है।
यदि उत्तराखंड की बात करें तो पलायन आयोग के अनुसार दस पर्वतीय जिलों में 60 हजार लोग अपने घरों को लौटे हैं, हजारों लोग रास्तों में अटके हुए हैं। यदि रास्ता खुल जाए तो एक लाख से अधिक लोग अपने मूल घरों में लौट आएंगे। आयोग यह भी कहता है कि घर लौटने वालों में अधिकांश वे लोग हैं, जिनके परिवार का कोई न कोई पहाड़ में रहता है, वे लोग अक्सर साल में एक-दो बार पहाड़ आते रहे हैं। मतलब यह हुआ कि घर लौटने वालों में वे लोग नहीं हैं, जो अपने मूल घरों को पूरी तरह से छोड़कर परिवार सहित यहां से चले गए हैं। यह तय है कि ये जो लोग कोरोनाकल में घर लौटे हैं, अधिकांश लोग मैदानों के विभिन्न शहरों में होटलों, रेस्टोरेंटों आदि में काम कर रहे थे। लाकडाउन की वजह से ये सारे व्यवसाय बंद हो गए हैं, इसलिए उन्हें घर आना पड़ा है। जो लोग मैदानों में आकर संपन्न हो गए हैं, बड़े पदों पर काम कर रहे हैं, ऐसे लोगों का पुनः अपने मूल घरों की तरफ आना तो संभव नहीं दिखता, लेकिन बहुत सारे लोग जो पहाड़ से निकलकर भी संपन्न नहीं हो पाए हैं या फिर छोटी-मोटी नौकरी कर जीवनयापन कर रहे हैं, ऐसे लोगों के पहाड़ों की तरफ लौट आने की संभावनाएं बरकरार हैं।
इस संकटकाल ने यह तो बता ही दिया है कि बंजर और जनशून्य हो चुके गांवों को एक बार फिर से आबाद किया जा सकता है। संपन्न लोग न भी आएं तो बहुत सारे ऐसे लोग हैं, जिन्हें संकटकाल में अपनी मातृ की शरण में आने की विवशता हो सकती है। लाख कोशिशें करने के बाद भी उत्तराखंड की सरकारें ऐसा कर पाने में पूरी तरह से विफल साबित हो रही थीं। यह बात अलग है कि करीब साढ़े अड़तालीस लाख की आबादी वाले पहाड़ में एक लाख लोगों का आना बहुत मायने नहीं रखता है, लेकिन यह दिशा दिखाता है कि यदि इस संकटकाल में इन लोगों के लिए पहाड़ में रोजगार सृजित कर लिया गया तो यह उन गांवों तक पहुंचने की दिशा होगी, जो बंजर हो गए हैं। हमें आशा करनी चाहिए कि अपना घर अपना घर होता है, उसे बंजर नहीं छोड़ा जाता, यदि हमने उसे बंजर छोड़ दिया है तो संकटकाल ऐसे हालात पैदा करेगा कि उन्हें आबाद करना हमारी विवशता हो जाएगी।