डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
वर्ष 2000 में उत्तराखंड के गठन के बाद राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति में सुधार की उम्मीद की जा रही थी. परंतु राज्य के बनने के 24वर्ष बाद भी राज्य के पर्वतीय भाग को प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हो सकी है. 11.09 मिलियन जनसंख्या वाले राज्य के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी 773 अस्पतालों के जिम्मे है. मैदानी क्षेत्रों मेंआधुनिक उपचार की सुविधा तो उपलब्ध हो जाती है लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में सामान्य खून की जाॅच, एक्सरे, अल्ट्रा साउंड जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए 5-6 घंटे का सफर और मोटी धनराशि के साथ करना पड़ता है. पर्वतीय जिलों के ज्यादातर सरकारी अस्पताल अपनी लचर स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए जाने जाते हैं. कहीं पर्याप्त मानव संसाधन नहीं हैं तो कही आधुनिक उपकरणों का अभाव है. अल्मोड़ा स्थित लमगड़ा ब्लॉक के गुना गांव की बुज़ुर्ग हंसी देवी कहती हैं कि ‘राज्य में स्वास्थ्य सेवाएं ईश्वर के भरोसे चल रही है. सामान्य से इलाज व सम्बन्धित दवाओं के लिए भी गांव से 20 किमी दूर जाना पड़ता है और गंभीर हालत होने पर गांव से110 किलोमीटर दूर हल्द्वानी की ओर रूख करना पड़ता है.स्वास्थ्य केन्द्रों की हालत तो ऐसी है जहां बडे इलाज तो दूर की बात है, यदि किसी को चोट लगने से शरीर पर घाव हो जाए या कट जाये तो टांके तक किये जाने की सुविधा नहीं है. पर्वतीय क्षेत्रों में आधुनिक मशीनों के अलावा विशेषज्ञों व स्वास्थ्य कर्मचारियों की भी कमी है. कहीं डॉक्टर हैं तो पैरा मेडिकल स्टाफ नहीं, कहीं स्टाफ हैं तो डॉक्टर के पद खाली हैं, कहीं दोनों हैं तो आधुनिक उपकरण नहीं है. सामान्य बीमारियों के इलाज के लिए भी दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियों में अस्पताल तक पहुंचना किसी चुनौती से कम नहीं है. पर्वतीय क्षेत्रों में 108 वाहन की सुविधा दी गयी है. मगर इनका समय पर मिलना या निर्धारित स्थान पर पहुंचना भी किसी टास्क से कम नहीं है. अधिकांश गांव मुख्य सड़क से काफी दूरी पर होते हैं तो कही रोड़ों की सुचारु व्यवस्था नहीं है. ऐसा प्रतीत होता है मानों पर्वतीय समुदाय के लिए विकास के हर रास्ते बंद हैं. पर्वतीय क्षेत्रों में मोबाइल हेल्थ यूनिट स्वास्थ्य सेवाओं में सहायक सिद्ध हुई है. जिसमें आरोही व हंस फाउंडेशन कई क्षेत्रों में सचल चिकित्सा वाहनों के द्वारा ग्रामवासियों का इलाज घर के नजदीक करने में सहायता कर रही है जो पर्वतीय क्षेत्रों के लिए अच्छा माध्यम है, पर संस्थाओं की भी एक सीमा होतीहै.क्षेत्र की लचर स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर इसी ब्लॉक के कपकोट गांव के युवा बताते हैं कि उनको खांसी से संबंधित शिकायत थी. जागरूकता व संसाधनों की कमी के चलते समय से पता न चल पाने के कारण व कठिनाई अधिक होने पर उनके द्वारा हल्द्वानी की ओर रुख किया गया. जहां जांच के उपरान्त उन्हें पता चला कि उन्हें कैंसर की बीमारी है. वह बताते हैं कि यदि ग्राम स्तर पर संसाधन होते तो समय से बीमारी का पता लगने पर समय पर इलाज करवाये जाने से उनकी सेहत इतनी नहीं बिगड़ती और शहर में डॉक्टरों के चक्कर नही लगाने पडते. पर्वतीय क्षेत्र के अधिकांश लोग गरीबी रेखा के नीचे आते हैं. ऐसे लोगों के स्वास्थ्य का जिम्मा सरकारी अस्पतालों के भरोसे होता है. पर वहां यह एक कठपुतली के तरह होते है. जिनकी डोर डॉक्टरों व स्टाफ के हाथों में होती है.