डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
हिन्दी साहित्य के विकास में देवभूमि उत्तराखंड का खासा योगदान है। तमाम स्थानीय बोलियों के बीच देवभूमि ने राष्ट्र भाषा के विकास से लेकर परिष्करण में भूमिका निभाई। अनमोल संत साहित्य को आत्मसात् कर निर्गुण साहित्य की रचना तथा निर्गुण सन्तों के आध्यात्मिक रहस्यवाद की सृजना करने वाले हिन्दी के प्रथम डॉण् पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल से पूर्व रहस्यवादी कवियों का कदाचित कभी विधिण्सम्मत अध्ययन नहीं हुआ। डॉण् बड़थ्वाल के अनुपम शोध प्रयत्नों से निर्गुण स्कूल का साहित्य व दर्शन गंगा सदृश्य प्रवाहमान बना। हिन्दी साहित्य को नया आयाम और सन्त साहित्य राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय पटल पर विख्यात हुआ।
13 दिसम्बर 1902 को लैंसडौन गढ़वाल के निकट कौड़िया पट्टी के पाली ग्राम में पंडित गौरी दत्त बड़थ्वाल के घर जन्में पीताम्बर दत्त को साहित्यिक अभिरुचियां विरासत में मिलीं। क्योंकि पिता गौरीदत्त संस्कृत व ज्योतिष के अच्छे विद्वान थे। इन्ही विषयों में बालक पीताम्बर दत्त की आरम्भिक शिक्षाण्दीक्षा का घर पर प्रबन्ध किया गया। अपने गांव में ही शिक्षा समाप्त कर उन्हें राजकीय हाईण्स्कूल श्रीनगर गढ़वाल में दाखिल किया गया। वहां कुछ समय व्यतीत करने के बाद उन्हें कालीचरण हाई स्कूल लखनऊ भेज दिया गया। इस विद्यालय से वर्ष 1920 में प्रथम श्रेणी में हाई स्कूल परीक्षा उतीर्ण करने के पश्चात तरुण पीताम्बर डीण्एण्वीण् कॉलेज कानपूर में प्रविष्ट हुए। सन् 1922 में उच्चण्शिक्षा हेतु हिन्दू विश्वविद्यालय काशी में दाखिले के साथ ही उन्हें प्रतिकूल पारिवारिक स्थितियों से दो चार होना पड़ा। पिता के देहवासन के बाद उनकी शिक्षाण्दीक्षा का प्रमुख दायित्व उनके ताऊ मनीराम और मामा जी हरिकृष्ण थपलियाल पर आ पड़ी। इधर ताऊ की आकस्मिक मृत्यु और उधर स्वयं अस्वस्थ हो जाने के कारण उन्हें अपनी शिक्षा का क्रम दो वर्ष के लिए स्थगित रखना पड़ा। सन् 1926 में उन्होंने बीण्एड की परीक्षा और 1928 में एमए की परीक्षा काशी हिन्द विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।
छायावाद पर उनके विस्तृत व विद्धता पूर्ण से कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष श्याम सुन्दर दास प्रभावित हुए बिना न रह सके। उन्होंने बड़थ्वाल जी को अपने विभाग में शोध कार्य हेतू नियुक्त कर लिया। सन् 1929 में बड़थ्वाल जी एलण्एलण्बी की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए और अगले ही वर्ष वे इसी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रवक्ता नियुक्त हुए। यही वह अवसर था जब उन्हें हिन्दी साहित्य के गम्भीर अध्ययन व समीक्षा का मौका मिला। वर्ष 1939 में जब बड़थ्वाल जी ने हिन्दी काव्य की निर्गुण धारा पर अंग्रेजी भाषा में अपना शोधण्निबन्ध दि निर्गुण स्कूल आफ हिन्दी पोलट्री प्रस्तुत किया तो कॉलेज के तत्कालीन कुलपति और प्रख्यात शिक्षा शास्त्री आचार्य धुर्व को दांतों तले अंगुली दबानी पड़ी। इस शोधण्ग्रन्थ पर डीण्लिट की उपाधि प्राप्त कर डॉण् बड़थ्वाल देश के तत्कालीन हिन्दी साहित्यान्वेषियों की प्रथम पंक्ति में शामिल हो गए।
उन्हें इस कार्य के लिये व्यापक सराहना मिली। बाबू श्याम सुन्दर ने ग्रन्थ की उपयोगिता पर कहा वर्तमान रचना हिन्दी अध्ययन के क्षेत्र में एक बड़ी कमी को पूरा करती है। प्रयाग विश्वविद्यालय के दर्शन विभागाध्यक्ष प्रोण् रानाडे ने टिप्पणी कीए श्री बड़थ्वाल का निबन्ध जहां तक मैं जनता हूं हिन्दी रहस्यवाद के प्रतिपादन का सर्वप्रथम गम्भीर प्रयत्न है। केवल हिन्दी साहित्य की विवेचना के लिए ही नहींए अपितु रहस्यवाद के सार्वजनिक दर्शन शास्त्र के लिये भी उनकी रचना एक वास्तविक देन है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के उर्दू हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डॉण् टीण् ग्राहम वैली ने लिखा यह एक सुन्दर रचना है। जिसके लिये बहुत शोध की आवश्यकता हुई है और जिससे ज्ञान की वास्तविक वृद्धी हुई है।
