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बेहतर उच्च शिक्षा की राह तैयार!

18/07/25
in उत्तराखंड, देहरादून
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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उच्च शिक्षा की दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित और व्यापक रूप से संदर्भित रैंकिंग्स में से एक मानी
जाती है। इसके अंतर्गत शिक्षा संस्थानों का मूल्यांकन नौ संकेतकों के आधार पर किया जाता है,
जिनमें शैक्षणिक प्रतिष्ठा, नियोक्ता प्रतिष्ठा, फैकल्टी-छात्र अनुपात, छात्र अनुपात, रोजगार
परिणाम, अंतरराष्ट्रीय शोध नेटवर्क जैसे मानक शामिल हैं। उच्च शिक्षा में हुए हालिया सुधारों के
पीछे कई महत्वपूर्ण कदम रहे हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की संस्तुतियों का व्यवस्थित
क्रियान्वयन, शोध, अनुसंधान और नवाचार को निरंतर प्रोत्साहन तथा वैश्विक साझेदारियों
और प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने की दिशा में गंभीर पहल की गई है। साथ ही हर स्तर पर
तकनीकी दक्षता और व्यावसायिक कौशल को बढ़ावा दिया गया है। शिक्षा और उद्योग जगत के
बीच की खाई पाटने, प्रवेश, फैकल्टी और विषय चयन की प्रक्रिया को अधिक लचीला बनाने,
विश्वविद्यालय परिसरों में विविधता और समावेशन की भावना को प्रोत्साहित करने और
रोजगारोन्मुखी शिक्षा को सुदृढ़ करने जैसे कई निर्णायक कदम उठाए गए हैं।शिक्षा के मोर्चे पर
हो रहे व्यापक प्रयासों का ही परिणाम है कि आज भारत के आठ संस्थान प्रति फैकल्टी उद्धरण
श्रेणी में विश्व के शीर्ष 100 संस्थानों में शामिल हो चुके हैं। इस मानदंड पर भारत ने अमेरिका
और ब्रिटेन जैसे देशों को भी पीछे छोड़ दिया है। इसी प्रकार नियोक्ता प्रतिष्ठा के मापदंड पर
हमारे पांच विश्वविद्यालय वैश्विक शीर्ष 100 में स्थान पाने में सफल हुए हैं, जो उद्योग जगत में
भारतीय स्नातकों के प्रति बढ़ते भरोसे का संकेतहै।शैक्षणिक प्रतिष्ठा के क्षेत्र में भी आइआइटी,
दिल्ली, बंबई और मद्रास जैसे संस्थानों ने अपनी फैकल्टी और वैश्विक शैक्षणिक साझेदारियों के
चलते उच्च रेटिंग अर्जित की है। हालांकि इसी वर्ष जोड़े गए अंतरराष्ट्रीय छात्र विविधता जैसे
संकेतकों में भारतीय विश्वविद्यालयों-संस्थानों को अपेक्षित रैंक नहीं मिली, जिसका समग्र रैंकिंग
पर भी कुछ प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। स्पष्ट है कि उच्च शिक्षा पर और अधिक ध्यान देना होगा
और इसकी कोशिश करनी होगी कि अन्य शिक्षा संस्थानों और विशेष रूप से राज्य
विश्वविद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता सुधरे।
क्यूएस या अन्य किसी भी वैश्विक रेटिंग एजेंसी को भी यह समझना होगा कि देश विशेष की
परिस्थितियां भिन्न-भिन्न होती हैं। भारत जैसे देश की तुलना पश्चिमी देशों से नहीं हो सकती।
