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हिमालयी क्षेत्र, नाग जाति का कुमाऊं पर रहा है शासन

13/08/21
in उत्तराखंड
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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला:

उत्तराखंड में प्रागैतिहासिक काल से ही मानव जातियों का अस्तित्व था। पुरातत्व की खोज में लखुउड्यार, ग्वारखा गुफा, फलसीमा, हुडली, मलारी आदि गांवों में कई तरह के मिले अवशेष इसकी पुष्टि भी करते हैं। पौराणिक व एतिहासिक रूप से यहां यक्ष, गंधर्व, नाग, किरात, हुण आदि कई जातियों ने शासन किया। पौराणिक रूप से नागों की उत्पत्ति 1800 साल पूर्व मानी जाती है। खसों के उद्भव के बाद नाग जाति का पतन हो गया लेकिन, इनका कोई भी अभिलेख उपलब्ध नहीं है।

ईसा से चौथी सदी तक कुणिंद जाति के शासन के इतिहास की जानकारी मिलती है। कुणिंद के बाद यहां शक, कुषाण, काॢतकेयपुर, निबंर, सलोणादित्य, पाल, चंद, गोरखा व अंग्रेजी शासकों का राज रहा। महाभारत काल में पूरे भारत वर्ष में नागा जातियों के समूह फैले हुए थे। विशेष तौर पर हिमालय की पर्वत श्रेणियों से सटे इलाकों असम, मणिपुर, नागालैंड, उत्तराखंड तक इनका प्रभुत्व था। ये लोग सर्प पूजक होने के कारण नागवंशी कहलाए। कुछ विद्वान मानते हैं कि नाग जाति हिमालय के उस पार यानि तिब्बत की थी।

तिब्बती भी अपनी भाषा को नागभाषा कहते हैं। कश्मीर का अनंतनाग इलाका नागों का मूल था। कांगड़ा, कुल्लू व कश्मीर सहित अन्य पहाड़ी इलाकों में नाग ब्राह्मणों की एक जाति आज भी मौजूद है। नाग वंशावली में शेषनाग को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेषनाग को ही अनंत नाम से भी जाना जाता है। इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकि हुए फिर तक्षक और पिंगला। पिंगला या पिंगली नाग जाति का पूरे हिमालयी क्षेत्र में आधिपत्य रहा। नाकुरी क्षेत्र को मानसखंड में नागपुरी कहा गया।

बागेश्वर जिले के कांडा-कमेड़ीदेवी क्षेत्र में कभी नागों का आधिपत्य था। थल के नजदीक बरसायत गांव में ङ्क्षपगलनाग नामक एक सदाबहार नौला है। कहा जाता है कि इस नौले का  पानी कभी नहीं सूखता, लेकिन चट्टानों की तलहटी में बने इस नौले के पानी को उपयोग में नहीं लाया जाता। पुराणों में वर्णित नागों के 11 मंदिर हैं। जिनमें से ङ्क्षपगली नाग पिथौरागढ़ जिले के पांखु गांव में घने जंगल के शिखर में स्थित है। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि नाग देवता उन्हें संकट से उबारते हैं।

द्वापर युग में कालिया नाग को जब यमुना नदी में भगवान श्रीकृष्ण ने युद्ध में पराजित किया तो वह अपने भाइयों धौलीनाग, बेरीनाग, फेणीनाग, वासुकिनाग, मूलनाग व अपने राजपुरोहित ङ्क्षपगलाचार्य आदि के साथ दशोली, गंगावली के निकट के पर्वत शिखरों में बस गया। यही ङ्क्षपगलाचार्य स्थानीय निवासियों द्वारा ङ्क्षपगल नाग देवता के रूप में पूजे गए। बागेश्वर जिले में विजयपुर की पहाडिय़ों के शीर्ष पर धौलीनाग मंदिर स्थित है। इस मंदिर को गंगोलीहाट के महाकाली मंदिर और पाताल भुवनेश्वर से पर्यटन सर्किट द्वारा जोडऩे की घोषणा भी सरकार ने की थी।

स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, जब भगवान कृष्ण ने कालियानाग को यमुना छोड़कर चले जाने को कहा था, तो उसने उन्हें बताया कि उनके वाहन गरुड़ के डर के कारण ही वह यमुना में छुपा बैठा था। इस पर कृष्ण ने उसके माथे पर एक निशान बनाकर उसे उत्तर में हिमालय की ओर भेज दिया। कालियानाग कुमाऊं क्षेत्र में आया तथा शिव की तपस्या करने लगा। धवल नाग (धौलीनाग) को कालियानाग का सबसे ज्येष्ठ पुत्र माना जाता है।