आलम ऐसा है कि एक अस्पताल के डाॅक्टरों द्वारा करवाये गयी जांचों को दूसरेअस्पताल के डाॅक्टर कूड़ा समझकर किनारे कर नये ढ़ग से अपनी जांचें करवाते हैं और यह आलम सभी अस्पतालों में होता है. गरीब जो बड़ी मुश्किल से इलाज के लिए पैसा जुटा पाता है वह इतना अधिक व्यय कैसे सहन कर सकता है? इस ओर सरकार द्वारा कुछ नियमों को बनाया जाना चाहिए जिससे व्यक्ति अन्यत्र व्यय की मार न झेले. नैनीताल स्थित धारी ब्लॉक के सुन्दरखाल गांव की ग्राम प्रधान रेखा बिष्ट का कहना है ‘पर्वतीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं दम तोड़ रही हैं. स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध न होने की दशा में ग्रामवासियों को सामान्य जांचों के लिए भी मैदानी क्षेत्रों की ओर रूख करना पड़ता है. जहां समय व अतिरिक्त व्यय होता है. संस्थाओं के माध्यम से ग्रामों में शिविरों का आयोजन किया जाता है जो सराहनीय है. इससे घर के नजदीक इलाज मिल रहा है. सरकार द्वारा भी ग्रामीण क्षेत्रों की ओर त्वरित कदम उठाए जाने चाहिए. आधुनिक उपकरणों व नवीन तकनीकों को स्वास्थ्य केन्द्रों में चालू किया जाना चाहिए. जिससे समय पर मरीजों को इलाज हो सके व धनराशि के साथ समय की बचत भी होगी. ऐसा नहीं है कि क्षेत्र में अच्छे डॉक्टरों की कमी नहीं है. बस प्रबंधन के साथ सामुदायिक भागीदारी की भावना के साथ कार्य किये जाने की देरी है.’ओखलकाण्डा विकास खण्ड के खन्स्यू गांव स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के युवा डाॅ बताते हैं कि सभी स्थानों पर डॉक्टर हों, ऐसा संभव नहीं है. मगर नर्स और पैरा मेडिकल स्टाफ की भर्ती राज्य स्तर पर न करके जिला या ब्लॉक स्तर पर करवाई जानी चाहिए. जिसका राज्य को दोहरा लाभ मिल सकेगा. एक तो स्थानीय स्तर पर रोजगार मिलने से पलायन रुकेगा साथ ही स्थानीय व्यक्ति को नियुक्ति मिलेगी तो वह ट्रांसफर की मांग भी नहीं करेगा. जो अक्सर डाॅक्टर या स्टाफ की प्राथमिकता होती है. साथ ही सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में मूलभूत सुविधाओं जाँच हेतु उपकरण लैब व तकनीकी कार्यकर्ता की कमी को पूरा करने का प्रयास किया जाना चाहिए भले ही शुरुआती तौर पर संख्या कम हो पर हो तो सही. जिससे ग्राम स्तर पर इलाज संभव हो सके. उत्तराखंड में स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर हमेशा से सवाल खड़े होते रहे हैं. आलम यह है कि कुमाऊं और गढ़वाल रीजन के पर्वतीय क्षेत्रों में कहीं पर कोई दुर्घटना या व्यक्ति बीमार होता है तो उसे इलाज के लिए कई किमी का सफर पैदल तय कर हॉस्पिटल तक पहुंचाना पड़ता है. जिसकी तस्वीरें समय-समय पर देखने को मिलती रहती हैं. लोग गांव तक मार्ग ना होने को लेकर सरकार को कोसते दिखाई देते हैं.गौर हो कि प्रदेश के पर्वतीय जिलों के दुर्गम क्षेत्रों में हॉस्पिटलों में डॉक्टर ना होने से लोगों को आए दिन परेशान होना पड़ता है. साथ ही कोई व्यक्ति बीमार हो जाता है तो उसे डंडी-कंडी के सहारे सड़क मार्ग तक पहुंचाया जाता है. कई बार तो गंभीर मरीज रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं. विकराल स्थिति तब बन जाती है, जब प्रसव पीड़िता महिला को हॉस्पिटल पहुंचाना पड़ता है. कई बार प्रसव पीड़िता महिलाएं रास्ते में ही बच्चे को जन्म दे देती हैं. दरअसल, पहाड़ों पर डॉक्टरों की कमी के चलते मरीजों का इलाज पर्वतीय क्षेत्रों पर नहीं हो पा रहा है. जिसके चलते जहां एक ओर मरीजों के तीमारदार बेबस नजर आ रहे हैं. वहीं, दूसरी ओर स्वास्थ्य महकमा डॉक्टरों को पहाड़ चढ़ाने के लिए कुछ व्यवस्था लागू करने की बात कह रहा है. देश की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के चलते जहां एक ओर विकास की गति सुस्त होती है, वहीं सुविधाओं के अभाव में डॉक्टर पहाड़ नहीं चढ़ना चाहते हैं. जिसका खामियाजा स्थानीय लोगों को उठाना पड़ता है. क्योंकि मरीजों को बेहतर इलाज के लिए निजी अस्पतालों या फिर जिला मुख्यालय का रुख करना पड़ता है. इतना ही नहीं, पहाड़ से मैदान में आकर सरकारी अस्पतालों में इलाज कराना और अधिक महंगा पड़ता है, क्योंकि