भारत में इतनी विविधता है कि हमारे विश्वविद्यालय एवं अन्य शिक्षा संस्थान विविधता के
उत्सव-स्थल हैं। निःसंदेह यह उपलब्धि प्रेरणास्पद है, परंतु हमें यह भी स्वीकारना होगा कि यह
सफलता अभी मुख्यतः आइआइटी, कतिपय केंद्रीय विश्वविद्यालयों और चुनिंदा संस्थानों तक ही
सीमित है। देश के अधिकांश विश्वविद्यालय अभी भी सीमित फंडिंग, कमतर शोध उत्पादन,
सुयोग्य अध्यापकों की कमी, अधुनातन प्रयोगशालाओं की अनुपलब्धता, नवाचार के प्रति
उदासीनता, अल्प अंतरराष्ट्रीय सहयोग एवं साझेदारी जैसी चुनौतियों से जूझ रहे हैं। वस्तुतः

क्यूएस या किसी भी रैंकिंग्स को हमें लक्ष्य नहीं, दर्पण की तरह देखना चाहिए, जो हमें
आत्मनिरीक्षण का भी संदेश देता है। वास्तविक उत्कृष्टता तो रैंकिंग्स से परे जाकर भारत के स्व
को विस्मृत किए बिना शिक्षा का वैश्विक प्रतिमान गढ़ने एवं माडल खड़ा करने में है।भारत के
लिए प्रस्तुत नई शिक्षा नीति देश की ऐसी महत्वाकांक्षी पहल है जो शिक्षा के कलेवर को
आमूलचूल बदलने के लिए प्रतिश्रुत दिख रही है। इस तरह की जरूरत बहुत दिनों से अनुभव की
जा रही थी परंतु जिस तरह से वर्तमान सरकार ने इसकी योजना बनाने में गम्भीरता दिखाई
और इसके कार्यान्वयन के प्रति रुचि व्यक्त की है, यह उसकी प्रतिबद्धता और संकल्प की दृढ़ता
को व्यक्त करती है। सरकार द्वारा यह संकेत दिया जा रहा है कि आत्मनिर्भर, उद्यमी और
कुशलतायुक्त युवा शक्ति भारत की स्थानीय और वैश्विक समस्याओं के समाधान में सहायक हो
सकेगी।ऐसा नहीं है कि संरचना, विषयवस्तु और शिक्षा पद्धति को लेकर उच्च शिक्षा का जो
ढांचा अबतक चलता चला आ रहा था, उसे लेकर कोई असंतोष नहीं था या उसकी आलोचना
नहीं हुई थी परंतु सरकार की ओर से छिटपुट बदलाव के अलावा कोई कारगर उपाय नहीं हुआ।
समस्याएं बढ़ती गईं या फिर उनके रूप बदलते गए। धीरे-धीरे अधिकांश विश्वविद्यालयों और
महाविद्यालयों में प्रवेश, परीक्षा और डिग्री देने की यांत्रिक प्रक्रिया ही मुख्य कार्य बनता गया।
शिक्षा की गुणवत्ता प्रश्नांकित होती गई और डिग्रीधारी बेरोजगारों की संख्या बढ़ती गई जो
अपनी अकुशलता के कारण समाज पर भार बनते गए। यह भारतीय लोकजीवन का दुखदायी
पक्ष है कि शिक्षा अपनी अपेक्षाओं की दृष्टि से कमजोर साबित हुई। नालंदा और तक्षशिला जैसे
उन्नत विश्वविद्यालयों के अतीत वाले भारत के वर्तमान विश्वविद्यालय दु:स्वप्न सरीखे हो रहे हैं।
इनकी समस्याओं के समाधान के लिये नई शिक्षा नीति में बहु आयामी प्रयास का वादा किया
गया है।नई शिक्षा नीति में विद्यार्थियों की अभिरुचि, योग्यता और तत्परता को देखते हुए
अध्ययन विषय के चयन और शिक्षण-अवधि की दृष्टि से अनेक विकल्प दिये जाने का प्रावधान
किया गया है। साथ ही सीखने की प्रक्रिया पर विशेष बल दिया गया है ताकि अध्ययन का कार्य
विद्यार्थियों के निजी अनुभव का हिस्सा बन सके। अबतक अध्यापक पुस्तक और परीक्षा की
वैतरणी के बीच सेतु का काम करते थे जिनकी सहायता से विद्यार्थी पार उतरता था। साथ ही