धवल नाग ने शुरू में कमस्यार क्षेत्र के लोगों को काफी परेशान किया। जिसके बाद लोगों ने उसकी पूजा करना शुरू कर दिया। ताकि वह उन्हें हानि न पहुंचाएं। लोगों के पूजन से उसके स्वभाव पर विपरीत असर पडऩे लगा और फिर उसने लोगों को तंग करने की जगह उनकी रक्षा करना शुरू कर दी। कांडा से 10 किलोमीटर की दूरी पर घने देवदार और चीड़ के जंगलों के बीच शिखर में स्थित प्रसिद्ध मंदिर है। यह मंदिर समुद्र स्तर से लगभग 2134 मीटर तथा सात हजार फीट ऊंचा है।

फेणीनाग ङ्क्षपगलनाग के भाई हैं। बेरीनाग गांव में स्थित एक प्रमुख तीर्थस्थल है। यह नागमंदिर पेड़ों और छोटी घाटियों से घिरा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि 14वीं शताब्दी में महाराष्ट्र के पंत यहां बसने के लिए आए थे तथा इस जगह पर उन्होंने बड़ी संख्या में विभिन्न रंगों के सांप देखे थे। यहां सांपों के लिए एक मंदिर बनवाया गया जिसका नाम ‘नागमंदिर’ रखा गया। यह नागमंदिर नागवेणी राजा बेनीमाधव द्वारा बनवाया गया था। नागों की भूमि बेरीनाग में पहली बार परंपरा टूट चुकी है। नागपंचमी पर होने वाला मेला पहली बार नहीं लगा। कोरोना को चलते पहले से ही मेला स्थगित करने का निर्णय लिया गया था।। सदियों से चली आ रही परंपरा बंद हुई।बेरीनाग क्षेत्र ऐसा है जहां पर पहाड़ियों के नाम भी नागों से हैं।

धार्मिक मान्यता इसे द्वापर युग में भगवान कृष्ण ने गोकुल में काली नाग का मानमर्दन मानते हैं। यमुना नदी में जब कृष्ण ने काली नाग को पराजित किया तो काली नाग ने अपना सबकुछ छिनने के बाद आगे के लिए उनसे अनुरोध किया। तब कृष्ण ने उसे हिमालयी क्षेत्र में जाने को कहा। काली नाग हिमालयी क्षेत्र में आकर राज करने लगा जिसके चलते कश्मीर से लेकर उत्त्तराखंड के तक पर्वतीय भाग में नागों का राज्य रहा। नागों को पूजने की परंपरा चली। स्थानीय स्तर पर इसे 13वीं शताब्दी से जोड़ा जाता है।

इस दौरान यहां पर कत्यूरी शासकों का शासन था। नाग मंदिर आज इस क्षेत्र में आस्था के प्रमुख केंद्र हैं। जहां पर नागों के अलग-अलग मंदिर हैं। प्रमुख मंदिरों में बेरीनाग, धौली नाग, फेणी नाग, पिंगली नाग, काली नाग, सुंदरी नाग है। यहां तक कि कुछ पहाड़ों का नाम तक नागों के नाम पर है। धौलीनाग बागेश्वर जिले के कमेड़ी देवी के पास स्थित है तो सुंदरीनाग मुनस्यारी विकास खंड के तल्ला जोहार में है। नागपंचमी पर सभी नाग मंदिरों पर पूजा-अर्चना होती है। बेरीनाग में नागपंचमी का मेला लगता है। बार नागपंचमी का मेला नहीं लगा।

 कुमाऊं क्षेत्र में नागों के अन्य भी कई प्रसिद्ध मंदिर हैं। जैसे छखाता का कर्कोटक नाग मंदिर, दानपुर का वासुकि नाग मंदिर, सालम के नागदेव तथा पद्मगीर मंदिर, महार का शेषनाग मंदिर तथा अठगुली-पुंगराऊं के बेड़ीनाग, कालीनाग, फेणीनाग, पिंगलनाग मंदिर पिथौरगढ़, खरहरीनाग तथा अठगुलीनाग अन्य प्रसिद्ध मंदिर हैं। स्कंद पुराण के मानस खण्ड के 83वें अध्याय में धौलीनाग की महिमा का वर्णन है। देवभूमि उत्तराखंड में नागों के 108 मंदिर है। प्राचीन काल में टिहरी गढ़वाल में रहने वाले नागवंशी राजाओं और नागाओं के वंशज आज भी नाग देवता की पूजा करते हैं। प्राचीन समय से इस क्षेत्र में बहुत से सिद्ध नाग मन्दिर स्थापित हैं।

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