मरीजों का इलाज तो फ्री में होता है लेकिन मरीज को यहां लाना और यहां तीमारदारों का रहना खाना काफी महंगा पड़ जाता है. वहीं, पौड़ी जिले से देहरादून जिला अस्पताल आए तीमारदार ने अपनी आपबीती बताते हुए कहा कि उसका भाई एचआईवी पीड़ित है. इसके इलाज के लिए देहरादून के चक्कर लगाने पड़ते हैं. वहां से वाहन भी उपलब्ध नहीं हो पाते हैं. जिसके चलते करीब 10 हजार रुपए में गाड़ी बुक करने इलाज के लिए आना पड़ता है. इसके साथ ही यहां आकर ब्लड टेस्ट की रिपोर्ट के लिए 2-3 दिन रुकना पड़ता है. हालांकि, इलाज फ्री में होता है. लेकिन अलग से खर्चा काफी अधिक हो जाता है. प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में डॉक्टरों के न जाने के सवाल पर डीजी हेल्थ ने कहा कि डॉक्टर्स को पहाड़ चढ़ाने के लिए प्लान तैयार किया जा रहा है, जिसके तहत डॉक्टरों के खाने और रहने की व्यवस्था के साथ ही अतिरिक्त वेतन भुगतान को लेकर भी प्लान तैयार किया गया. हालांकि, इस पर शासन स्तर पर काम चल रहा है. जिसके लागू होने के बाद डॉक्टरों को फायदा मिलेगा. उत्तराखंड के खासकर पर्वतीय क्षेत्रों में मौजूद सरकारी अस्पतालों से अक्सर लापरवाही के मामले सामने आते रहे है. कई बार ऐसा भी देखा जाता रहा है कि बेवजह मरीजों को रेफर कर दिया जाता है, जिसके चलते मरीजों और उनके तीमारदारों को खामियाजा उठाना पड़ता है.हालांकि सरकारी अस्पतालों से बेवजह रेफरल को रोकने के लिए स्वास्थ्य विभाग ने कड़ा रुख अख्तियार करते हुए एसओपी जारी कर दी है, लेकिन समस्या ये है कि अधिकांश रेफरल विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी के चलते भी किए है और उत्तराखंड में विशेषज्ञ डॉक्टरों की भारी कमी है. ऐसे में एक बड़ा सवाल यही है कि विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी को पूरा किए बिना इस एसओपी का पालन पूर्ण रूप से कैसे किया जाएगा? उत्तराखंड स्वास्थ्य विभाग के लिए शुरू से ही एक बड़ी चुनौती डॉक्टरों की कमी रही है. इस कमी की पूरा करने के लिए सरकार मेडिकल कॉलेज से पास आउट हुए डॉक्टरों की पहली तैनाती भी पर्वतीय क्षेत्रों में ही करती है, लेकिन डॉक्टर है कि पहाड़ चढ़ने को तैयार ही नहीं होते हैं. यहीं कारण है कि सरकार चाह कर भी पहाड़ी जिलों में डॉक्टरों की कमी दूर नहीं कर पा रही है उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) में 80% विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी है। पहाड़ों में 80 हजार की आबादी पर एक सीएचसी होना चाहिए। इसके अनुसार पहाड़ में 44 सीएचसी की कमी है। स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से हाल ही में जारी हेल्थ डायनमिक्स (इंफ्रास्ट्रक्चर एंड ह्यमून रिसोर्स) रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है। रिपोर्ट में 31 मार्च 2023 तक उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं का विश्लेषण किया गया। इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड (आईपीएचएस) के मानकों के अनुसार, विशेषज्ञ डॉक्टरों की 80% कमी है।. अब सवाल यही है कि जब पहाड़ के सरकारी हॉस्पिटलों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी होगी तो उनका मरीजों को रेफर करना मजबूरी हो जाएगा. ऐसा नहीं है कि स्वास्थ्य विभाग ने विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी को दूर करने के लिए कोई पहल नहीं की, लेकिन ये पहल साकार नहीं हो पाई. स्वास्थ्य मंत्री ने बताया कि उत्तराखंड ही नहीं पूरे देश में विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी चल रही है। प्रदेश सरकार की ओर से इस कमी को दूर करने के लिए हरसंभव प्रयास किए जा रहे हैं। 2027 तक प्रदेश में विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी दूर हो जाएगी। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*