पुस्तक और परीक्षा के बीच ऐकिक सम्बन्ध बना रहता था। पिछले कुछ वर्षों के प्रश्नपत्र हल
करना सफलता की गारंटी होता था। रटन की प्रचलित परम्परा से अलग हटकर अनुभव, चिंतन
और सृजन को महत्व देना, विद्यार्थियों को सशक्त और योग्य बनाने की दिशा में बड़ा कदम
होगा।प्रस्तावित व्यवस्था में व्यावसायिक, मानविकी, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, कला और समाज
विज्ञान आदि विषयों में से चुनने की छूट क्रांतिकारी पहल है। इस तरह का लचीलापन विद्यार्थी
में जिज्ञासा की भावना, प्रयोगधर्मिता, सृजनशीलता को बढ़ावा देने के साथ-साथ छात्र संख्या के
दबाव को कम करने, विद्यार्थियों की रुचि की विविधता को सम्मान देने और शिक्षा प्रक्रिया की
अतिरिक्त यांत्रिकता से उबरने में निश्चय ही सहायक सिद्ध होगी। इसके लिए संस्था के स्तर पर
बहु अनुशासनात्मकता को प्रश्रय देना होगा। साथ ही पाठ्यक्रमों को समुचित आकार देना होगा
ताकि उनमें संरचनात्मक दृष्टि से पूर्णता और कौशलगत उपादेयता का समुचित सन्निवेश हो

सके।उच्च शिक्षा की ओर अग्रसर होने वाले छात्रों के लिए चार वर्ष का स्नातक पाठ्यक्रम निश्चय
ही उपयुक्त होगा। कहना न होगा कि इसके लिए पाठ्यक्रम को अद्यतन करने के साथ अध्यापकों
के लिए प्रशिक्षण भी आवश्यक होगा, जिसमें शिक्षण विधि के साथ मूल्यांकन व्यवस्था विकसित
की जाय। नई व्यवस्था की प्रामाणिकता और उपयोगिता की स्वीकार्यता के लिए प्राध्यापकों के
लिए गहन अभिविन्यास (ओरियेंटेशन) की आवश्यकता होगी। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अध्यापक
प्रशिक्षण का प्रश्न पेचीदा है क्योंकि इसमें शिक्षण विधि, शिक्षण की टेक्नोलॉजी के साथ विषयगत
अनुसंधान में भी अद्यतन होते रहने की जरूरत है। इनके बीच सामंजस्य और संतुलन बिठाना
बड़ा आवश्यक है और गुणवत्ता बनाए रखने के लिए इसे अनिवार्यत: सतत होते रहना चाहिए।
नई शिक्षा नीति कई तरह की उच्च शिक्षा संस्थाओं की संकल्पना के साथ प्रत्येक जिले तक उनकी
स्थापना की बात करती है। यह सब पर्याप्त आर्थिक संसाधनों की अपेक्षा करता है। यह शुभ
लक्षण है कि इसके लिए सरकार जीडीपी का छह प्रतिशत खर्च करने के लिए तत्पर है।वस्तुत:
उच्च शिक्षा में सुधार बहुत दिनों से प्रतीक्षित है। कहां तो सा विद्या या विमुक्तये कहकर शिक्षा
को मनुष्य की मुक्ति का प्रमुख साधन स्वीकार किया गया था और कहां आज शिक्षा को अंदर से
जर्जर व्यवस्था में कैद पा रहे हैं। आज की स्थिति बहुत बदल चुकी है और मात्र खानापूर्ति हो पा
रही है। यदि निकट से देखा जाय तो प्रचलित व्यवस्था शनै:-शनै: ज्ञान-निर्माण, कुशलता-
प्रशिक्षण, सामाजिक दायित्व-बोध के विकास और मानवीय मूल्यों को आत्मसात करने की दृष्टि
से खोखली होती जा रही है।यद्यपि हर बात के लिए शिक्षा पर दोष मढ़ना ठीक नहीं और न
शिक्षा को हर रोग की दवा (राम बाण!) मानना उचित होगा। परंतु इस बात के पर्याप्त प्रत्यक्ष