जब हम सोचते हैं कि लेखक एक विदेशी भाषा का प्रयोग कर रहा है तो उनकी शैली की भी अत्यधिक प्रसंशा करनी पड़ती है। इस विषय पर कहीं भी एक ही पुस्तक में इतनी अधिक सामग्री नहीं पाई जा सकती। साहित्यक प्रतिभा के अंकुर तो बड़थ्वाल जी में बाल्यकाल से फूटने लगे थे। श्रीनगर गढ़वाल में अध्ययन के दौरान वे मनोरंजनी नामक हस्तलिखित पत्रिका निकालते थे। डीण्एण्वीण् कॉलेज कानपूर में हिलमैन पत्रिका के सम्पादन से भी उनकी मेघा पुष्पित पल्लवित हुई। सन् 1920.24 के बीच वे अम्बर उपनाम से कविताएं लिखते रहे। उनकी रचनाएं तब के गढ़वाली सरस्वतीए वीणाए जीवन साहित्यए कल्याण विशाल भारतए माधुरी प्रताप और हिन्दोस्तानी जैसे प्रमुख पत्रों में प्रकाशित होती रही। पुरुषार्थ पत्र सम्पादक के आलावा डॉण् बड़थ्वाल ने प्राणायामण्विज्ञान और कला ध्यान से आत्मा चिकित्सा नामक दो ग्रन्थों की रचना भी उक्त अवधि के दौरान की। उक्त दो रचनाओं पर उन्हें बूंदी और ग्वालियर नरेशों द्वारा पुरस्कृत किया गया था।
सन् 1933 में डीण् लिट उपाधि पाने के बाद वे काशी नगरी प्रचारिनी सभा में अन्वेषण विभाग के अवैतनिक संचालक नियुक्त हुए। फलतः उनकी अन्वेषणात्मक अभिरुची परवान चढ़ती रही। अनेक साहित्यकारों का सान्निध्य मिला और प्राचीन साहित्य की खोज में अनेक स्थलों को देखने का सुअवसर भी उन्हें हासिल हुआ। उनकी इन साहित्यक यात्राओं के फलस्वरुप अनेक दुर्लभ हस्तलिखित ग्रन्थों का एक वृहद संकलन नागरी प्रचारिणी सभा को उपलब्ध हुआ। कबीर की साखी और सर्वागीए हरिदास जी की साखीए हरिमक प्रकाशए सेवादासए गढ़वाल में गोरखा शासन रैदास जी की साखीए नेपाली साहित्य का इतिहासए गढ़वाल के पवाडे व इतिहास से सम्बन्धित अनेक पुस्तके शामिल हैं। डॉण् बड़थ्वाल का साहित्यिक जीवन जितना उज्जवल और वैविध्यपूर्ण थाए इसके विपरीत उनका पारिवारिक जीवन अत्यन्त विषम संघर्षपूर्ण और अग्नि परीक्षा सिद्ध हुआ। काशी विश्वविद्यालय में अध्यापन के दौरान अन्य अध्यापकों के विपरीत अल्प वेतनए बड़ी पारिवारिक जिम्मेदारियां और स्वयं अपना कमजोर स्वास्थय आदि कारणों ने उनकी रचना को क्षीण करने और उनका मनोबल तोड़ने के पुरजोर प्रयास कियेए किन्तु उनकी अदम्य साहित्य साधना उन्हें उतरोत्तर अग्रणी बनाए रखने में सहायक सिद्ध हुई। अन्त में 24 जुलाईए 1944 ईण् को अल्पायू में ही अपने पैतृक ग्राम पाली में उन्होंने अन्तिम सांस ली। जीवन पर्यंत साहित्य को समर्पित डॉण् बड़थ्वाल के निधन पर डॉण् हजारी प्रसाद द्विवेदीए डॉण् बनारसी दास चतुर्वेदीए डॉण् राम कुमार वर्मा प्रसिद्ध विद्वानों ने भाव भीनी श्रद्धांजलि अर्पित की थी।डॉण् बड़थ्वाल की विरासत में ज्ञान के अथाह सागर के रुप में अनेक दुलर्भ राज्य आज व्यवस्थित होने को प्रतीक्षारत हैंए जिन्हें सहेजने और भावीण्पीढ़ी के हाथों सुरक्षित सौंपने के लिये साहित्य प्रेमियों को आगे आने की आवश्यकता हैए डाण् बड़थ्वाल का मानना था कि भाषा बोलचाल का माध्यम बनने पर ही समृद्ध होती है। उनका स्पष्ट कहना था कि भाषा भले ही फलती फूलती साहित्य में हो अंकुरित आम बोलचाल में उपयोग होने से ही होती है। उनके साहित्य में ऐसा झलकता भी है। उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिये उनके पैतृक ग्राम पाली में शोधण्संस्थान की स्थापना एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।