और परोक्ष संकेत हैं कि शिक्षित वर्ग अपनी भूमिका में खरा नहीं उतर पाया। इसकी परिणति
देश के गिरते सामाजिक, नैतिक, राजनैतिक और आर्थिक स्वास्थ्य में देखी जा सकती है। आशा
और अपेक्षा तो यह थी कि उच्च शिक्षा के परिसरों में सृजनशीलता, मौलिकता, उत्कृष्टता,
प्रासंगिकता, सांस्कृतिक चैतन्य और मूल्यवत्ता का जीवंत रूप मिलेगा और स्वतंत्र चिंतन तथा
स्वायत्तता की प्रतिष्ठा होगी, पर ऐसा हो न सका। स्वतंत्र भारत में शिक्षा के लोकतंत्रीकरण के
तहत उच्च शिक्षा की संस्थाओं का बड़ी तेजी से और अनियंत्रित सा प्रसार हुआ। हालांकि भारत
की कुल जनसंख्या की दृष्टि से वह अभी भी अपर्याप्त कहा जायगा।शिक्षा के स्तर का जो क्षरण
शुरू हुआ तो सारे मानक टूटने लगे। उच्च शिक्षा की संस्थाओं को अंग्रेजों के जमाने में जो
स्वायत्तता प्राप्त थी वह स्वाधीन भारत में लुप्त होती गई। सामाजिक-राजनैतिक समीकरणों के
भंवरजाल में फंसकर उच्च शिक्षा का आत्म-नियंत्रण जाता रहा और अब वह लगभग पूरी तरह
सरकारी नियंत्रण में है जो अंतत: राजनैतिक प्रकृति का होता है। साथ ही शिक्षा संस्थाओं के
बढ़ते निजीकरण से कई नए आर्थिक और नैतिक आयाम भी जुड़ गए हैं जो गुणवत्ता और साख
के सवाल खड़े करते रहे हैं।प्रसन्नता की बात है कि नई शिक्षा नीति में संस्थाओं को अधिक
स्वायत्तता मुहैया करने का प्रस्ताव किया गया है परंतु इसकी प्रकृति और प्रक्रिया को लेकर बहुत
स्पष्टता नहीं है। संस्थाओं पर भरोसा करते हुए इसपर मुक्त मन से विचार की अपेक्षा है ताकि
शिक्षा जगत में फैले संशय दूर हो सकें।भारत का उच्च शिक्षा तंत्र विश्व का तीसरा सबसे बडा उच्च

शिक्षा तंत्र है। सभी को उच्च शिक्षा के समान अवसर सुलभ कराने की नीति के अन्तर्गत सम्पूर्ण
देश में महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। विगत 70 वर्षों
में आजादी के बाद देश के विश्वविद्यालयों की संख्या में 40 गुना महाविद्यालयों में 80 गुना
विद्यार्थियों की संख्या में 80 गुना और शिक्षकों की संख्या में 30 गुना वृद्धि हुई है। विकसित
देशों में कम संस्थानों में बेहतर सुविधाएं मुहैया कराने पर ध्यान दिया जाता है और एक ही
संस्थान में हजारों विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते हैं, जबकि भारत में जरूरी बुनियादी सुविधाओं के
बिना भी हजारों कॉलेज चल रहे हैं, जहां केवल कुछ हजार विद्यार्थियों को पढ़ाने की ही
व्यवस्था है। देश में इंजीनियरिंग और प्रबंधन कॉलेज भले ही बढ़ रहे हो, उनकी न तो गुणवत्ता
बढ़ रही है और न ही इंडस्ट्री की बदलती जरूरतों के मुताबिक उनका पाठ्यक्रम अपग्रेड हो रहा
है। निजी महाविद्यालय कागज पर खोल तो दिए गए हैं लेकिन अनियमितताएं व्यापक है तथा
इनमें सुविधाओं का अभाव है। यह सुविधाएं भवन, खेल के मैदान, पुस्तकालय, प्रयोगशालाओं,
इंटरनेट शिक्षकों की योग्यता एवं संख्या से संबंधित है। हालत यह है कि मोटी फीस देकर
एमबीए या इंजीनियरिंग डिग्री हासिल कर रहे लाखों युवा हर साल बेरोजगारों की कतार में
शामिल हो रहे हैं, या जीविकोपार्जन की मजबूरी में अत्यंत साधारण नौकरी ज्वाइन कर अर्ध
बेरोजगारी के शिकार हो रहे हैं। वर्तमान में बहुत से ग्रेजुएट्स के पास न तो अपने विषय की
जानकारी है, न कौशल है और न ही आत्मविश्वास है। ऐसे में यहां स्किल इंडिया कार्यक्रम
मददगार हो सकता है, जिसके तहत जिस विद्यार्थी को किसी खास कौशल में रुचि हो, तो वह
उसे आगे बढ़ा सके और आत्मनिर्भर हो सके। भारत की कोई भी शिक्षण संस्था आज दुनिया की
शीर्ष 200 उच्च शिक्षा संस्थानों की सूची में नहीं है। जबकि पूर्वी एशिया के छोटे-छोटे देशों की
कई शिक्षण संस्थाएं शीर्ष 50 की सूची में शामिल हैं। देश में लगभग चालीस हजार
महाविद्यालय और आठ सौ विश्वविद्यालय हैं। सरकार वर्ष 2025 तक उच्च शिक्षा में हिस्सेदारी
को 24.5 से बढ़ाकर 30 प्रतिशत तक ले जाना चाहती है। हालांकि तब भी यह कम होगा,
क्योंकि अमेरिका और ब्रिटेन में यह प्रतिशत 80 से ऊपर है। चीन में भी उच्च शिक्षा का औसत
35 प्रतिशत से अधिक है। जहां तक आर्थिक लाभ और सुविधा की बात है, भारत की स्थिति कई
यूरोपीय देशों से बेहतर है। फिर भी उच्च शिक्षा का ढांचा मजूबत क्यों नहीं बन पा रहा है?
डिजिटल होने और दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना संजो रहे भारत में उच्च
तकनीकी और प्रबंधन शिक्षा का ढांचा चरमराता दिख रहा है। देश और समाज चाहता है कि
उच्च शिक्षा नीतियों में जल्द बुनियादी बदलाव कर इन्हें अमलीजामा पहनाया जाए ताकि देश के
शैक्षणिक विकास का इतिहास गौरवशाली बना रहे।उच्च शिक्षा का अंतर्राष्ट्रीयकरण न केवल
भारतीय संस्थानों की गुणवत्ता को बढ़ाएगा, बल्कि विदेशी निवेश और प्रतिभा को आकर्षित
करके देश के आर्थिक विकास में भी योगदान देगा।छात्रों के लिए, इसका अर्थ है विश्व स्तर पर
मान्यता प्राप्त डिग्रियों तक पहुँच, विविध शिक्षण वातावरण और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में करियर
के अवसर। भारत के लिए, यह ज्ञान-संचालित अर्थव्यवस्था और शिक्षा के लिए एक पसंदीदा
गंतव्य बनने की दिशा में एक कदम है।

उच्च शिक्षा का अंतर्राष्ट्रीयकरण न केवल भारतीय संस्थानों की गुणवत्ता को बढ़ाएगा, बल्कि
विदेशी निवेश और प्रतिभा को आकर्षित करके देश के आर्थिक विकास में भी योगदान
देगा।छात्रों के लिए, इसका अर्थ है विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त डिग्रियों तक पहुँच, विविध
शिक्षण वातावरण और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में करियर के अवसर। भारत के लिए, यह ज्ञान-
संचालित अर्थव्यवस्था और शिक्षा के लिए एक पसंदीदा गंतव्य बनने की दिशा में एक कदम है।
*लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*

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